bilao ki murkhta ,hitopadesh ki kahani
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Hitopadesh ki Kahani : भारत के उत्तरी प्रदेश में अर्बुद शिखर नाम का एक पर्वत है। उस पर्वत पर दुर्दान्त नाम का एक सिंह रहा करता था। दिन को तो यह सिंह वन में विचरण कर अपना शिकार करता और रात्रि को अपनी कन्दरा में आकर सो जाता।

एक बार ऐसा हुआ कि जब भी रात को सिंह सोता तो कोई चूहा आकर उसकी गर्दन के बालों को कुतर जाया करता । सिंह प्रातः काल उठने पर जब अपने बालों को कटा हुआ पाता तो उसको बड़ा क्रोध आता। यह तो वह समझ गया कि कोई चूहा आकर उसके बाल कुतर जाता है, किन्तु उसको वह चूहा कभी कहीं दिखाई दिया नहीं ।

बड़ा दुखी होकर सिंह सोचने लगा कि छोटा शत्रु बल से वश में नहीं किया जा सकता।

उसको मारने के लिए तो उसके समान ही कोई छोटा सैनिक आगे करना चाहिए ।

ऐसा विचार कर वह एक दिन अपना वन छोड़ करके गांव की ओर गया। अवसर की बात है कि उसको वहां दधिकर्ण नाम का एक बिलाव मिल गया। बिलाव और सिंह तो सजातीय माने जाते हैं । सो किसी प्रकार उसको विश्वास दिला कर वह उसे अपने साथ अपनी कन्दरा में ले आया ।

कन्दरा में लाकर दुर्दान्त ने दधिकर्ण का स्वागत-सत्कार किया और उसको कोमल मांस के खण्ड खिलाये । उस दिन से वह बिलाव उस कन्दरा में ही रहने लगा ।

इसका परिणाम यह हुआ कि बिलाव के डर से चूहा बिल से बाहर ही नहीं निकलता था, बाल काटने की बात तो दूर रही। सिंह इस ओर से निश्चिन्त हो गया और अब उसकी रातें बड़े सुख से बीतने लगीं।

जब कभी भी सिंह को चूहे की चूं चूं सुनाई देती, तभी वह बिलाव को और अधिक तथा अच्छा मांस खिला देता ।

एक दिन की बात है कि सिंह तो अपने शिकार की तलाश में कन्दरा से बाहर निकलकर वन को चला गया किन्तु बिलाव वहीं रहा । उसको अपने भोजन की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी । उसकी पूर्ति तो सिंह कर किया करता था। सिंह के जाने पर अवसर पाकर और बिलाव की आंख बचाकर भूख का मारा चूहा बिल से बाहर निकल आया और इधर-उधर भोजन की खोज करने लगा। चूहा छिप-छिप कर घूम रहा था। फिर भी बिलाव की उस पर दृष्टि पड़ ही गई। बस उसने उसको एक छलांग में दबोचा और मार कर खा गया।

चूहे के मारे जाने के कुछ दिन बाद सिंह ने अनुभव किया कि न तो कभी चूहा दिखाई दिया और न कभी उसकी चूं चूं ही सुनाई दी। एक दो दिन और बीतने के बाद सिंह समझ गया कि चूहे का काम तमाम कर दिया गया है।

जब चूहा ही न रहा तो सिंह को अब बिलाव की भी आवश्यकता नहीं रही। बस, उसी दिन से सिंह ने बिलाव के भोजन की उपेक्षा आरम्भ कर दी। कभी उसको खाने को दे देता, कभी नहीं। डर के कारण बिलाव कुछ कह सकता नहीं था । उसका परिणाम यह हुआ कि कुछ दिन बाद भूख के कारण बिलाव का भी प्राणान्त हो गया।

यह कहानी सुनाकर दमनक कहने लगा, “भाई ! इसी कारण मैं कहता हूं कि स्वामी को कभी भी निरपेक्ष न करें।”

वहां से करटक और दमनक दोनों संजीवक बैल के पास गए। उसके समीप पहुंचने से पहले ही करटक तो एक वृक्ष की छाया में बड़े शान और रौब से बैठ गया। दमनक बैल के पास गया ।

बैल के पास जाकर दमनक ने भी बड़े रौब से कहा, “अरे बैल ! क्या तुम जानते नहीं कि मुझे इस वन के राजा सिंह राज पिंगलक ने वन की रखवाली पर नियुक्त किया है। वह देखो हमारे सेनापति करटक उस वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे हैं।

“सेनापति महाशय ने मुझे तुम्हें आज्ञा देने के लिए कहा है कि तुरन्त मेरी सेवा में उपस्थित हो जाओ अन्यथा यह वन छोड़कर दूर भाग जाओ । यदि तुमने आज्ञा का पालन नहीं किया तो तुम्हारी दुर्दशा होगी।

“आज्ञा तो मैंने तुम्हें सुना दी अब तुम्हें जैसा करना हो करो। किन्तु इतना मैं तुम्हें अपनी ओर से बता देना चाहता हूं कि हमारे स्वामी का क्रोध बड़ा भयंकर है। यदि उनकी आज्ञा का पालन नहीं होता है तो फिर वह जो न कर बैठें वही कम है। “

यह सुनकर संजीवक ने यही उचित समझा कि उसकी आज्ञा का पालन किया जाये । क्योंकि राजा की आज्ञा का उल्लंघन, ब्राह्मणों का अनादर और स्त्री के लिए अलग बिछौना, यह ऐसी प्रताड़ना है कि जिसकी चर्चा शास्त्र में भी नहीं मिलती।

तदनन्तर देश के व्यवहार से सर्वथा अनभिज्ञ संजीवक डरता हुआ करटक के समीप पहुंचा । कहा भी गया है कि हाथी की पीठ पर रखे हुए नगाड़े को जब महावत बजाता है तो मानो नगाड़ा कहता है कि बल से बुद्धि बड़ी है। हाथी इतना बलशाली है किन्तु उसके बुद्धि न होने से वह मनुष्य की सेवा करता है ।

संजीवक के करटक के पास पहुंचकर उसको प्रणाम किया और बोला, “सेनापति महोदय ! मेरे लिए क्या आज्ञा है, कृपया बताइए।”

करटक कहने लगा, “ओ बैल! तू इस वन में रहने लगा है। इसलिए चल और हमारे राजा के चरणों में प्रणाम कर ।”

सिंह के पास चलने की बात सुनकर बैल डर से कांपने लगा। उसने सोच-विचार कर कहा, “आप मुझे अभयदान दीजिए तो मैं उनकी सेवा में चलूं।”

करटक बोला, “अरे बलीवर्द! इस प्रकार की शंका करना व्यर्थ है। क्या तुमने सुना नहीं है कि बार-बार गाली देने पर भी शिशुपाल की बातों का भगवान् श्री कृष्ण ने कभी कुछ उत्तर दिया ही नहीं । सिंह तो मेघ का गर्जन सुनकर ही दहाड़ता है, सियारों की आवाज सुनकर नहीं ।

” और भी कहा गया है कि आंधी की वायु तिनकों को नहीं उखाड़ती। क्योंकि तिनके नम्र और मृदु बने रहते हैं। आंधी की वायु तो बड़े-बड़े ऊंचे वृक्षों को ही धराशायी करती है। महान् तो महान् पर ही अपना पुरुषार्थ प्रकट करता है।”

इस प्रकार समझाकर वे संजीवक को अपने साथ लेकर चले ।

पिंगलक के पास पहुंचने से पूर्व ही उन्होंने संजीवक को एक ओर खड़ा कर दिया और स्वयं दोनों उसके पास गए।

दोनों भाइयों को आया देख सिंह को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उनको बड़े आदर से देखा और सिंह के संकेत पर राजा को प्रणाम कर वे लोग एक ओर को बैठ गए।

राजा ने उनके बैठने पर पूछा, “क्या तुम लोगों ने उसको देखा ?”

दमनक ने कहा, “हां महाराज ! देखा। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैसा आपने सोचा था वह वैसा ही बड़ा बली है। वह भी आपके दर्शन करना चाहता है। देखिए जब वह आ जाय तो आप सजग होकर बैठिएगा, कहीं उसके शब्द से आप उसके सामने ही डरने न लग जायें।

“कहा भी है कि शब्द का कारण जाने बिना उसे सुनकर ही नहीं डर जाना चाहिए। क्योंकि शब्द का हेतु समझ कर तो एक कुटिनी भी आदर की पात्र बन गई थी । “

राजा ने पूछा, “यह कैसे ?”

दमनक बोला, “सुनाता हूं, सुनिये ।’