भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
एक था चींटा। कालिख-सा रंग, बड़ी-बड़ी टाँगें। जवानी में ही वह बूढ़ा हो चला था। भूख और प्यास से उसका शरीर जर्जर हो गया था। इसका कारण यह था कि वह बिलकुल लापरवाह व आलसी था। पूरी रात तो वह सोता ही, दिन में भी खर्राटे लेता रहता। यह आदत बचपन से ही उसमें घर कर गयी थी। पर उसका यह सौभाग्य था कि जिस घर में वह रहा करता था, अचानक उसकी कायापलट हो गयी। एक दिन ‘सस्ते गल्ले की दुकान’ का बोर्ड उस घर के आगे टाँग दिया गया। चींटा बेचारा डर के मारे काँप रहा था। उसे काटो तो खून नहीं… ‘हे भगवान! अब क्या होगा?’ पर दूसरे दिन उसकी आशा के विपरीत चीनी की पचासों बोरियाँ घर में रख दी गयीं। चींटे की खुशी का ठिकाना न रहा।
अब वह दिन-रात सुरंग में पड़ा रहता। जब भी उसे भूख सताती, वह बाहर आ जाता और भरपेट चीनी खाकर, पेट सहलाता हुआ पुनः वापस लौट जाता। मगर बुरे दिन तो सबके आते हैं न? एक दिन सारे सामान हटाए जाने लगे। बोर्ड भी हटा लिया गया और फिर रह गया…वही बरसों पहले वाला सूना-सूना घर। दुकान तो बदल गयी, पर उसकी लापरवाही ज्यों-की-त्यों बनी रही। फिर तो उसका शरीर भोजन के अभाव में शिथिल पड़ता गया। चींटा छटपटा रहा था। कई दिनों से उसे एक दाना भी नसीब नहीं हुआ था। जब कोई दूसरा चारा न दिखा, तो अंततोगत्वा उसे भगवान की याद आई। तभी उसे चींटियों का एक झुंड चीनी के दाने लेकर आता दिखा।
चींटा गिड़गिड़ाया- “बहनों! मैं कई दिनों से भूखा हूँ। मारे भूख के मेरी जीभ चटपटा रही है। होंठ सूख रहे हैं…।” बात काटती हुई एक चींटी आश्चर्य से बोली- “मगर तुम्हारे तो हाथ-पाँव ठीक-ठाक हैं। स्वस्थ शरीर है। फिर भी इस अवस्था में तुम अपने भोजन का जुगाड़ क्यों नहीं करते?”
चींटे के पास कोई जवाब नहीं था। चीनी के दाने देखते ही उसके मुँह में पानी भर आया। उसने विनती की- “मुझे चीनी के कुछ दाने दे दो, वरना अब जान निकलने ही वाली है।”
दूसरी चींटी मुस्कुराती हुई बोली- “लगता है तुम दिन-रात सुरंग में ही पड़े रहते हो। आराम से सोते हो। मैं समझ गयी, तुम निरे आलसी हो।”
तीसरी चींटी मुँह फुलाकर बोली- “तुम ठीक कहती हो बहन! पर जो अपनी मदद खुद नहीं करता, उसकी सहायता तो भगवान भी नहीं करते।”
चींटियों की बातें सुनकर चींटा जल-भुन गया। गुस्से में तमतमाया हुआ बोला- “कमबख्त! चुप रहो! छोटा मुँह और बड़ी बातें? अगर तुम सीधे तरीके से चीनी के दाने नहीं दे देतीं, तो मैं तुम्हें कुचलकर जबर्दस्ती छीन लूँगा।”
सभी चींटियाँ एक साथ ठहाके लगाती हुई बोलीं- “पहले अपनी औकात देखो। जो दो कदम चल भी नहीं सकता, वह हमें क्या मारेगा! हम सब पहले दिनभर काम करती हैं, फिर आराम से खाती हैं। तुझ जैसे आलसी की कोई सहायता नहीं कर सकता।”
चींटा उन पर झपटा। सभी चींटियाँ भाग खड़ी हुईं।
मगर तभी एक बूढ़ी चींटी चलते-चलते रुक गयी। उसने लौटकर चींटे को समझाते हुए कहा- “चींटे भैया! क्यों खामख्वाह नाराज हो रहे हो? ये लो चीनी के दाने।”
चींटा तो भूखा था ही। वह लगा ताबड़तोड़ खाने। मगर वे दाने तो ऊँट के मुँह में जीरा जैसे थे। वह अधीरता से बोला- “मुझे और दाने चाहिए।”
“भैया! चलो, मैं तुम्हें चीनी के गोदाम में ही लिए चल रही हूँ।” बूढ़ी चींटी ने मुस्कुराते हुए कहा।
चींटा वहाँ चलने को तैयार हो गया। चींटी आगे-आगे बढ़ी और चींटा उसके पीछे हो लिया।
थोड़ी दूर चलने के बाद ही चींटा लगा हाँफने। उसे जीवन में कभी चलने-फिरने की आदत तो थी नहीं। वह बोला- “अब कितनी दूर और चलना है, बहन?”
“बस, अब आ ही गए, भैया!” चींटी ने फिर होंठों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा।
चींटा पसीने से तर-ब-तर हो गया था। वह अब भी जोरों से हाँफ रहा था।
सामने ही चीनी का गोदाम था। चींटे को रोज-रोज की मेहनत से बचने का एक उपाय सूझा और उसने चींटी से कहा, “बहन, क्यों न हम यहीं अपना घर बनाकर रहें और बैठे-बैठे चीनी खाते रहें?”
“नहीं भैया! यहाँ रहोगे तो एक दिन में ही किसी के पैरों तले मसल दिए जाओगे और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मेहनत से मिले भोजन में जो मिठास है, वह आराम से प्राप्त भोजन में कहाँ? पहले यहाँ की चीनी चखकर तो देखो।”
चींटा चीनी पर टूट पड़ा। ढेर सारे दाने खाकर वह पेट सहलाता हुआ बोला- “बहन, तुमने मेरी आँखें खोल दीं। जीवन भर मैं बैठे-बैठे ही खाता रहा। मगर इतनी दूर चलने के बाद, इतना स्वादिष्ट अमृत जैसा भोजन मुझे आज तक नसीब नहीं हुआ था। चीनी तो वही होगी, जो पहले मिलती थी। लेकिन आज इसका स्वाद कैसे बदल गया?”
चींटी ने ठठाकर हँसते हुए कहा- “चींटे भैया! यह चीनी की मिठास नहीं है। यह मिठास है तुम्हारी मेहनत की। यों ही मेहनत करोगे तो तुम्हें जीवन का वास्तविक आनंद मिलेगा। हट्टे-कट्टे भी रहोगे और किसी से कुछ माँगने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।”
चींटे को आज सही मायने में जीने का सबक मिल गया था। उसकी प्रसन्नता की सीमा न थी। चींटी भी खुश थी। उसने एक आलसी को सही रास्ते पर जो ला दिया था।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
