कौर का तराजू-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Family Story
Kaur Ka Taraju

Family Story: घर्र…. घर्र …मिक्सी की देर तक चलने वाली आवाज़ अक्सर नन्हे चिन्टू को खुशी से भर देती। आज भी वो आँगन में नाच रहा था। और बड़े से आँगन के बीचों बीच नई बनी दीवार के उस  पार बने आँगन में दरवाज़े के कुर्सी पर बैठी उसकी दादी मनोरमा देवी अनुमान लगा रहीं थीं कि क्या बन रहा होगा  छोटी सुजाता की रसोई में। ऊपर बनी रसोई की बड़ी सी खिड़की से सुबह शाम उड़ने वाली भोजन की खुशबू ,इस बात की सूचना भी होती विगत दो महीने से मनोरमा देवी के लिये, कि बेटे कमल के परिवार में सब कुशल है।और आज सुबह से ही डोसे के घोल से उठती ख़मीर की खट्टी खट्टी खुशबू, ताज़े नारियल की हरी चटनी और पंचफोरन की देशी घी में छौंक लगी बघार मानो उन्हें अलग ही दुनिया की सैर करवा रही थी।

पिछली बार की रसम का स्वाद तो अभी तक न भूला कितने चक्कर कटवाये भी बाज़ार के चिन्टू और सुजाता ने तब कहीँ इमली मिली थी,मनोरमा जी मन में सोच रहीं थी,जो भी हो बंटवारा अपनी जगह ,राजी नाराज़ी अपनी जगह बहू (सुजाता)देगी ज़रूर मुझे। अपनी साड़ी के  पल्ले को पूरी ठसक से सिर पर  सँभालते माँ होने के तेज से उनका माथा भी दिप दिप कर रहा था। आज बड़ी  बहू पर बड़ा क्रोध आ रहा था ,बँटवारे तक बहलाने के बाद वो उबले खाने और बैठक तक ही सीमित रह गईं थी।ये मरी दलिया भी कोई चीज़ है खाने की न सर न स्वाद मन ही मन बड़बड़ा रहीं थीं।उधर हमारे  बारह साल के चिन्टू मास्टर के दिल मे ख़ुशी की लहर उछालें भर रही थी और भरती भी क्योँ न।

सुजाता उसकी मम्मी उसका फेवरेट इडली और डोसा जो बनाने जा रहीं थी,मदर्स डे  पर ख़ैर मदर्स डे तो छोड़ो सुजाता को बाहर का खाना कब भाया अपने लाड़ले के लिये। तभी तो बाज़ार के रेडिमिक्स न खरीद । पूरी मेहनत  और मशक़्क़त से वो लाड़ले के नाज़ उठाकर घर में ही बनाती। दिन भर कई बार जब वो चटखारे लेकर  खाता तो सुजाता के लिये भले ही कुछ न बचे पर हृदय और पेट दोनोँ भर जाते। मनोरमा देवी को भी बहुत पसन्द थे डोसे, अक्सर बतातीं थीं कि तुम्हारे पिताजी मुझे होटल में  डोसे खिलाते थे।

सुजाता शौक़ीन थी,बनाने की तो  सबसे ज़्यादा खुशी होती मनोरमा जी को । कभी अगर वो बाहर जाती तो अपनी सास के लिये ज़रूर  पैक करा कर ले आती। ऊपरी न नुकुर दिखाने के बाद जब मनोरमा जी खातीं तो सुजाता को उनमें और चिन्टू में कोई अंतर न दिखता। चिन्टू  सुजाता के एक आवाज़ लगाते ही रसोईघर में आ गया| अपने सजे हुए भोजनथाल को देख ख़ुशी से किलक उठा।छन्न की आवाज़ के साथ गोलाकार डोसे तवे पर आकार लेते जा रहे थे।उधर चिन्टू की भूख और ख़ुशी भी आँखों से टपकी जा रही थी। पेट भरते ही,उसने ऐलान कर दिया,”मम्मी बचा के रखना दोपहर के लिये भी और रात  के लिये भी। हाँ बाबा सुजाता ने हँसी रोकते हुए कहा अब भेज अपने पापा को।

दीवार के पार से चिन्टू की ओर टकटकी लगाये मनोरमा जी,बिल्कुल  वैसे ही छोटे बच्चों की तरह चिन्टू की गतिविधियों पर नज़र रखें थीं जैसे किसी दोस्त की माँ ने उसे धूप में खेलने से मना कर रखा हो और खेलने वाला दोस्त पूरे अरमान से दरवाज़े पर अपने मित्र की राह देख  रहा हो।जैसे ही चिन्टू को अपने पिता कमल को बुलाने के लिये बाहर निकला मनोरमा देवी ने ईशारे से बुलाया।चिन्टू!आज बड़ा चहक रहा है ,लगता है तेरी माँ कुछ बढ़िया बना रही है आज।चिन्टू भी इधर उधर देखने के बाद आँखे मटका कर बोला,”डोसे… लेकिन आपको दूँगा तो ताईजी,ताऊजी गुस्सा करेंगे। तो मैं तेरे घर आ के खाऊँगी ,दीवार पार ही तो नया दरवाज़ा लगा है,इन दोनोँ की पत्नियों  ने मेरा घर बाँट डाला,मन का खाना भी रोक दिया,वो थोड़ा क्रोध से बड़बड़ा उठीं।ताज़ा ताज़ा बंटवारे के जख्म भी कुछ ज़्यादा ही रिसते और दुःखते हैं,इन सबमें बुरी  तरह हारती है तो बस एक माँ।

जो एक बेटे से डरती है तो दूसरे की नाराज़गी भी बर्दाश्त करती है। मनोरमा जी भी अपनी बेबसी पर सिर धुन रहीं थीं ,और थोड़ी देर उन्हें सहमी आँखों से देखने के बाद चिन्टू लड़ाई के डर से भाग गया,वो भी उसे जाते देखती रहीं। कमल के डोसे खा लेने के बाद चिन्टू ने एक बार फिर डोसे पर  नम्बर लगाया और खाते खाते मासूमियत  के साथ बोला।”मम्मी… पत्नी क्या बहुत बुरी होती है,मेरी शादी पत्नी से बिल्कुल मत करना।नहीँ तो वो आपका खाना बन्द कर देगी। न बेटा… आज तुझे पत्नी और शादी की चिन्ता क्योँ हो गयी सुजाता ने हँस कर पूछा।मम्मी अम्मा पूछ रहीं थीं क्या बनाया है,मम्मी ने फिर बोलीं पत्नी खाने नहीँ देगी?न बेटा… वो चिन्टू को गले लगाकर बोली ,मैं भी तो पत्नी हूँ तुम्हारे पापा की क्या मैंने अम्मा का खाना बंद किया कभी?”मम्मी अब तो लड़ाई हो गयी और गेट भी अलग है”,चिन्टू का सवाल अब दिल चीरने लगा था।

अपने लिये थाली लगाने  के बाद भी सुजाता से मुँह में कौर न दिया गया और सुजाता ने  अपनी थाली ढक कर रख दी। और अम्मा की थाली सजाना शुरू कर दिया। क्या विवशता है,घर की लड़ाई,बहुत कुछ छीन लेती है,खुद से लड़ते लड़ते थाली में  सांबर, रसम ,चटनी और पोड़ी पाउडर के साथ दो करारे डोसे रखने के बाद ,उसे ढ़ककर जैसे ही गेट पर पहुंची। पीछे से कमल की भारी आवाज़ गूँज उठी ,रुक जाओ सुजाता और ऊपर चली जाओ। नहीँ कमल जी!..”आज मैं अम्मा जी को थाली उनके लिये नहीँ, हम दोनोँ के भविष्य के लिये देने जा रही हूँ क्योंकि हम दोनोँ पति- पत्नी होने के साथ साथ माँ-बाप भी हैं और हमारी परछाईं हमारा चिन्टू  हमारे ही संस्कारोँ को देखकर सीखेगा।” इतना कहकर सुजाता आगे बढ़ गयी कमल भी  सुजाता के इस अकाट्य तर्क पर मौन रह गया क्योंकि चिन्टू सुजाता के पीछे-पीछे जो था।

अम्मा…सुजाता की आवाज़ सुनते ही वो झट बाहर निकल आयीं और पूरे अधिकार से थाली लेकर खाने लगीं। और सुजाता अपने घर को वापस लौट आई,मनोरमा देवी ख़ुद चलकर देने गयीं और बोलीं कि बहू दो और बनाओ मेरे लिये। पर बैठीं वो कमल के दरवाज़े के बाहर ही,और सुबह से ही उनकी एक-एक गतिविधि पर नज़र रखे हुए, उनकी बड़ी बहू सीमा को बड़ी अखर गयी। और वो अपने पति नवल को वहीँ  बुला लाई और ज़ोर से मनोरमा जी को देखकर  बोली ,”इसीलिए इन्हें भूख न थी सुबह से हाव भाव से  ही मैं समझ गयी थी इनके। दबंग नवल की हरकतें और सीमा की डाह दोनोँ ज़िम्मेदार थीं बंटवारे की, नवल और सीमा  दोनोँ ने अपनी  मनोरमा देवी को उनकी मोटी पेन्शन के लालच के  चलते अपने पास ही रहने पर विवश कर दिया था। और नाराज़ कमल खामोशी से अलग हो गया,सालों के झगड़े की कब्र पर अंतिम कील थी वो आँगन में उठी दीवार ,सीमा ने कमल को एक चीज़ भी न लेने दी। अब उसे चैन तो था सब मेरा है पर असुरक्षित महसूस करती सो अपनी निगाहों की  अदृश्य दीवारों की चहारदीवारी में  मानो क़ैद कर लिया था उसने सास को। दरवाज़े पर नवल और सीमा का शोर सुनकर कमल ने जोर से पुकारा,”सुजात..इसलिये मैंने मना किया था तुम्हें। और जब सीढियों से सुजाता नीचे उतरी तो बिना कहे सब समझ गयी। सीमा बौखलाए लहज़े में सुजाता से बोली ,”अलग का मतलब अलग ही होता है,यूँ चोरी छुपे अम्मा को वश में करना अच्छी बात नहीँ, आज छोड़ रही हूँ वरना…!”वरना क्या बड़े भैया  और दीदी “सुजाता ने भी जोर से चिल्लाकर कहा,”वरना क्या कर लेंगी आप,एक माँ को उसकी पसन्द का खाना खिलाने की क्या सज़ा है आपकी नज़र में मेरी।”और बड़े भैया आप ,आपने मतलब के तराजू में हर रिश्ता परे कर दिया पर एक बात भूल गये,कि सबका पेट भरने वाली माँ ने कभी  बच्चों को खिलाये कौर तराजू में न तौले वरना खुद भूखी रहकर औलाद का पेट न भरती।

एक बात बताईये  आप और कमल जी आप दोनोँ के पास इनके खिलाये बचपन के हर एक  कौर का हिसाब है। ये आप दोनोँ की माँ हैं और दोनोँ बेटों के पास खाना ये अम्मा  तय करेंगी आप की छोटी सोच का तराजू नहीँ। आप सम्पत्ति में दीवार उठाएं उनकी ममता में नहीँ,अब नवल का सिर शर्म से झुक गया था ,मनोरमा देवी की मूक आँखों के सवालों के जवाब उसके पास न थे। आज मदर्स डे है तो एक माँ होने के नाते उनको भी अधिकार है अपनी पसंद के खाने का फिर जब सब आप ले चुके हैं तो आशीर्वाद के अतिरिक्त मैं क्या लेने जाऊँगी उनसे। वो किसी रिश्तेदार नहीँ अपने बच्चे के पास बैठीं हैं और जब मन होगा तब ही जायेंगी। एक माँ किस बच्चे के हाथ से खाना चाहती है ये उसका निर्णय होना चाहिये हमारा बन्धन नहीँ और ये मत भूलिये कि अब हम दोनोँ ही माता-पिता भी हैं तो बच्चों की सँस्कार की थाली में  क्या परोस रहे हैं ये भी  जाँच लीजियेगा।

आप के बच्चे जी जब मदर्स डे मना रहे हैं तो अम्मा ही क्यों वंचित रहें इस खुशी से। नवल और सीमा तो खामोशी से अपने हिस्से में लौट गये,अम्मा आप बैठिये मैं गर्म डोसे उतारती हूँ खाये बिना जाने न दूँगी और मनोरमा देवी छोटे बच्चों की तरह बैठ गईं ,उनके चेहरे की चमक और चिन्टू की ख़ुशी दोनों में अन्तर करना बहुत मुश्किल हो रहा था। सास को प्रसन्नता पूर्वक साधिकार खाते देख  सुजाता अपने मन मे असीम शान्ति का अनुभव कर रही थी।चलते समय मनोरमा जी ने अश्रुपूरित नेत्रों से कहा मुझे पता था बहू ,मुझे दिए बिना तेरे भी मुँह में कौर न दिया जायेगा। एक माँ की पीड़ा ,उसकी विवशता, उसके अरमान ,उसकी भूख समझने के लिये माँ होना ज़रूरी है, माँ बाप भी बुढ़ापे में बच्चे ही हो जाते हैं। हाँ अम्मा मुझे भी तरस आता है इन दोनोँ की सोच पर पर कि माँ  बाप के हाथ के कौर छीन कर खाने वालों को आखिर क्या हक़ है उनके कौरों के  लिये तराजू निर्धारित करने का।आज का मदर्स डे जहाँ नवल सीमा के लिए सबक था वहीँ कमल  को अपनी पत्नी  की सोच पर गर्व महसूस हो रहा था। सीमा उपयुक्त जवाब पाकर सुधर चुकी थी, अब वो रोक नहीँ लगाती  सास पर  परन्तु बहुतों के लिए के भी ये सोचनीय विषय है कि हम अपनी परछाईं (बच्चों ) के क्या दे रहे हैं|