उसका हँसना पता नहीं क्यों मुझे अच्छा लगा। वह बार-बार मेरी ओर देखे जा रहा था। जब-जब उससे मेरी निगाहें मिलती, वह धीरे से मुस्करा जाता। मेरी समझ में नहीं आया कि वह मुझे देखकर क्यों मुस्करा रहा है, किन्तु उसका मुस्कराना मुझे अच्छा ही लगा।

मासूम चेहरा, शक्ल सूरत से अच्छा पढ़ा-लिखा और सभ्य लगने वाले उस नौजवान की उम्र पच्चीस वर्ष के लगभग थी। वेषभूषा से किसी छोटे-मोटे कस्बे का रहने वाला लग रहा था। लगता नहीं था कि वह गांव का रहने वाला है।

सबसे पीछे बैठा था वह बस की सीट पर, और मैं सबसे आगे। ड्राइवर के सामने लगे बैक व्यू मिरर पर जब-जब मेरी नजर पड़ती तो मुझे उसका चेहरा उसमें नजर आता और जैसे ही मेरी निगाह उस पर पड़ती, वह मुस्करा उठता।

मैंने अंदाजा लगाया कि जिस प्रकार बैक व्यू मिरर में मुझे उसकी शक्ल दिखाई दे रही थी, उसी प्रकार उस को भी मेरी शक्ल दिखाई दे रही होगी। इसकी पुष्टि करने के लिये मैंने एक-दो बार पीछे मुड़कर भी देखा। मैं सचमुच आश्वस्त हो गया था कि वह वास्तव में मुझे देखकर ही मुस्करा रहा है।

मैंने दिमाग पर जोर डालकर याद किया। आखिर कौन होगा यह नवयुवक? पहचान का होगा क्या? या फिर पहले कभी इसे देखा होगा? किन्तु ध्यान नहीं आया।

कर्णप्रयाग में जब बस आधी से अधिक खाली हुई तो वह पीछे से आकर ठीक मेरे बगल में बैठ गया। बैठने के पश्चात उसने मुझको नमस्कार भी किया। अब मैंने अपना दिमाग और तेजी से दौड़ाया। इसका मतलब परिचित है, या फिर इसने मुझे पहले कहीं देखा था। क्या इससे पहले भी कभी मिला होऊंगा? ऐसा मुझे याद नहीं आ पा रहा था।

बहरहाल यही जानने के उद्देश्य से मैंने उससे बातचीत शुरू की।

‘कहाँ जाना है?’ मैंने पूछा।

‘पीपलकोटी’

‘आ कहाँ से रहे हो?’

‘दिल्ली से।’

‘दिल्ली में क्या करते हो?’

‘नौकरी।’

‘किस विभाग में?’

‘फैक्ट्री में।’

‘कितनी तनख्वाह मिलती है?’

‘दो हजार रुपये।’

‘गाँव कहाँ है?’ मैंने कुछ और जानने के उद्देश्य से पूछा।

‘पीपलकोटी के पास, बणसौं गांव।’

‘मुझसे पहले कभी मिले थे?’ मैंने फिर पूछा

‘हाँ, दूर से देखा था, भाषण सुना था आपका।’

‘कहाँ?’

‘गौचर मैदान में पिछले साल।’

अब मुझे याद आया, पिछले वर्ष गौचर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले औद्योगिक एवं विकास मेले का उद्घाटन करते वक्त मैंने अपने सम्बोधन में युवाओं को आत्मनिर्भर होने के लिये तकनीकी रूप से कृषि कार्य अपनाने की सलाह दी थी। उद्यानीकरण, फलोत्पादन के साथ-साथ कुटीर उद्योगों की स्थापना हेतु आगे आने का आह्वान किया था। मैंने कहा था कि इस कार्य के लिये सरकार उन्हें आर्थिक मदद भी देगी और हर सुविधाएं उपलब्ध करायेगी।

अब कुछ तो मैं समझ गया था, किन्तु उसके मुस्कराने का अर्थ अभी तक मेरी समझ में नहीं आया था। सो मैंने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया।

‘तो दिल्ली में दो हजार में गुजारा हो जाता है?’

‘मुश्किल से।’

‘कितना पैसा बचा लेते हों?’

‘बहुत कम।’ उसने कहा।

‘घर कितने समय बाद आ रहे हो?’

‘छः महीने बाद।’

‘कितना पैसा बचा कर लाये हो?’

‘केवल तीन हजार।’

‘मतलब एक महीने में केवल पांच सौ ही बचा पाते हो।’ मेरी जिज्ञासा और अधिक बढ़ी।

‘बहुत ही मुश्किलों से, दिल्ली में आने-जाने में ही बहुत पैसा खर्च हो जाता है। कमरे का किराया बहुत अधिक है। दो हजार रुपये में एक कमरा ले रखा है, जिसमें हम चार लड़के रहते हैं। इसके अतिरिक्त खाने-पीने का खर्चा अलग से है।’ उसने पूरे खर्च का विवरण मुझे बताया।

‘तो फिर फायदा क्या हुआ?’ मैंने उसे कुरेदा। ‘पांच सौ रुपया तो तुम गांव में भी हर महीने बचा सकते हो।’

वह कुछ नहीं बोला।

‘घर-गांव में ही कोई काम क्यों नहीं करते?’ मैंने फिर पूछा।

‘किया था, किन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।’

‘क्यों?’ मैंने पूछा।

‘गौचर में आपका भाषण सुनने के बाद मैंने निश्चय किया कि गाँव में रहकर ही कुछ करूँगा और अपने प्रदेश के विकास में भी सहयोगी बनूँगा किन्तु एक वर्ष बाद ही मेरा निश्चय डगमगा गया।’ उसने हताश होकर कहा।

‘क्यों?’

‘मैंने उद्यान विभाग से पच्चीस हजार रुपये ऋण लेकर अपनी बीस नाली जमीन में फलदार पौधे लगाये। इन पौधों से फल पाने के लिये मुझे चार से पांच वर्ष की प्रतीक्षा करनी थी, सिर्फ प्रतीक्षा ही नहीं, मेहनत भी। किन्तु बैंक की किश्त प्रतिमाह एक हजार रुपये बंध चुकी थी। उसको चुकाने के लिये मैंने फलदार पौधों के नीचे सब्जी उत्पादन का कार्य शुरू किया।

गाँव वालों ने कहा- यह लड़का पागल हो गया है। मैंने अपने मां-पिताजी को भी इस कार्य के लिये किसी तरह से राजी करवा लिया। दो अन्य भाई-बहिनों सहित हम सभी पारिवारिक सदस्यों ने मिलकर दिन-रात मेहनत करके, गोभी, फ्रासबीन, टमाटर, आलू, लौकी और खीरे का खूब उत्पादन किया।

हमारी मेहनत रंग लाई और छः महीने के अन्दर ही हमारे खेत सब्जी से लक-दक भर गये थे। अब गांव वाले हतप्रभ थे। मेरी देखा-देखी करके गांव के अन्य युवकों ने भी यह कार्य शुरू करने की ठान ली।

किन्तु जब हम अपनी सब्जी बाजार में बेचने ले गये तो हमारी सारी आशाओं पर पानी फिर गया।

बाजार में कोई भी दुकानदार हमारी सब्जियां उचित दाम पर लेने को तैयार नहीं था। मजबूरी का फायदा उठाकर वे हमारी सब्जियां औने-पौने दामों पर खरीदने लगे।

विपणन के अभाव में हमारा अधिकतर उत्पादन खेतों में ही सड़ने लगा। जिस कारण हमें बहुत घाटा उठाना पड़ा और बैंक की किस्ते जमा करनी मुश्किल पड़ गयी।

थक-हार कर हमें यह व्यवसाय बन्द करना पड़ा और बैंक की किस्ते जमा करने का और कोई जुगाड़ न देख मुझे गाँव छोड़कर दिल्ली जाना पड़ा। तब से आज तक दिल्ली की कमाई बैंक की किश्तों को भरने में ही लग रही है।’

उसने अपनी पूरी कहानी सुनाई। मैंने देखा उसके चेहरे पर उदासी छा गयी थी। उसकी कहानी मुझे अक्षरशः सत्य लगी।

मैं सोचने लगा कि वास्तव में यदि हमारा नवयुवक इसी तरह से टूटता रहेगा तो उसका पहाड़ और पहाड़ की कृषि से मोह भंग होना स्वाभाविक है। युवाओं को कृषि, पशुपालन और उद्योगीकरण से जोड़ने के लिये हमारी सरकार के पास योजनाएं तो हैं किन्तु उसको संसाधन और बाजार उपलब्ध कराना भी तो सरकार का ही दायित्व है।

अब मुझे समझ में आ गया था कि वह मुझे देखकर बार-बार मुस्करा क्यों रहा है। शायद उसकी मुस्कान यही पूछ रही थी कि मेहनत तो हम करेंगे, लेकिन उसका उचित मूल्य कहां से मिलेगा? कौन दिलायेगा? अब मुझे अपने भाषण में संशोधन करने की आवश्यकता भी महसूस हो रही थी। मैं गम्भीर हो गया था।

वह फिर एकटक मुझे देखने लगा। मुझे गम्भीर हुआ देखकर उसने पूछा ।

‘क्या हुआ साहब !’

‘नहीं कुछ नहीं।’ मैं चौंका।

‘एक बात बताइये?’ उसने पहली बार कोई सवाल किया था मुझसे।

‘जब आप अपने भाषण में युवाओं को कृषि से जोड़ने के लिये प्रेरित करते हैं तो क्या यह भी बताते हैं कि उनका उत्पाद किस तरह बाजार तक पहुंच पायेगा?’

मैं निरुत्तर था। विषय बदलने के लिये मैंने उससे पूछा-‘तुम्हारे उन फलदार पौधों का क्या हुआ?’

उसके चेहरे पर अचानक चमक आ गई। मैंने साफ देखा, भविष्य के सुनहरे सपने उसकी आंखों में तैर रहे थे।

‘साहब उसी आस में तो जी रहा हूं। मेरे उन पौधों ने अब पेड़ों का रूप ले लिया है। धीरे-धीरे अब उन्होंने फल देने शुरू कर दिये हैं। एक-दो वर्ष बाद जब सभी पेड़ों पर फल आ जायेंगे, तब कोई भी तंगी नहीं रहेगी,’ उसने खुश होकर कहा। ‘लेकिन साहब आप एक वर्ष के अन्दर-अन्दर ऐसी योजना जरूर बनवा दीजिये जिससे कि हमारे फलों का उचित मूल्य भी बाजार में मिल जाये।’

जिस सवाल को सुनकर मैं निरुत्तर हो गया था। उसने स्वयं ही उसका उत्तर मुझे सुझाव के रूप में दे दिया था।

उसकी बात सुनकर व उसके चेहरे की रंगत देखकर मन को आत्म संतुष्टि की अनुभूति हो रही थी, कि विगत चार वर्षों से घोर हताशा में जीकर मलिन पड़ चुके इस नौजवान के चेहरे पर अब बसंती बहारें लौट आने को उत्सुक थी।

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