Hindi Story: पूर्णिमा जी की हमेशा से यही इच्छा थी सब मिलकर साथ रहें।
अलगाव जिन परिवारों में होता है वहां खुशियां कम और परेशानी अधिक महसूस होती हैं। हम महिलाएं घर परिवार की धुरी हैं।
जैसे ही बाहर गेट खुलने की आवाज आई, पूर्णिमा जी समझ गईं ऑफिस से निधि आ गई है।
आ गई बेटा, सब ठीकठाक!
हां, मां बस! आज ऑफिस में काम थोड़ा ज्यादा था तो थकान सी महसूस हो रही है, लेकिन आप परेशान मत हो अभी काफी पीते ही छूमंतर हो जाएगी।
तू बैठ बेटा, मैं बनाकर लाती हूं कुछ खा-पी ले अच्छा लगेगा।
उबले आलू रखे थे तो झट से पूर्णिमा जी ने सैंडविच बना कॉफी के साथ खाने को दिए, खा-पीकर निधि गले लग बोली, मेरी अच्छी मां! तुम मेरा कितना ध्यान रखती हो, मन करता है हमेशा ऐसी बच्ची बनी रहूं और अपनी प्यारी मां के संग अधिकतर समय गुजारूं।
हां! हां! तेरे पास रहूंगी और क्यूं नहीं रखूंगी ध्यान तेरा? मेरी प्यारी बेटी है तू और फिर निधि को गले लगा प्यार करने लगीं।
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तभी सुमित ऑफिस से आ गया, निधि को प्यार करते देख हंसते हुए बोला, ‘मां कुछ प्यार मेरे और मेघा के लिए भी बचा है या सारा निधि पर ही लुटा दिया।
पूर्णिमा जी ने भी हंसते हुए ही जवाब दिया, ‘मेरे पास क्या प्यार की कमी है? तुम दोनों के अलावा निधि पर बरसाने को भी बहुत है।
खैर! यूंही हंसी-मजाक होता रहा फिर डिनर के बाद सब टीवी देखने लगे तो पूर्णिमा जी बालकनी में आकर बैठ गईं।
मस्त हवा चल रही थी तो बैठना अच्छा लग रहा था, शाम को सुमित की बात याद करते हुए सोचने लगीं, ‘निधि को लाड़-प्यार करने के लिए मजाक में ही पर सही कह रहा था। सच! कभी भी निधि के लिए बहू वाले विचार मन में आते ही नहीं, मेघा और निधि घर में दो बेटियां हैं बस ऐसा ही हमेशा महसूस होता है मन में कोई फर्क कभी नहीं आता।
पूर्णिमा जी की हमेशा से यही इच्छा थी सब मिलकर साथ रहें। अलगाव जिन परिवारों में होता है वहां खुशियां कम और परेशानी अधिक महसूस होती हैं। हम महिलाएं घर परिवार की धुरी हैं। हमारी ही नाते-रिश्तों को एकजुट बनाए रखने की जिम्मेदारी बनती है।
स्वयं से ही पूर्णिमा जी बुदबुदाती जा रही थीं, हमारी उम्र के सभी जानते-समझते हैं महसूस भी करते हैं पहले के जमाने और अब में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है।
‘पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे सभी एक-दूसरे की परवाह करते हुए समर्पण त्याग की भावना से आपसी रिश्तों को बखूबी निभाते थे, परस्पर प्रेम लगाव ताउम्र बनाए रखने की इच्छा सहित भरपूर कोशिश करते थे।
‘आज एकल परिवार की परंपरा बढ़ रही है, वजह… हम से मैं की भावना प्रबल हो छोटी-छोटी बातों व आपसी क्रियाओं में तेरा-मेरा होने लगा है।
‘हर कोई अपने में सिमट अपने तक ही सोचने-समझने लगा है, अपने से ही बात शुरू हो यदि अपने पर ही खत्म हो जाए तो फिर रिश्तों की ना तो कद्र रह जाती है ना ही अहमियत।
‘यह आज की पीढ़ी जानना-समझना नहीं चाहती कि इस जीवन में यदि अपनों का संग-साथ ना मिले तो जीना अत्यंत मुश्किल है। कदम-कदम पर हर पल रिश्ते-नातों की याद आती ही है, उनके साथ दिल का बंधन होने से परायापन कम होता है दिल की बात या मन की चाह बिना कुछ कहे-बोले समझ ली जाती है।
‘सारे सुख परिवार संग रहने में ही हैं, वैसे यह बात सौ फीसदी सही थी आज भी है व हमेशा रहेगी। इसी बात पर एक बात याद आ गई, मेरी बचपन की सहेली शिखा का कुछ दिनों पहले फोन आया। हालचाल वगैरह पूछने के बाद कहने लगी, ‘तेरे शहर ही अपने बेटे के पास नोएडा आई हूं बहुत मन हो रहा था बेटा-बहू और पोते से मिलने का सो चली आई, दो चार दिन रहकर वापिस जयपुर चली जाऊंगी।
सुन ना पूर्णिमा, मेरे से मिलने आ जा, सुबह आकर शाम तक चली भी जाना, सुमित से बात करी तो कहने लगा, ‘मम्मी परसों ऑफिस जाते हुए छोड़ दूंगा और फिर रात को जब वापिस आऊंगा तो आंटी के यहां से लेता आऊंगा, कुछ देर मिल जब शिखा चाय के लिए रसोई में गई तो मैं भी उसके साथ चली गई, घर बहुत अस्त-व्यस्त था, रसोई उससे भी ज्यादा। देखकर ही समझ आ गया था किसी गृहिणी के हाथों से वंचित है इसलिए कुशलता व सुघड़ता से सजा-संवरा नहीं है।
शिखा कहने लगी, मैं तो यह सब दो-तीन दिनों से देख रही हूं, मेरे दिल पर क्या गुजर रही है मैं ही जानती हूं।
‘बेटा और बहू सुबह 10 बजे तक ऑफिस के लिए निकल जाते हैं, घर की देखभाल और घर के काम देखने के लिए तीन मेड रखी हुई हैं, जिनमें से एक का काम खाना पकाना दूसरी का बर्तन-सफाई वगैरह करना और तीसरी पोते की केयर टेकर है जिसका काम अंश को संभालना रहता है, समय पर खाना आदि खिलाना रहता है।
अब जो खाने वाली है वो शाम 6 बजे तक खाना बनाकर चली जाती है फिर ये दोनों 10 या 11 बजे जब भी आते हैं, थके-थकाए होने की वजह से खाना आधा-अधूरा गरम कर खा लेते हैं। यदि अच्छा नहीं लगा तो ऑर्डर कर खाना मंगवाते हैं।
मेरे इसी बेटे को गर्मागर्म खाने की आदत थी, कहता था मां जब टेबल पर खाने बैठ जाऊं तभी दाल सब्जी और गर्म रोटी देना। अब सब देखकर भी चुप हूं।
पोते अंश के लिए भी रखी गई मेड को टोका-टाकी कर ही रही हूं, उसका काम है बच्चे को कुछ ना कुछ बनाकर खिला दिया करे। मैं क्या देख रही हूं वो तो दाल या खिचड़ी बनाकर रख देती है अंश ने खा लिया तो ठीक, यदि नींद में आ गया तो उठने के बाद ठंडा या बासी जैसा भी रखा है बच्चे को खिलाकर उसका फर्ज पूरा हो जाता है।
बस! यही फर्क होता है बच्चे की देखभाल अपनों के करने और गैर के करने, ध्यान रखने में। बाकी घर की व्यवस्था तो तुम देख ही रही हो, कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है।
‘घर तो घरवालों से बनता है, सही रूप में उसका भलीभांति रख-रखाव भी घर के सदस्यों से ही होता है। अब यूं तो कितने ही मेड व केयर टेकर रख लो पर अपनों का सुख-दु:ख तो कोई अपना ही जान-समझ पाता है, जो प्यार बिना किसी स्वार्थ के अपनों को अपनों से मिलता है और किसी से भी नहीं।
‘जब बेटे बहू ने जॉब के लिए घर छोड़ नोएडा आने की बात कही थी, तब भी हमने बहुत समझाया था कोई मजबूरी हो कि जॉब के लिए घर से दूर जाना ही जाना है। तुम्हारे अपने शहर में मनमाफिक जॉब या बिजनेस नहीं है या फिर अन्य जगह पोस्टिंग हो गई है, तब तो घर छोड़ जाना ही होगा, यदि इनमें से कोई भी उपर्युक्त वजह नहीं है तो फिर तो अपनों के संग रह काम करते रहो इसमें अनगिनत फायदे ही फायदे हैं।
बहू को अलग से भी समझाया था, ना तो घर गृहस्थी का तनाव ना ही बच्चों के रखरखाव उनके सही ढंग से लालन-पालन की चिंता। सभी कार्य बिना किसी झंझट के सुचारू रूप से होते रहते हैं हर कदम हर पल रिश्तों का सहयोग उनका संग-साथ मिलता ही है।
‘और तो और आजकल तो बहू-बेटी पर किसी तरह की कोई टोकाटाकी अथवा पाबंदी भी नहीं है। जैसा मन चाहे वैसे ही रहो-पहनो, खाओ-पियो, और घूमो फिरो। यदि थोड़ी बहुत रोकटोक होती है तो वो भी बच्चों के फायदे उनके हित के लिए ही की जाती है, जिसका अहसास या तो उसी समय या फिर बाद में जरूर होता है कि हमारे अच्छे के लिए ही हमारे बड़े-बुजुर्गों ने कुछ कहा-समझाया था।
सच्चा सुख तो अपने रिश्तों में ही मिलेगा, अपने संयुक्त परिवार में ही प्राप्त हो सकेगा।
शिखा से बातें करते-करते समय का मालूम ही नहीं पड़ा, वो तो जब सुमित का फोन आया कि मम्मी लेने आ रहा हूं तब कहीं वापिस लौटने की शिखा से अनुमति मांगी।
चलते-चलते शिखा से कहने लगी, ‘तू यहां से खुशी-खुशी ही जाना, अपना मन घर-बच्चों की तरफ से दु:खी या भारी ना रखना। मानती हूं, जब बच्चों की दिनचर्या व जिंदगी में कुछ अव्यवस्थित सा महसूस होता है तो अपना दिल खुद व खुद अशांत और परेशान होने लगता है, हम जान-समझकर भी कुछ नहीं कर पाते। पर शिखा मेरी बहन अब ज्यादा ना तो सोच ना ही दु:ख मना।
‘ये बच्चों की जिंदगी है अपने आप स्वयं मनमाफिक जीएंगे, वैसे ये आजकल की पीढ़ी अपनी जिंदगी सही ढंग से भलीभांति जी लेते हैं बस! इनका नजरिया और इनकी सोच अलग है,
हां! एक बात जरूर है कि जब तू बच्चों के पास आए या तेरे पास ये रहें, तब अपनी इच्छा से जरूरत मुताबिक इनका ध्यान रखना, खाने पीने रहने-सहने का ख्याल कर लेना। चल! अब चलती हूं, कोशिश रहेगी जल्दी ही मिलें।
सब कुछ बालकनी में बैठे-बैठे ही मेरे अंतर्मन में याद आ ही रहा था कि निधि आकर गले में बांह डाल प्यार करते हुए बोली, ‘मां आज सोना नहीं है क्या? फिर हंसते हुए बोली, चलिए आज मेरी मां आपको नींद नहीं आ रही तो लोरी गाकर सुलाती हूं।
मेरी बच्ची तेरा बोल इतना मधुर और प्यारा है कि लोरी समान ही है, तेरी आवाज सुनली अब सुकून की नींद आएगी।
लेटे-लेटे जब तक नींद की आगोश में ना आ गईं, पूर्णिमा जी यही बुदबुदाती रहीं। अपनी-अपनी समझ है पर इच्छा हर किसी की यही रहती है कि मेरा घर मेरे बच्चों से सदा हंसता-मुस्कुराता रहे, आबाद रहे और खुशियों से भरपूर रहे।
अपनों का सुख-दु:ख तो कोई अपना ही जान-समझ पाता है, जो प्यार बिना किसी स्वार्थ के अपनों को अपनों से मिलता है और किसी से भी नहीं।
