googlenews
गठबंधन -गृहलक्ष्मी की कहानी: Hindi Story
Gathbandhan

Hindi Story: “सुनो! तुम सजती रहना! आँखों के काजल में,होठों की लाली में,झुकती निगाहों में,कपोलों के हया में,वह जरूर मुस्कुरायेेंगे। तुम उनकी यादों में लिपटी खुश तो रह पाओगी।”

“पता नहीं दी! मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा कि वह चले गये हैं।”

“मत करो यकीन उस बात का जिस बात की गवाही आत्मा ना दे!”नेहा जो कि निधि की बड़ी बहन थी उसे समझाये जा रही थी। अभी दस दिन ही बीते थे। ऐसे कैसे पति का अनायास चले जाने को स्वीकार कर लेती। आखिर उसकी उम्र ही क्या थी बस पैंतीस साल। इस उम्र के लड़के-लड़कियां तो आजकल दूल्हा-दुल्हन बनते हैं। इस उम्र में उससे यह उम्मीद करना कि वह जीना छोड़ दे,जोगन बन जाये। सर्वथा अनुचित लग रहा था। उसके ससुर जी जाने किस जन्म का बदला ले रहे थे। किसी तरह उसे श्रीहीन करने पर उतारू थे। माना उनके घर का बेटा गया था पर क्या बहु किसी की बेटी नहीं थी। बेटे के प्रति अपने फर्ज निभाने में कुछ इस कदर बौरा गए थे कि उस मासूम बच्ची का ख्याल तक ना आ रहा था।

“नियमों का पालन सख्ती से किया जायेगा। इसमें कोई कुछ नहीं बोल सकता।”

कहकर उन्होंने अपना निर्णय सुना दिया। समझ में आ गया कि यह सामाजिक नियमों का मामला कम बल्कि निधि के मान-अभिमान को रौंदने की साजिश ज्यादा थी। उसे बेरंग करने पर वह आमदा थे। निधि के सामने एक सफेद चादर सी साड़ी पड़ी थी। कुछ सजी-धजी बुजुर्ग महिलायें उसका श्रृंगार उतार उसे वह पहनाना चाहती थीं। नेहा उन्हें देखकर अंदर तक कांप गई। उससे दूनी उम्र की महिलायें साज-श्रृंगार में और वह छोटी सी उम्र में सादगी ओढ़ ले,यह बात बर्दाश्त के बाहर की लग रही थी। उसने एक नजर उन पर डाला तो वे और भी ढिठाई से आगे बढ़ीं और एक -एक कर उसके गहने उतारने लगीं।

निधि स्तब्ध थी। उसकी आँखों में अभी भी पति का वह प्रणयी रूप समाया था। कैसे लाल-गुलाबी कपड़ों में देखते ही उसे अपने निगाहों के घेरे में कैद कर लेते थे। जब वह उन्हें याद दिलाती कि ऑफिस नहीं जाना है तब वह मन मारकर दफ्तर का रुख करते। उस रोज भी यही तो हुआ था। गुलाबी दुपट्टे ने जैसे ही उन्हें छुआ वह खुशी से झूम उठे थे और कहा कि आज वर्क फ्राम होम कर लेता हूँ मगर ऑफिस से लगातार आते फोन ने जाने पर विवश कर दिया। लंच के समय वह फोन मिलाती रही पर कोई जवाब ना आया और वापसी में वह आये भी तो ऐसे आए जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी।

माँ-बेटे तो ऐसे फूट-फूटकर रोये जैसे उनका सबकुछ चला गया। दस वर्ष का बेटा अभिनव अल्पायु में ही वह देख रहा था जो वयस्क होने पर भी देखना असहनीय होता है। इस हृदयविदारक दृश्य को देखकर कौन नहीं द्रवित हो उठा। घर-परिवार,रिश्तेदार यहाँ तक कि सारी कायनात रो पड़ी जब जीवन से भरपूर निधि बेरंग हुई। उसके होठों से जैसे हँसी गायब हो गई थी और अब लोग उसके कपड़ों के रंग बदलना चाहते थे या कहें कि उसकी ही सफेदी कर देना चाहते थे कि अचानक अभिनव चीख पड़ा…….!

“मेरी मम्मी वैसे ही रहेंगी जैसे रहती थीं। पापा हमें छोड़कर चले गये हैं अब मेरी माँ को तो जीने दो। हम आपसे माँग कर तो नहीं खा रहे हैं। मेरे पापा ने इतना कमाकर रख दिया है हमारे लिये कि हम आराम से वैसे ही जी सकते हैं जैसे जीते आये थे। और हाँ! मेरी माँ कभी सफेद कपड़े नहीं पहनेंगी। मैं नहीं पहनने दूँगा क्योंकि पापा को इस रंग से सख्त नफरत थी।”

“चुप..चुप अभि…कुछ मत बोल…!”

रिश्तेदारों का लिहाज कर निधि ने उसे चुप तो करा दिया पर भावुक हो आये बेटे को सीने से लगा सिसक उठी। उसके पिता बहुत देर से ससुराल वालों के तांडव देख रहे थे। आखिरकार उनसे ना रहा गया। उन्होंने अपने जीवनकाल में ना जाने कितनों का कल्याण किया था। स्त्रियों के उत्थान व समाज सुधार के लिये सदा ही अग्रणी रहे थे। सच्चाई का साथ देने में कभी पीछे नहीं हटे थे। भला अब कैसे चुप रहते। इस बार मामला घर का था। आँसुओं में डूबी बेटी को दूसरा जीवन चाहिए था और वह पिता का फर्ज निभाने के लिए तन-मन-धन से तैयार थे।

“देखिए समधी जी ! माना यह आपके परिवार का मामला है मगर यह मेरे भी परिवार की बात है। मेरी बेटी बेरंग नहीं होगी। यह उम्र उसके हँसने-खेलने की है। वह अपना जीवन जियेगी और सबसे बड़ी बात तो यह है कि आप भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आपके स्वर्गवासी बेटे की भी यही इच्छा थी। मैं उनकी खुशियों का सम्मान करते हुए अपनी बेटी का श्रृंगार नहीं उतरने दूँगा।”

“क्या बेतुकी बात कह रहें हैं आप? मेरा जवान बेटा चला गया और आप अपनी बेटी को सजाने की बात कर रहे हैं।”

“नहीं! मैं भेदभाव खत्म करने की बात कर रहा हूँ। पुराने नियमों को तोड़-मरोड़कर अपने पक्ष में इस्तेमाल करने वाले पुरुष ही अक्सर स्त्रियों को जबरन कठिन बंधनों में बाँधते हैं। आपने भी तो यही किया। जवानी में ही अपनी पत्नी को खो दिया था पर इस बात से आपके स्टेटस में तो कोई बदलाव नहीं आया। पत्नी की साड़ी से गठजोड़ी कर सभी पूजा- पाठ सहर्ष संपन्न करते रहे…।”

“अब आप व्यक्तिगत हो रहे हैं और मैं इसे सहन नहीं करूँगा।”

“तो मेरी बेटी इन दकियानूसी बातों को क्यों सहेगी। वह भी अपने पति की यादों के गठबंधन के साथ सुहागन बनी रहेगी। पुरूष विधुर होकर भी विधुर नहीं तो भला स्त्री कैसे…… नियमों में एकरूपता क्यों नहीं? सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह अर्धांगिनी है उनकी,तो वह आधे जीवित हैं उसके मन में। आधे-आधे दोनों मिलकर पूर्ण हैं। उनकी हर चीज पर निधि और उसके बेटे का पूरा अधिकार है।”

निधि पिता की इस बात को सुनकर सचमुच पूर्ण महसूस करने लगी थी। नेहा ने बढ़कर बहन को सीने से लगा लिया था।

“जब सब कुछ पहले से ही तय कर रखा है तो फिर मेरा यहाँ क्या काम….?”

ससुर जी मुँह बनाये अपना सामान तैयार करने लगे तब अभिनव सामने आकर उन्हें मनाने लगा।

“आप मत जाइये दादाजी। मैं हूँ ना! आप मुझे ही अपना बेटा समझिये।”

“चल! झूठे! मेरे सामने बातें ना बना। तू अपनी माँ का है।मेरा बेटा तो मर चुका है और उससे जुड़े लोग भी। जिसकी वजह से तुमलोगों से जुड़ा था जब वही नहीं रहा तो अब मुझे भी किसी से कोई दरकार नहीं।”

उनकी बेरुखी बात जैसे ही निधि के कानों से टकराई उसने अभिनव को पास बुला लिया और कहा,

“कोई बात नहीं बच्चे! समझ लेना बस पापा ही नहीं गये हैं पापा से जुड़े सारे रिश्ते-नाते भी चले गये। जब शोक ही मना रहे हैं तो एक बार ही सबका शोक मना लेंगे। जीवन जीना है ना तुझे…मेरे लिये जीना है..और मुझे तेरे लिए…मजबूत हो जा तू भी,ताकि हम एक-दुसरे का सहारा बन सकें।”

रिश्तेदारों के अनुरोध पर वह किसी संस्कार के आखिरी दिन तक रुके। कहते हैं जब कोई जहाज डूबता है तो सब एक-दूसरे पर इल्ज़ाम देकर अपराध से बरी होना चाहते हैं। उन्होंने भी यही किया था पर निधि के पिता के हस्तक्षेप ने उनकी एक ना चलने दी। पिता भला अपनी बेटी का साथ कैसे ना देते। कायदे से ससुर को पिता बनकर बहु को बेटी वाला स्नेह देना चाहिए था पर पिता क्या वह तो ससुर भी ना बन सके। अपनी दोरंगी नीति और कठोर नियमों में बहु को बाँधने की अधूरी चाहत मन में ही रह गई। समधी की कही खरी-खरी बातों ने कुछ ऐसा असर किया कि वह उल्टे नाराज होकर घर से निकल गये। यही सही भी था क्योंकि वह साथ रहकर कभी इस माँ-बेटे को चैन से जीने ही नहीं देते।

Leave a comment