Hindi Kahani: बात बहुत पहले कि नहीं है। कन्नौज शहर इत्र बनाने और इसका निर्यात करने के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यहाँ का एक बहुत बड़ा व्यापारी था, उसका इत्र का बड़ा कारोबार था। लाखों का टर्नओवर हर महीने उसे मिलता था। अमीर होने के साथ-साथ वह बाँके बिहारी का बहुत बड़ा भक्त भी था। एक बार वह अपने इत्र बनाने वाले कारखाने का जायजा ले रहा था कि एक सुगंध ने उसका ध्यान अपनी तरफ खींचा। अद्भुत सुगंधि थी। उन्होंने जब अपने अपने कारीगर से इसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि यह एक बहुत ही दुर्लभ किस्म के खस की जड़ से बहुत मेहनत से और बहुत लंबे समय में तैयार होने वाला इत्र है। इसके लिए बहुत समय कौशल एवं धैर्य की आवश्यकता है और और यह मात्रा में भी बहुत कम बनता है। व्यापारी ने कहा इसकी एक पूरी बोतल भर के मुझे दो। मैं कल ही बांके बिहारी के दर्शन करने के लिए वृंदावन जा रहा हूं। खस का इत्र मेरे बांके बिहारी को बहुत प्रिय है, यह मैं उनका भेंट करूंगा। कारीगर ने कुछ सब संकोच करते हुये कहा कि, लेकिन एक पूरी बोतल की कीमत कम से कम 45 – 50 हजार होगी की होगी। इस पर व्यापारी ने कहा कि, कोई बात नहीं। यह कीमत तो उनकी निछावर है। मलिक का आदेश मानकर कारीगर ने कहा जो हुकुम और एक बड़ी सी बोतल में इत्र में कॉर्क लगाकर व्यापारी को दे दिया।
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अगले दिन व्यापारी बहुत प्रसन्न मन से बांके बिहारी के दर्शन करने गया। रास्ते में उसने सुना कि श्री हरिदास मथुरा में ही यमुना किनारे इस समय पूजा अर्चना कर रहे हैं। यह सुनकर व्यापारी ने अपने आप से कहा। क्यों ना मैं पहले संत श्री हरिदास और यमुने महारानी के दर्शन कर लूं फिर उसके बाद जाकर बांके बिहारी के दर्शन करके सीधा कन्नौज के लिए निकल जाऊंगा।

अपने मन में ऐसा विचार करके व्यापारी यमुना किनारे चला गया। वहाँ उन्होंने देखा कि यहां संत हरिदास मानसी पूजा कर रहे थे। और व्यापारी धैर्य के साथ उनके बगल में बैठ गया। काफी देर हो गई जब सर हरिदास की पूजा समाप्त नहीं हुई तब बैठे-बैठे व्यापारी के मन में विचार आया की क्यों न थोड़ी सा इत्र का ढक्कन खोल दूं तब जरूर इसकी महक से संत हरिदास की आंखें खुलेंगी। उन्होंने अपने हाथ में पकड़ी हुई इत्र की बोतल का ढक्कन खोला, और संत हरिदास आंखें खुलना की प्रतीक्षा करने लगा । व्यापारी संत हरिदास की तरफ देख रहा था तभी संत हरिदास ने उसके हाथ से इत्र की बोतल लेकर यमुना में फेंक दी। यह देखकर व्यापारी तो मानो गुस्से से पागल हो गया। वह गुस्से में भरकर उठा और संत हरिदास को गालियां बकते हुए वहां से चला गया और अपने नौकर से वापस कन्नौज जाने के लिए कहा।
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इस पर उसके नौकर ने कहा की मालिक वृंदावन तक तो आए ही हो क्यों ना बांके बिहारी औऱ निधिवन के दर्शन करते ही चलें। रही बात इत्र की तो वह आप फिर कभी लाकर बिहारी जी को समर्पित कर देना।
हालांकि इस घटना से व्यापारी का मन तो बहुत ही खिन्न हो चुका था लेकिन उसको नौकर की बात भी सही लगी। और वह नौकरों के साथ बिहारी जी के मंदिर की तरफ चला गया। जैसे ही उसने कुंज गली में अपना पहला कदम रखा। उसके नथुनों में एक जानी पहचानी थी सुगंधि समा गई।
व्यापारी अपने आप से बोला अरे यह तो उसी इत्र की सुगंध है जो मैं अपने साथ लाया था। और फिर अपने मन को समझाते हुए बोला…- नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता, जरूर यह किसी दूसरे इत्र की सुगंध है। लेकिन जैसे जैसे व्यापारी के कदम बिहारी जी के मंदिर की तरफ बढ़ रहे थे वह सुगंधि भी बढ़ती ही जा रही थी। बांके बिहारी के मंदिर में जाकर उन्होंने देखा की बिहारी जी उसी इत्र से सराबोर हैं और जब उसने बिहारी जी के अंगसेवी गोस्वामी जी से पूछा, कि यह इत्र कहां से आया। तो गोस्वामी जी ने बताया कि यह खस का इत्र बिहारी जी के बहुत बड़े भक्त ने कन्नौज से भेजा है।
यह देखकर व्यापारी की आंखों से आंसू बहने लगे और वह दौड़कर यमुना किनारे पहुंचा और संत हरिदास के पैर पड़कर क्षमा याचना करने लगा। तब हर संत हरिदास ने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा। जब तुम यहां आए थे तो मैं मानसी पूजा कर रहा था। और हमारी रास रासेस्वरी श्री राधा रानी और बाँके बिहारी ठिठोली कर रहे थे। हँसी- हँसी में बिहारी जी ने अपनी अंजुरी में लेकर यमुना जल राधा रानी के ऊपर डाल दिया और राधा रानी ने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया और मुझे कुछ नहीं सूझा तो मैंने तुम्हारे इत्र की बोतल उनको पकड़ा दी और वही बोतल पूरी की पूरी राधा रानी ने बांके बिहारी के ऊपर उड़ेल दी। बस इसके आगे जो कुछ हुआ वह तो तुम जानते ही हो। यह सुनते ही व्यापारी अपना व्यपार छोड़कर वृन्दावन में रहकर बाँके बिहारी के पद गाने लगा।
