papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

मेरठ !

शाम के लगभग साढ़े सात बजे थे। शहर की एक अच्छी-भली सड़क पर काफी चहल-पहल थी क्योंकि दुकानें खुली हुई थीं। लोगों का आना-जाना लगा हुआ था। इसी सड़क पर धीरे-धीरे चलते हुए एक नवयुवक इधर-उधर यूं देख रहा था मानो उसे किसी की तलाश है। नवयुवक गोरा था-कद का लम्बा। सफेद कमीज तथा सफेद चुस्त पैंट में उसकी सुन्दरता कुछ असाधारण तौर पर खिल उठी थी।

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चाल में अकड़ के साथ एक हारे हुए जुआरी समान थकावट भी सम्मिलित थी। मुखड़े पर रुआब के साथ एक गम्भीरता भी थी। आंखों में पश्चात्ताप का अंधकार-होंठों पर एक अपराधी समान खामोशी। वह अपराधी ही तो था, एक निर्दोष का हत्यारा-इंस्पेक्टर जोशी-जो इस समय अपने अपराध का दण्ड सुनने के लिए सुधा का घर तलाश का रहा था-सुधा का घर उसके लिए एक अदालत से कम नहीं था।

सुधा से मिलने के लिए सबसे पहले वह लखनऊ में उसके ससुराल गया था। परन्तु वहां यह पता चला कि उनके लिये सुधा मर चुकी है तो उसका दिल टूट गया। उसकी एक भूल के कारण सुधा पर कितना अधिक जुल्म हो रहा था। सुधा के ससुराल वालों को पूरा विश्वास था कि उनके बेटे ने सुधा की सुन्दरता पर दीवाना बनकर अवश्य चोरी की होगी ताकि अपनी पत्नी को अच्छे से अच्छे गहनों से बना-संवार कर रख सके और जब उसकी चोरी पकड़ में आ गई तो वह सेठ गोविन्द प्रसाद की हत्या कर देने पर विवश हो गया होगा।

इंस्पेक्टर जोशी ने उन्हें उनके बेटे की वास्तविकता बता देना आवश्यक समझा था परन्तु फिर कुछ सोचकर चुप हो गया था। वह सबसे पहले यह बात सुधा को बताना चाहता था क्योंकि सबसे बड़ा अपराधी वह उसी का था। बाद में तो यह वास्तविकता अपने-आप ही सबको मालूम हो जायेगी। और इसलिए वह उनसे सुधा का पता लेकर मेरठ चला आया था। कहीं अब वह भी न विश्वास कर बैठी हो कि उसका पति वास्तव में हत्यारा था-हत्यारा-जिससे सभी घृणा करते हैं। इस वास्तविकता पर से परदा हटाकर वह अपने आपको एक अपराधी समान अदालत के सुपुर्द कर देना चाहता था। उसने भूल की है-और उसे इसकी सजा मिलनी ही चाहिए-हर अवस्था में अनजानेपन में गलती हो जाने का यह अर्थ नहीं कि क्षमा कर दिया जाये-कानून यही कहता है और वह एक कानून का आदमी था। कानून का रखवाला-ईमानदार रखवाला।

चलते-चलते सड़क के नुक्कड़ पर पहुंचकर वह रुक गया। उसने इधर-उधर देखा। कुछेक दुकानें बन्द हो रही थीं। उसकी बाईं ओर केवल दो दुकानें थीं। अपनी पाकेट से एक कागज निकालकर उसने पढ़ा और फिर पहले दुकानदार की ओर बढ़ गया।

‘‘क्यों भाई।’’ उसने दुकानदार से पूछा, ‘‘यह…बाबा भगतराम जी का मकान कहां है ?’’

‘‘वही भगत राम जिनके दामाद को एक हत्या के अपराध में मृत्यु-दण्ड मिला था ?’’ दुकानदार ने अपने हाथ में नोट गिनते हुए लापरवाही से पूछा।

इंस्पेक्टर जोशी बल खाकर रह गया। मन हुआ, दुकानदार के थोबड़े पर एक मुक्का रसीद करे परन्तु फिर अपना होंठ दांतों तले दबाकर सब्र कर लिया। इस इल्जाम का जिम्मेदार भी तो वह खुद ही था। उसने एक पल रुककर गहरी सांस ली और केवल इतना ही कहा, ‘‘हां !’’

दुकानदार ने अपने नोट ‘कैश बाक्स’ में रखे और फिर दाहिनी ओर समीप ही इशारा करते हुए बोला, ‘‘यह जो गली है ना, इसी दुकान के बाद, इसमें दाहिनी ओर पहला दरवाजा उन्हीं का है।’’

‘‘धन्यवाद।’’ इंस्पेक्टर जोशी ने कहा और फिर आगे बढ़ गया।

गली में अंधकार था। जो कुछ प्रकाश झलक रहा था वह सड़क के उस पार की दुकान से आ रहा था। इसलिए उसने देखा, गली में काफी कीचड़ है। पानी भी कहीं-कहीं चमक रहा था। शायद इसीलिए इस ओर से किसी का आना-जाना भी नहीं के बराबर था। धुंधले प्रकाश का सहारा लेकर उसने कीचड़ और पानी से बचते हुए कुछेक छलांगें लगाईं तो पल भर में ही उसके सामने दाहिनी ओर एक छोटा-सा लोहे का गेट आ गया। गेट से सटकर अन्दर दो सीढ़ियों के बाद एक छोटा-सा बरामदा था जिसके दोनों ओर दो गोल कमरे थे।

बरामदे के बाद एक दरवाजा था जिसमें दरारें इतनी चौड़ी थीं कि अन्दर का प्रकाश छलककर बाहर आ रहा था। इस प्रकाश का सहारा लेकर उसने लोहे का गेट खोला-एक ‘चियूं’ के स्वर के साथ गेट ने अपने पुराने जमाने की याद दिला दी। वह बरामदे में आया। दरवाजे के समीप पहुंचा। दरवाजा पुराने ढंग का था-मोटे तख्तों वाला-फ्रेम के चारों ओर मोटी-मोटी कीलें थीं। एक पल को वह रुक गया। उसका दिल अचानक ही धड़क उठा था। मन हुआ वह वापस लौट जाये। केस को दबाकर वास्तविकता भेद में ही रहने दे। परन्तु उसकी अन्तरात्मा ? इसका गला वह किस प्रकार घोंट सकता है ? उसके समीप एक वास्तविकता पर से परदा न उठाना भी तो अपराध था ! उसने सिकड़ी पकड़ी-मोटी ओर भारी सिकड़ी-और फिर दरवाजा खटखटा दिया-भट-भट-भट-भट।

बन्द दरवाजे के उस पार कदमों की हल्की चाप हुई। दरवाजे की दरारों में एक छाया उभरी। फिर पल भर की खामोशी के बाद दरवाजा खुल गया। कमरे का सिसकता प्रकाश बरामदे की सीढ़ियों तक चला गया। उसने देखा, उसके सामने सुधा खड़ी है। सुधा की लटें बिखरी हुई थीं-सिन्दूर गायब। उसके गाल धंस गए थे-रंग फीका। पहली बार उसने सुधा को एक नई-नवेली दुल्हन के रूप में देखा था और इस समय सुधा उसके सामने एक जीती-जागती लाश के समान खड़ी हुई थी। फिर वह सुधा को एक ही दृष्टि में पहचान गया।

सुधा का चश्मा उसके हाथों में था जिसे अपने आंचल से पोंछने के बाद वह अपनी आंखों पर रख रही थी। शायद बिना चश्मे के उसे पहचान नहीं सकी थी। इससे पहले जब भी देखा था, सदा इंस्पेक्टर की वर्दी में ही देखा था। कपड़ों से मानव के शारीरिक व्यक्तित्व पर बहुत अन्तर पड़ता है। सुधा ने जैसे ही चश्मा अपनी आंखों पर लगाकर उसे देखा तो ऊपर से नीचे तक कांप गई। घबराते हुए वह तुरन्त इस प्रकार पीछे हट गई मानो उसके द्वारा पर यमदूत आकर खड़ा हो गया है।

‘‘तुम ?’’ उसने इंस्पेक्टर जोशी को नफरत भरी दृष्टि से देखा और क्रोध में चीख पड़ी, ‘‘अब तुम यहां क्या लेने आए हो ?’’

इंस्पेक्टर जोशी को सुधा के व्यवहार पर आश्चर्य नहीं हुआ। वह तो हर अवस्था में इस घृणा का पात्र था। बल्कि सुधा की अवस्था देखकर उसके दिल को ठेस लगी।

सहसा कमरे में अन्दर से उसके नन्हे-मुन्ने राजा ने प्रवेश किया-पईयां-पईयां चलकर। इंस्पेक्टर जोशी एक ही झलक में समझ गया कि वह बच्चा सुधा का है। बच्चे का रंग-रूप मां समान था। बिना बाप का बच्चा। इंस्पेक्टर जोशी के दिल में उसके प्रति ममता छलक आई। सुधा ने इंस्पेक्टर जोशी की दृष्टि अपने बच्चे पर देखी तो झट उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। ऐसा न हो कि यह यमदूत उसके सुहाग की इस एकमात्र निशानी को भी छीन ले। इंस्पेक्टर जोशी ने सुधा की दृष्टि में अपने प्रति इतना तिरस्कार, इतनी घृणा देखी तो उसका दिल फटने लगा।

तभी कमरे में सुधा की मां चली आईं। पीछे-पीछे उसके बाबा भी थे। सुधा की बात उनके कानों तक पहुंच गई थी। उसकी मां इंस्पेक्टर जोशी को पहचान गईं। मुकद्दमे के मध्य वह उस समय अदालत में उपस्थित थीं जब इंस्पेक्टर जोशी ने उसके दामाद के विरुद्ध अपना बयान दिया था। घबराते हुए उन्होंने बच्चे को सुधा से छीनकर अपनी सुरक्षा में ले लिया और अन्दर के दरवाजे पर जा खड़ी हुई, इस प्रकार मानो इंस्पेक्टर झपटकर यह बच्चा न छीन ले।

बाबा ने उसे देखा तो आंखों को विश्वास दिलाने के लिए चश्मा उतारकर अपने शाल के कोने से पोंछने लगे। सबके मन में अपने प्रति घृणा की इतनी अधिकता देखकर इंस्पेक्टर जोशी को अपने आप से घृणा होने लगी। उसका मन हुआ, इस मकान की छत उसके ऊपर गिर पड़े, उसका दम निकल जाए ताकि वह घृणा की इस अधिकता को न देख सके। घृणा से गन्दी वस्तु कोई नहीं होती। घृणा ही संसार की सारी बुराइयों की जड़ है। घृणा के इतने बड़े बोझ तले दबकर उसके दिल की आवाज घुट गई तो उसने थूक घोंटकर गला साफ किया। फिर अपनी बात जबान पर लाने के लिए वह साहस बटोरने लगा।

बाबा चश्मा साफ करके आंखों पर लगा चुके थे। इंस्पेक्टर जोशी को उन्होंने दो पग आगे बढ़कर देखा। पहचाना तो उनके मस्तक पर बल पड़ गये। उन्होंने दर्द तथा घृणा के मिले-जुले स्वर में पूछा, ‘‘अब यहां क्या लेने आए हो इंस्पेक्टर साहब ?’’

इंस्पेक्टर जोशी के गले में एक बार फिर थूक आ गया तो उसे घोंटना पड़ा। फिर दांतों तले अपना निचला होंठ काटते हुए उसने सुधा को देखा। सुधा की आंखों से नफरत की चिंगारियां बरस रही थीं। इससे पहले कि यह चिंगारियां उसे जलाकर राख करें, उसने अपनी दृष्टि बाबा भगतराम पर फेर दी। फिर साहस एकत्र करने के बाद रुक-रुककर बोला, ‘‘मैं…मैं यह बताने आया हूँ कि…कि सेठ गोविन्द प्रसाद की हत्या आपके दामाद ने…नहीं की थी। उनका असली हत्यारा अब पकड़ा गया है।’’

‘‘क्या ?’’ बाबा को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। दरवाजे पर सुधा की मां खड़ी थीं। वह भी अवाक् रह गईं। इंस्पेक्टर की बात पर विश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता था, विशेष कर ऐसी अवस्था में जबकि वह खुद उनके दामाद की मृत्यु का जिम्मेदार था।

परन्तु सुधा बिलकुल भी नहीं चौंकी। उसे पहले ही विश्वास था कि उसका पति निर्दोष था। इस क्रूर तथा निर्दयी इंस्पेक्टर के कारण ही उसे गलत दण्ड मिला था। इंस्पेक्टर जोशी की बात सुनकर उसका क्रोध अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। यह इंस्पेक्टर अब ऐसी बात कहकर मानो उसके पति का अट्टहास उड़ा रहा था। वह अपने ऊपर काबू नहीं कर सकी। मस्तिष्क का सन्तुलन खो गया तो वह चीख पड़ी, ‘‘कमीने…नीच…पापी।’’ अचानक ही वह घायल नागिन के समान बिफर उठी और झपटकर पैरों के पंजों पर उचकते हुए उसने इंस्पेक्टर जोशी के बालों को पकड़ लिया-बहुत सख्ती के साथ।

इंस्पेक्टर जोशी उसी प्रकार खड़ा रहा- खामोश-अपने बचाव में उसने हाथ भी नहीं उठाया। वह सुधा का अपराधी था और सुधा को उसके साथ हर प्रकार का व्यवहार करने का पूरा अधिकार था। सुधा ने आंखें निकालते हुए तथा दांत पीसते हुए अपनी अंगुलियों की पकड़ को सख्त किया और चाहा कि इंस्पेक्टर के बाल नोंच डाले परन्तु ऐसा करते समय वह खुद ऊपर से नीचे तक थरथरा गई। वह उसी प्रकार चीख रही थी, ‘‘मैं कहती थी न कि वह निर्दोष हैं। उन्हें छोड़ दो। अब तेरा कलेजा ठण्डा हो गया ? हत्यारे वह नहीं थे, तू है-तू।’’

सुधा की हरकत देखकर बाबा तथा मां स्तब्ध रह गए। बल्कि एक पल को सहम भी गए। यह व्यक्ति एक पुलिस इंस्पेक्टर है। कहीं इस अपमान का बदला वह एक नया पाखण्ड बनाकर लेने पर विवश न हो जाए ? परन्तु उन्होंने देखा, वह इंस्पेक्टर उसी प्रकार खड़ा है-चुपचाप-बिल्कुल सीधा, इस प्रकार मानो अपने आपको उसने सुधा के हवाले कर दिया हो। उन्हें सख्त आश्चर्य हुआ। सुधा के दिल का घाव बिल्कुल ताजा हो चुका था। नासूर कट चुका था। पीप बह रहा था। इंस्पेक्टर के बाल खींचते-खींचते वह थक गई। उसे चक्कर आने लगा। पैर लड़खड़ाए…और वह चकराकर गिर पड़ी।

परन्तु अपने होश की अन्तिम सांसों में भी वह उस व्यक्ति को किसी भी अवस्था में छोड़ने को तैयार नहीं थी जो उसके सुहाग की मृत्यु का जिम्मेदार था। गश खाकर वह उसकी छाती पर गिरने लगी तो उसकी अंगुलियां ढीली होने लगीं। उसने अपनी खोई हुई ताकत समेटी और फिर अपनी अंगुलियों को उकाब के समान पंजा बनाकर इंस्पेक्टर की कनपटी में धंसा दिया। उनके नाखून लम्बे नहीं थे-परन्तु तेज बहुत थे। इन नाखूनों से इंस्पेक्टर जोशी की कनपटी ही नहीं बल्कि कान तथा कान के नीचे की चमड़ी भी जगह-जगह से कट गई, इस प्रकार मानो किसी ने वहां पर गहराई से ब्लेड चला दिया हो। रक्त की धारियां बन गईं। परन्तु इंस्पेक्टर ने उफ् भी नहीं किया। वह देख रहा था-एक अबला पर उस समय क्या बीतती है जब अकारण ही कोई उसका सुहाग लूट लेता है।

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