papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

जब रात का अंधकार जेल की चहारदीवारी पर मौत का साय बनकर मंडराने लगता, जब आसपास की काल-कोठरियों के अपराधी सपनों में अपने निकटतम नातेदारों से मिलने की आशा में सो जाते तो उनमें सम्मिलित होकर वह भी एक पत्थर की बेंच पर लेट जाता। अपनी आंखें बंद कर लेता और किरण के वायदों पर विश्वास करके सोचता रहता-बहुत देर तक-परन्तु फिर भी उससे बिछड़ने का दर्द उसके दिल ने कभी नहीं महसूस किया।

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बल्कि कभी-कभी जब बहुत जोर देने के बाद वह अपने दिल में उसके प्रति प्यार की धड़कन उत्पन्न करने का प्रयत्न करता तो न चाहते हुए भी जाने क्यों और कैसे सुधा उसकी यादों के पट खोलकर सीधी मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जाती। तब उसकी बड़ी-बड़ी आंखों से नफरत की चिंगारियां इस प्रकार निकलती दिखाई देतीं मानो काल-कोठरी के अन्दर ही वे उसे जलाकर राख कर देना चाहती हों।

उसकी लम्बी-लम्बी पलकों से आंसुओं की बहती धार इस प्रकार नजर आती मानो नफरत का लावा बढ़कर उसे अपनी लपेट में ले लेगा। सुधा की नफरत भरी चीख मानो आग की लपटों समान भभककर उसे भस्म कर देना चाहती थी। ऐसा लगता था मानो सुधा की याद से किरण की याद का कोई टकराव था। किरण को वह जब भी प्यार से याद करने का प्रयत्न करता, सुधा की नफरत उस पर छा जाती। नफरत- नफरत-नफरत। चारों ओर उसे केवल नफरत ही नफरत दिखाई पड़ती और तब वह घबराकर उठ बैठता। वह महसूस करता कि सुधा की यह नफरत उसे जीवन भर इसी प्रकार जलाती रहेगी। सजा के बाद भी उसकी आह कभी पीछा नहीं छोड़ेगी। वह हत्यारा है-हत्यारा-और इस हत्या का प्रायश्चित तीन वर्ष का दण्ड तो क्या वह अपने आपको फांसी पर चढ़ाकर भी नहीं कर सकता है। वह कुछ भी करे परन्तु सुधा का पति कभी वापस लौटकर नहीं आयेगा। यह उसका भ्रम था या स्वप्न, वह कुछ भी नहीं समझ पाता। परन्तु जब कभी भी उसे ऐसे विचार आते तो वह सुबह होने तक अवश्य बेचैन हो उठता था।

आखिर अपनी भूल सुधारने के लिए वह कर भी क्या सकता था ? क्या कर सकता था ? इन्हीं उलझनों में फंसकर उसकी तीन वर्ष की सजा के दिन डेढ़ वर्ष में पूरे हो गए। डेढ़ वर्ष में इसीलिए पूरे हो गये क्योंकि जेल में चौबीस घंटे में दो दिन शुमार होते हैं-दिन और रात अलग-अलग दिन माने जाते हैं। डेढ़ वर्ष बाद जब वह जेल के मुख्य द्वार से बाहर निकला तो एक पल रुकने के बाद क्षितिज पर दूर तक दृष्टि बिछाते हुए उसने इस प्रकार गहरी श्वास ली मानो पिंजरे से पक्षी बाहर निकलकर दूर-दूर तक उड़ जाना चाहता हो। परन्तु वह जाये कहां ? लखनऊ ! और उसके मन ने स्वीकृति दे दी। वह जानता था उसे किरण से अब तक प्यार नहीं हो सका है, फिर भी उसे किरण की आवश्यकता थी। इस भरे संसार में उसे अब सहारा भी कौन देगा ? जेल के छूटे व्यक्ति से लोग यूं भी घबराते हैं। किरण के वायदों के सहारे उसके मन में अब भी आशा की एक हल्की-सी ज्योति जल रही थी।

किरण याद आई तो सुधा की नफरत भी आकर उसके रास्ते में खड़ी हो गई। परन्तु इस नफरत को उसने झटक दिया। अपने मन को उसने सन्तोष दे दिया कि वह अपनी भूल की सजा काट चुका है। सुधा का पति उसे मिले या न मिले, परन्तु उसका प्रायश्चित हो चुका है। उसे अब सुधा से कोई सम्बन्ध नहीं। हां-हां, कोई सम्बन्ध नहीं। उसने मानो जबरदस्ती अपने दिल को सन्तुष्ट कर लिया और लखनऊ जाने के लिए स्टेशन की ओर बढ़ गया। यात्रा के मध्य उसने किरण से मिलने का उपाय भी ढूंढ़ लिया। वह उसे फोन करके अपने रिहा होने की सूचना सुनाएगा। फिर मिलने का कोई स्थान अपने आप ही निश्चित हो जाएगा।

रेलगाड़ी लखनऊ ‘प्लेटफार्म’ पर रुकी तो इसी प्लेटफार्म के दूसरी ओर-बिल्कुल सामने एक रेलगाड़ी और खड़ी हुई अपनी मंजिल के लिए चलने की प्रतीक्षा कर रही थी। वह अपनी ट्रेन से नीचे उतरा। स्टेशन से बाहर निकलने के लिए उसने अभी दो-चार पग बढ़ाए ही थे कि अचानक कुछेक जानी-पहचानी सूरतों को देखकर वह चौंक गया। उसके पग धीमे पड़ गए। वहीं फर्स्ट-क्लास का एक डिब्बा बाहर से फूलों तथा रंगीन कागजों से सजा हुआ था। परिचितजनों को उसने फिर से देखा। पुलिस विभाग के लगभग सभी कर्मचारी क्या छोटे तथा क्या बड़े, सभी अपनी-अपनी वर्दियों में खड़े किसी को विदा करने आए थे। परन्तु तभी जब उसने डी.आई.जी. साहब को देखा तो उसके पग स्थिर हो गए। सादी वेश-भूषा में डिब्बे की खिड़की से सटकर खड़े वह बहुत बुझे-बझे लग रहे थे। कम्पार्टमेंट के अन्दर खिड़की के समीप ही एक नई-नवेली दुल्हन बैठी हुई थी-सिर झुकाए तथा मुखड़े पर घूंघट काढ़े हुए। एक अज्ञात भय का उसे तुरन्त अहसास हुआ। परन्तु उसका दिल धड़क नहीं सका। फिर भी उसका मन हुआ कि वह दुल्हन के सामने जाए। उसे दूर से देखे। उसका अनुमान गलत तो नहीं है ? दुल्हन को सामने से देखने के लिए अभी वह पग उठाने ही वाला था कि अचानक अपना नाम सुनकर चौंक पड़ा।

‘‘अरे आनन्द।’’ कोई उससे कह रहा था, ‘‘तुम कब छूट कर आए ?’’

आनन्द जोशी ने गर्दन घुमाकर देखा। उसके समीप ही एक इंस्पेक्टर खड़ा हुआ था-उसके साथ एक ही थाने में काम करने वाला उसका पुराना संगी। इंस्पेक्टर की बात सुनकर आनन्द जोशी झल्लाकर रह गया। मन हुआ, इंस्पेक्टर के मुंह पर एक मुक्का जमाए। परन्तु इंस्पेक्टर का प्रश्न अनुचित नहीं था। वह जेल से ही छूटकर आ रहा है। वह खून का घूंट पी कर रह गया। अपना मुखड़ा उसने डिब्बे की ओर फेर लिया जहां मानो किसी ने एक मजार पर फूल चढ़ा रखा था।

‘‘दुल्हन को पहचाना !’’ पुलिस इंस्पेक्टर ने धीरे-से पूछा।

आनन्द जोशी के होंठों पर एक दर्द भरी मुस्कान आ गई। उसने इंस्पेक्टर की ओर देखे बिना ही नहीं के इशारे पर सिर हिला दिया।

‘‘वह…किरण है-डी.आई.जी. साहब की सुपुत्री।’’ इंस्पेक्टर ने मानो न चाहते हुए भी कहा।

आनन्द जोशी के दिल में एक सुई चुभी-बस-और किसी भी प्रकार का उसे अहसास नहीं हुआ। वह तड़प, वह जलन, कुछ भी उसने महसूस नहीं किया तो एक पल इंस्पेक्टर को देखने के बाद वह फिर दुल्हन को देखने लगा।

‘‘वह जो उस तरफ झुण्ड में नवयुवक खड़ा है न ? जिसके गले मैं सबसे अधिक फूलों की मालाएं हैं।’’ इंस्पेक्टर ने डिब्बे के द्वार की ओर इशारा किया, ‘‘वही डी.आई.जी. साहब का दामाद है। लन्दन से डाक्टरी पास करके लौटा है। इस समय मुम्बई के मेडिकल काॅलेज में डाक्टर है, परन्तु सुना है कुछेक वर्षों में शीघ्र ही अपना एक निजी अस्पताल खोलने वाला है।’’

आनन्द जोशी ने देखा, सूट-बूट तथा गजरों के मध्य दूल्हा बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ रहा था। मुखड़े पर लाली थी। आंखों में चमक थी तथा होंठों पर कभी न मिटने वाली मुस्कान। आनन्द जोशी उसे देखकर मुस्करा दिया। उसने महसूस किया, उसने कुछ खोया नहीं है-पाया ही है-मन का सन्तोष। मन का सन्तोष खो जाए तो सारा संसार पाने के बाद भी प्रसन्नता नहीं मिलती। उसने देखा, कुछेक अन्य इंस्पेक्टर्स की दृष्टि भी उस पर जमी हुई है। उससे दृष्टि मिलते ही सबने अपना मुंह दूसरी ओर फेर लिया, इस प्रकार मानो इस समय अपने अधिकारियों के सामने उससे बातें करना भी उनके लिए अपराध था।

आनन्द जोशी ने समय की परिस्थिति समझी। और फिर धीरे-धीरे सिर झुकाए वह प्लेटफार्म पर आगे बढ़ गया। तभी गाड़ी ने सीटी दी। इंजन एक बार जोर से चीखा। गाड़ी के पहिए रेंगने लगे-छक…छक…छक…छक। प्लेटफार्म पर पड़ी लगभग सारी ही जनता के हाथ यात्रियों को विदा करने के लिए लहराने लगे। तभी फूलों का झोंका लिए एक डिब्बा समीप से गुजरा। अपने पग धीमे करते हुए उसने गर्दन घुमा कर देखा-खिड़की के अन्दर बैठी नई नवेली दुल्हन सिर झुकाए आंसू बहाती हुई रो रही है। शायद हर लड़की के समान उसे भी नैहर छूटने का गम बहुत अधिक सता रहा था। समीप ही एक वृद्धा बैठी उसके सिर पर हाथ रखे उसे तसल्ली दे रही थीं। शायद वह दुल्हन की सास थीं। आनन्द जोशी ने देखा तो उसके मुखड़े की गंभीरता और गहरी हो गई।

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