papi devta by Ranu shran Hindi Novel | Grehlakshmi

कचहरी ! मुकदमा ! मुकद्दमे के मध्य इंस्पेक्टर जोशी को नौकरी से ‘सस्पैन्ड’ कर दिया गया था। जब भी तारीख पड़ी, वह बराबर एक अपराधी के समान अदालत में आता रहा। परन्तु अदालत में सुधा को उसने एक बार भी नहीं देखा। अदालत ने सुधा को इस मुकदमे की सूचना भेज दी थी।

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परन्तु मुकदमे पर प्रकाश डालने से उसका स्वर्गवासी पति कभी लौट कर नहीं आता, वरन् इस मुकदमे से उसके घाव फिर हरे हो सकते थे। या फिर वह अपने पति की मृत्यु के जिम्मेदार व्यक्ति की सूरत नहीं देखना चाहती थी। शायद इन्हीं कारणों से वह एक बार भी अदालत नहीं आई। फिर भी इंस्पक्टर जोशी इतना अवश्य जानता था कि वह उसके फांसी चढ़ जाने की कामना दिन-रात कर रही होगी।

मुकदमे के मध्य किरण उससे एक बार भी नहीं मिली। उसको पता चला था कि उसके घरवालों ने उसे शहर से बाहर भेज दिया है। उसने यह भी सुना कि डी.आई.जी. साहब ने अपना सम्मान बचाने तथा रुआब जताने के लिए यह अफवाह भी उड़ा दी है कि उन्होंने खुद ही इंस्पेक्टर जोशी से अपनी बेटी का संबंध तोड़ा है। वह ऐसे व्यक्ति को कभी क्षमा नहीं कर सकते जो कानून की दृष्टि में अपराधी है-जिसने अपनी गलती के कारण एक लड़की का सुहाग लूट लिया है। परन्तु पुलिस विभाग के सभी कर्मचारी इस वास्तविकता से भली-भांति परिचित थे कि यदि इंस्पेक्टर जोशी चाहता तो यह मामला बहुत आसानी से दब सकता था। इंस्पेक्टर जोशी ने यह बात सुनी तो मन ही मन मुस्कराकर रह गया।

इंस्पेक्टर जोशी पर अपराध सिद्ध हुआ-बहुत आसानी के साथ। सिद्ध न होने का प्रश्न ही नहीं उठता था जिस हाल कि वह स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर रहा था और अदालत ने उसे तीन वर्ष की सजा दी क्योंकि अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतने के कारण वह एक निर्दोष के मृत्यु दण्ड का पूरा-पूरा जिम्मेदार था। साथ ही अदालत ने पुलिस-विभाग को निर्देश दिया कि उसके ‘प्राविडेण्ट फण्ड’ से एक हजार जुर्माना विधवा सुधा को भेजा जाए। यह साधारण राशि अपराधी के उस वेतनानुसार थी जिसे वह एक पुलिस इंस्पेक्टर के पद पर काम करते हुए प्राप्त कर रहा था। ‘प्राविडेण्ट फण्ड’ की शेष राशि को बैंक में उसके खाते में जमा कर देने की भी आज्ञा दी गई ताकि सजा पूरी होने के बाद उसे अपना पैसा प्राप्त करने में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना न करना पड़े। अदालत ने न्याय की एक प्रतिलिपि सुधा को भेजी जिसमें इंस्पेक्टर जोशी को दोषी ठहराकर अपने पिछले न्याय पर खेद प्रकट किया गया था।

अदालत का न्याय सुनकर अपराधी के चेहरे पर कोई भी रंग नहीं आया। उसे अपनी सजा की प्रतीक्षा थी, बल्कि न्याय सुनकर उसकी अन्तरात्मा ने एक नई शान्ति का आभास किया। सुधा की जिस घृणा की आग में वह जल रहा था, वह कम हो गई। यद्यपि इस सजा के साथ उसकी सरकारी नौकरी भी छूट गई थी, परन्तु उसे इसका अफसोस नहीं हुआ। वह अब इंस्पेक्टर जोशी नहीं था-केवल जोशी था-आनन्द जोशी।

जिस समय सिपाही उसके हाथों में हथकड़ियां पहनाकर उसे अदालत से बाहर ले जा रहे थे तो उसने अपनी आंखें चारों आर दौड़ाईं। उसे मानो किसी की प्रतीक्षा थी। किरण इस समय जहां-कहीं भी होगी, कम से कम आज के दिन तो अवश्य ही वह उससे मिलना चाहेगी। अपने घरवालों की दृष्टि से छिपकर।

परन्तु उसे सख्त निराशा मिली। इस निराशा से उसका दिल नहीं टूटा, केवल एक धक्का-सा लगा- धक्का, जो उस समय लगता है जब कोई बात आशा के विरुद्ध उत्पन्न होती है। दिल तब टूटता है जब प्यार धोखा दे जाए और प्यार उसने अब तक किसी से नहीं किया था-बल्कि प्यार किसी से हुआ ही नहीं था-प्यार जो अपने आप हो जाता है। यही कारण था कि उसके दिल को केवल एक धक्का-सा लगा।

‘‘छोटे मालिक !’’

अचानक एक परिचित स्वर सुनकर उसके पग वहीं रुक गए, उसके साथ दोनों सिपाही भी रुक गए। आनन्द जोशी की सच्चाई पर दोनों के दिल में पूरी श्रद्धा थी। आनन्द जोशी ने पलटकर देखा। जनता की चलती-फिरती भीड़ में हरिया खड़ा हुआ था-उसका नौकर। हरिया की आंखों में आंसू थे। आज सुबह अदालत आने से पहले उसने हरिया से बहुत सारी बातें की थीं। उसे समझा दिया था कि उसे सजा हो जाए तो वह सारा सामान लेकर दिल्ली चला जाए-उसके दादा के पास। उनके आगे सारी स्थिति रखकर उन्हें समझाने का प्रयत्न करे। उन्हें तसल्ली दे।

हरिया का बापू अब भी उसके दादा की सेवा कर रहा था। वह चला जायेगा तो सारी परिस्थितियों पर विचार करके उन्हें धैर्य रखने में आसानी हो जायेगी। अदालत में इस प्रकार हरिया को देखकर उसे दया आई। भर्राई आवाज में वह धीरे-से बोला, ‘‘दादाजी का पूरा ध्यान रखना। कह देना कि सजा पूरी होने के बाद मैं तुरन्त उनकी इच्छा पूरी कर दूंगा। किरण उनकी बहू नहीं बन सकी तो किसी और को ही बना दूंगा।’’ किरण का नाम उसके दिल ने लिया था या होंठों ने, वह कोई अनुमान नहीं लगा सका। परन्तु उसके दादा की आंखों में किरण की तस्वीर थी इसलिए वह ऐसा कहने पर विवश था। उसने अपने होंठ चबाए और किरण का विचार झटककर आगे बढ़ गया, जहां एक ‘पुलिस वैन’ उसे जीवन के अंधकारमय भविष्य में ले जाने की प्रतीक्षा कर रही थी।

जिस जेल की काल-कोठरी के अन्दर उसने अनेक अपराधियों को भेजा था, उस जेल की काल-कोठरी में जब खुद उसने प्रवेश किया तो उसका दम घुटने लगा। कुछ ही दिनों में उसके शरीर का जोड़-जोड़ टूटने लगा तो उसे ऐसा लगा मानो शीघ्र ही पत्थरों की यह दीवारें उसका गला घोंट देंगी। परन्तु वह सख्तजान था-शरीर का मजबूत-ताकतवर। और जब उसने काल-कोठरी के वातावरण से समझौता कर लिया तो उसे महसूस हुआ कि उसके कंधों पर से पाप का एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया है। उसे पूरा विश्वास था कि सुधा को अब कुछ सन्तोष मिल गया होगा। उसके पति का हत्यारा, इस समय काल-कोठरी में बन्द है। परन्तु इस बात के साथ उसे यह भी विश्वास था कि सुधा की नफरत उसके प्रति जरा भी कम नहीं हुई होगी।

इस संसार में कौन स्त्री ऐसी हो सकती है जो अपने पति के हत्यारे को क्षमा कर दे ? हत्यारा ? वह हत्यारा ही तो था-सुधा के पति का-सुधा की दृष्टि में। वह नहीं होता तो उसके पति को कोई भी मृत्यु- दण्ड नहीं दे सकता था। परन्तु उसे अब इसकी जरा भी चिन्ता नहीं थी। अदालत ने उसे उसकी भूल की पूरी-पूरी सजा दी है-और यही उनके दिल के सन्तोष के लिए बहुत था। सत्य के पथ पर चलते हुए उसने अपना कर्तव्य पूरा-पूरा निभा दिया है। अब सजा पूरी होने के बाद वह दिल्ली चला जायेगा-किरण को लेकर-यदि वास्तव में वह तब तक उसकी प्रतीक्षा करेगी। किरण के वायदों का सहारा लेकर उसके दिल में उसके प्रति आशा की एक छोटी-सी किरण अब भी शेष थी। फिर दिल्ली जाकर वह छोटा-मोटा कोई व्यापार आरम्भ कर देगा। उसके पिता ने मरते समय उसके लिए अपने ‘प्राविडेण्ड फंड’ की एक अच्छी-भली राशि रख छोड़ी थी। उसका अपना ‘प्राविडेण्ड फण्ड’ भी उसे कुछ मिलेगा। फिर दिल्ली में उसका निजी बंगला भी तो है। जेल की सजा काटने के बाद कौन किसी को अच्छी-भली नौकरी देता है ?

जेल की काल-कोठरी में बन्द उसे दूसरा सप्ताह बीतने को आया परन्तु उससे कोई भी मिलने नहीं आया-न किरण न उसके अपने मित्र ही-पुलिस विभाग में उसके साथ उठने-बैठने वाले कर्मचारी। डी.आई.जी. साहब से नाता तोड़ लेने के बाद शायद सभी मित्र उससे मिलने में अपना हित नहीं समझते थे। उसने भी गंभीरता के साथ सब्र धारण कर लिया। फिर कुछ ही दिनों बाद उसका तबादला दूसरे शहर की जेल में हो गया तो उसने अपने मित्रों से मिलने की रही-सही आशा भी छोड़ दी।

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