गदाधरसिंह को लेने के लिए दारोगा खुद दरवाजे तक गया और बड़े आवभगत के साथ अपनी बैठक में ले आया। मामूली बातचीत और कुशल-मंगल पूछने के बाद दोनों में इस तरह की बातचीत होने लगी-
दारोगा : मैंने आपके घर आदमी भेजा था मगर वह मुलाकात न होने के कारण सूखा ही लौट आया और उसी की जुबानी मालूम हुआ कि आप कई दिनों से किसी कार्यवश बाहर गए हुए हैं।
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गदाधरसिंह : ठीक है, मैं कई दिनों से अपने घर पर नहीं हूँ, मगर आपको आदमी भेजने की जरूरत क्यों पड़ी?
दारोगा : आप जानते हैं कि मैं जब किसी तरद्दुद में पड़ जाता हूँ तब सबसे पहिले आपको याद करता हूँ क्योंकि मेरे दोस्तों में सिवाय आपके कोई भी ऐसा लायक और हिम्मतवर नहीं हैं जो समय पड़ने पर मेरी मदद कर सके।
गदाधरसिंह : कहिए क्या काम है? आपके लिए हर वक्त तैयार रहता आपसे भी बहुत उम्मीद रखता हूँ। मैं सच कहता हूँ कि आपकी दोस्ती का मुझे बहुत बड़ा घमंड है और यही सबब है कि मैं इस समय आपके पास आया हूँ क्योंकि इधर महीनों से मैं सख्त मुसीबत में गिरफ्तार हो रहा हूँ, अगर मेरी इस मुसीबत का शीघ्र अंत न होगा तो मुझे इस दुनिया से एकदम अंतर्ध्यान हो जाना पड़ेगा।
दारोगा : आपने तो बड़े ही तरद्दुद की बात सुनाई! कहिए तो सही क्या मामला है?
गदाधरसिंह : नहीं पहिले आप ही कहिए कि मुझे क्यों याद किया था?
दारोगा : अच्छा पहिले मेरी ही राम कहानी सुन लीजिए, आप जानते ही हैं कि शहर के आसपास ही में कोई कमेटी’ है जिसके स्थान का और सभासदों का कुछ भी पता नहीं लगता।
गदाधरसिंह : हाँ में सुन चुका हूँ, (मुस्कराकर) मगर मेरा तो खयाल है कि आप भी उस कमेटी के मेंम्बर हैं।
दारोगा : हरे-हरे, आप अच्छी दिल्लगी करते हैं, भला जिस राजा की बदौलत मैं इस दर्जे को पहुँच रहा हूँ और इतना सुख भोग रहा हूँ उसी के विपक्ष में हुई किसी कमेटी का मेंबर हो सकता हूँ? आज भी अगर मुझे उस कमेटी का पता लग जाए और सभासदों का नाम मालूम हो जाए तो मैं एक-एक को चुन कर कुत्ते की मौत मारूँ और कलेजा ठंडा करूँ!
गदाधरसिंह : (मुसकुराता हुआ) कदाचित् ऐसा ही हो, मगर इस विषय पर आप मुझसे बहस न कीजिए, अपना हाल कहिए। मैं उस कमेटी का हाल अच्छी तरह जानता हूँ।
दारोगा : (जिसका चेहरा गदाधरसिंह की बातों से कुछ फीका पड़ गया था) आप ही की तरह हमारे महाराज के छोटे भाई शंकरसिंह जी को भी उस कमेटी के विषय में मुझ पर शक पड़ गया है। उनका भी यही कथन है कि मैं उस कमेटी का मेंम्बर है।
गदाधरसिंह : ठीक है, शंकरसिंह जी बड़े ही होशियार और बुद्धिमान आदमी हैं, आपके महाराज की तरह बोदे और बेवकूफ नहीं हैं जिन्हें आप मदारी के अन्दर की तरह जिस तरह चाहते हैं नचाया करते हैं।
दारोगा : बेशक् वे बहुत होशियार और तेज आदमी हैं मगर मुझे विश्वास हो गया है कि वे मेरी जड़ खोदने के लिए तैयार हैं। यद्यपि मैं अपने को चालाक और धूर्त लगाता हूँ मगर सच कहता हूँ कि शंकरसिंह जी का मुकाबला किसी तरह नहीं कर सकता। तिलिस्म के विषय में भी जितनी जानकारी उनको है उतनी हमारे महाराज को नहीं है। कुँवर गोपालसिंह जी को भी वह हद से ज्यादा प्यार करते हैं। अभी थोड़े दिन का जिक्र है कि स्वयं मुझे लाल-लाल आँखें करके धमका चुके हैं और कह चुके हैं कि देख दारोगा, होशियार हो जा, अपने राजा के भरोसे पर भूला न रहियो। मैं बहुत जल्द साबित कर दूंगा कि तू उस कमेटी का मेंबर है और इसके बाद तुझे सूअर के गलीज में रखकर फंकवा दूंगा। खबरदार, मेरे धमकाने का हाल भाई साहब से कदापि न कहियो नहीं तो दुर्दशा का दिन…’
गदाधरसिंह : इससे मालूम होता है कि आपकी उस गुप्त कमेटी का हाल उन्हें मुझसे ज्यादा मालूम हो चुका है, ऐसी अवस्था में आपको चाहिए कि उन्हें इस दुनिया से उठाकर हमेशा के लिए निश्चिन्त हो जाइए नहीं तो उनका जीते रहना आपके लिए सुखदाई न रहेगा।
दारोगा : (कुछ देर तक आश्चर्य से भूतनाथ का मुँह देखकर) क्या यह बात आप हमदर्दी के साथ कह रहे हैं?
गदाधरसिंह : बेशक्, आपसे दिल्लगी नहीं करता।
दारोगा : अगर मैं ऐसा करने के लिए तैयार हो जाऊँ तो जरूरत पड़ने पर क्या आप मेरी मदद करेंगे?
गदाधरसिंह : जरूर मदद करूँगा मगर शर्त यह है कि आप अपना कोई भेद मुझसे छिपाया न करें।
दारोगा : मैं तो आपका कोई भेद आपसे नहीं छिपाता और भविष्य के लिए भी कहता हूँ कि न छिपाऊँगा।
गदाधरसिंह : बेशक् आप छिपाते हैं।
दारोगा : नमूने के तौर पर कोई बात कहिए?
गदाधरसिंह : पहिले तो इस कमेटी के विषय में ही देख लीजिए, आज तक आपने इस विषय में मुझसे कुछ कहा?
दारोगा : (कुछ देर तक सिर नीचा करके और सोच के) अच्छा मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ और कसम खाकर एकरार करता हूँ कि इस कमेटी का भेद और स्थान तुमको बता दूँगा।
गदाधरसिंह : मैं भी कसम खाकर एकरार करता हूँ कि हर एक काम में आपकी मदद तब तक बराबर करता रहूँगा जब तक आप मेरे साथ या मेरे दोस्त इन्द्रदेव के साथ किसी तरह की दगाबाजी न करेंगे।
दारोगा : मैं आपके इस एकरार से बहुत ही प्रसन्न हुआ, मगर आश्चर्य की बात है कि आपने अपने साथ-ही-साथ इन्द्रदेव को शरीक कर लिया! मैं खूब जानता हूँ कि आजकल इन्द्रदेव आपके साथ दोस्ती का बर्ताव नहीं करता। यद्यपि वह मेरा गुरुभाई है और मैं भी उसका भरोसा करता हूँ मगर बात तो वाजिब है वह कहने में आती है।
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गदाधरसिंह : इन्द्रदेव की बातों को आप नहीं समझ सकते खास करके मेरे संबंध में, यों तो आपने जो कुछ देखा या सुना हो मगर मैं इन्द्रदेव पर भरोसा रखता हूँ। मेरी और उनकी दोस्ती का अंत सिवाय मौत के और कोई नहीं कर सकता।
दारोगा : खैर, इस बहस से कोई मतलब नहीं, आप जानिए और वह जाने, मैं तो पहिले ही कह चुका हूँ कि वह मेरा गुरुभाई है मैं उसका भरोसा रखता हूँ। ऐसी अवस्था में भला मैं उसके साथ क्या दुश्मनी कर सकता हूँ। अच्छा अब आप अपने तरद्दुद का हाल बयान करिए कि आजकल आप किस मुसीबत में फँसे हैं।
गदाधरसिंह : मेरी मुसीबत के बढ़ाने वाले भी आपके शंकरसिंह ही हैं और कुछ-कुछ इन्द्रदेव ने भी चांड़ लगा रखी है, मगर मैं इसके लिए इन्द्रदेव को बदनाम नहीं कर सकता क्योंकि जिनकी वे मदद कर रहे हैं वे उनके खास रिश्तेदार और आपस वाले लोग हैं।
दारोगा : अगर यह बात है तो आपको भी जरूर शंकरसिंह से दुश्मनी हो गई होगी?
गदाधरसिंह : निःसन्देह।
दारोगा : अच्छा खुलासा तो कहिए।
गदाधरसिंह : बात वही पुरानी है-दयाराम वाली।
दारोगा : (आश्चर्य से) क्या यह बात प्रसिद्ध हो गई कि आप दयाराम के घातक हैं?
गदाधरसिंह : अगर प्रसिद्ध हो नहीं गई तो अब कुछ दिन बाद प्रसिद्ध हो जाने में कुछ सन्देह भी नहीं रहा, क्योंकि दयाराम की दोनों स्त्रियाँ जिन्हें तमाम जमाना मुर्दा समझे हुए था जीती-जागती पाई गई हैं और उन्हें इस बात का विश्वास है कि उनके पति को गदाधरसिंह ने मारा है यद्यपि यह बात बिलकुल निर्मूल है…

दारोगा : (बात काट कर आश्चर्य से) क्या वास्तव में दयाराम की दोनों स्त्रियाँ अभी तक जीती हैं? फिर उनके मरने की गप्प किसने और क्यों उड़ाई?
गदाधरसिंह : यह सब तिलिस्म इन्द्रदेव ही के बाँधे हुए हैं और अब उन दोनों की मदद भी इन्द्रदेव ही कुछ-कुछ कर रहे हैं, मगर बीच में शंकरसिंह का कूद पड़ना मेरे लिए बड़ा ही दुखदाई हो रहा है। इन्द्रदेव की मदद तो नाममात्र ही के लिए थी, मगर ये हजरत जी छोड़कर उन दोनों की मदद कर रहे हैं और मुझे जहन्नुम में मिलाने के लिए तैयार हैं। क्या करें, तिलिस्म के अन्दर की बात है नहीं तो मैं दिखा देता कि गदाधरसिंह के साथ दुश्मनी करने का नतीजा कैसा होता है।
दारोगा : यह तो बड़ा ही नाजुक मामला निकला…
इसके बाद कुछ कहता-कहता दारोगा रुक गया क्योंकि उसे यह बात याद आ गई कि मनोरमा इसी जगह दूसरी कोठरी में छिपी हई हम लोगों की बातें सुन रही है। संभव है कि दारोगा इसके आगे की बातचीत मनोरमा से छिपाना चाहता हो, अस्तु धीरे-से गदाधरसिंह से कुछ कह आँख का इशारा करने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और गदाधरसिंह का हाथ पकड़े हुए दूसरे कमरे में चला गया।
भूतनाथ-खण्ड-3/ भाग-11 दिनांक 21 Mar. 2022 समय 06:00 बजे साम प्रकाशित होगा

