अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

सेहटा गांव में रहने वाले वैदराज बदबद का नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। वे जड़ी-बूटियों के अच्छे जानकार थे। उनके दरवाजे पर दस-बीस रोगी सदा बैठे रहते थे। वैदराज बदबद ठाकुर दीप नारायण सिंह के घरेलू वैद्य थे। वैदराज का शरीर मोटा और थुलथुल था। मुंह पर सदैव मुस्कान बिखरी रहती थी।

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उस दिन वैदराज दो-चार शिशियां समाने रखे हुए बैठे थे। एक बूढ़े मियां कहीं दूर से वैदराज का नाम सुनकर आये थे। वैदराज ने उनके शिथिल शरीर पर दृष्टि डालकर सहज हास्यपूर्ण वाणी में पूछा—‘कहो बड़े मियां! किसकी तलाश में हो?’

बड़े मियां ने समझा कि वैदराज उससे मजाक कर रहे हैं। उन्होंने भी उसी लहजे में जवाब दिया—‘जवानी की तलाश में आया हूं वैदराज!’

वैदराज समझ गये कि बड़े मियां ने मुंहतोड़ जवाब दिया है।

वे हाजिर जवाब तो थे हां, झट बोल बैठे—‘झूठ न बोलो बड़े मियां। यह कहो कि कब्र के लिए जमीन खोजते हुए यहां तक चले आये हो, मगर वह मेरे पास नहीं है…!’

सभी लोग हंस पड़े। इतने में ही ठाकुर साहब की सवारी आ पहुंची।

वैदराज ने ठाकुर को जुहार की और उन्हें ले जाकर गद्दी पर बैठाया।

‘अच्छे तो हो ठाकुर?’ वैदराज ने पूछा।

‘जिंदगी के साठ साल सरक गये, मगर कभी अच्छा नहीं रहा, वैदराज!’ ठाकुर बोले।

ठाकुर साहब के दो स्वरूप थे—आसामियों के साथ उग्र और मित्रों के साथ नम्र।

‘छोटे ठाकुर को आपने जुट्ट पोस्ट कार्ड जल्द घर आने के लिए लिखा था। अभी तक वे आये या नहीं?’ पूछा वैदराज ने।

‘परसों आया है…!’ ठाकुर बोले—‘उसके रंग-ढंग बेढब नजर आ रहे हैं, वैदराज! पढ़ाई कब की खत्म हो चुकी थी, परंतु फजूल शहर में पड़ा मटरगस्ती कर रहा था।’

‘शहर की हवा लग गईं है ठाकुर! ‘इट फिट गेट आउट’ आप भी सुनने को तैयार रहो—’ वैदराज हंस कर बोले—‘छोटे ठाकुर की शादी के लिए जल्दी किसी मेम की खोज करो।’

‘चुप रहो वैदराज! आंखें फोड़ डालूंगा, मगर यह सब न देख सकूंगा। लोग सच कहते थे कि लड़कों को अंग्रेजी पढ़ाना सनातन का नाम डुबाना है। अब तो गलती हो गईं, वैदराज! तुम उसे देखो तो घृणा से अपनी आंख मूंद लो। सब शहराती रंग-ढंग हो गये हैं उसके। कहता है शादी नहीं करूंगा।’

‘ठीक ही तो है ठाकुर! शादी करके होगा भी क्या? अब तो ऐसी-ऐसी दवाएं फैल गईं हैं कि उसके खाने से बच्चा पैदा ही नहीं होता और इसलिए व्यभिचार का बोल-बाला है, फिर आप ही बताओ, शादी की क्या जरूरत?’ कहकर वैदराज ने पुनः अपनी हंसी बिखेर दी।

‘तुम्हारे दिमाग में तो वैदराज, गोबर भरा है, गोबर।’ ठाकुर बोले।

वैदराज ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया—‘परसाल उसी गोबर में से दवा निकालकर आप को दी थी, तभी आप इतनी जल्दी अच्छे हुए थे।’

दोनों एक दूसरे से मात खाकर हंस पड़े।

‘लाखन चमार की याद तो अब न आती होगी, ठाकुर?’ बोले वैदराज!

‘रात-दिन आती है, वैदराज—! उसी बेईमान का पाप मेरे सिर पर चढ़कर बोल रहा है—।’ ठाकुर न जाने क्यों लाखन का नाम सुनकर सिहर उठे। उनके तगड़े शरीर में एकाएक कुल कम्पन हुआ, साथ ही कांपता हुआ स्वर निकला—‘उसका नाम न लेना वैदराज, दीवारों के भी कान होते हैं। मेरी इज्जत-आबरू सिर्फ उस एक भेद पर अटकी हुई है।’

वैदराज का मुर्दा भी वह भेद किसी पर प्रकट नहीं करेगा, ठाकुर! आप निश्चिंत रहो।’ वैदराज ने कहा।

ठाकुर उठ खड़े हुए।

वैदराज ने जाते हुए ठाकुर को जुहार की।

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