Ratnakar to Valmiki: रामायण भारत ही नहीं विश्व का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है। इस महान ग्रंथ की रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी, लेकिन वाल्मीकि जी, जिन्होंने इसकी रचना की पहले एक डाकू थे। आखिर कैसे हुआ इनका हृदय परिवर्तन, कैसे बने रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि आइए जानते हैं लेख से।
महर्षि वाल्मीकि संस्कृत भाषा के आदि कवि और हिन्दुओं के आदि काव्य रामायण के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध है। राहगीरों को लूटकर अपना परिवार चलाने वाले रत्नाकर को जब इस सच का पता चला कि जिनके लिए वह दूसरों को लूटता है, वे लोग उसके पाप में सहभागी नहीं होना चाहते तो उन्हें पता चला कि सभी रिश्ते नाते स्वार्थ पर टिके हैं और उसके बाद वे भगवान की भक्ति में इस कदर लीन हुए कि महर्षि बनकर सामने आए।
Also read: पाप का प्रायश्चित – इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग
डाकू से वाल्मीकि बनने की कथा
महर्षि वाल्मीकि जिनका नाम पहले रत्नाकर था, इनका जन्म पवित्र ब्राह्मïण कुल में हुआ था, किन्तु डाकुओं के संसर्ग में रहने के कारण ये लूट-पाट और हत्याएं करने लगे और यही इनकी आजीविका का साधन बन गया, इन्हें जो भी मार्ग में मिल जाता, ये उसकी सम्पत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन इनकी भेंट देवर्षि नारद जी से हुई इन्होंने नारद जी से कहा कि ‘तुम्हारे पास जो कुछ है, उसे निकाल कर रख दो! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा। देवर्षि नारद ने कहा कि मेरे पास इस वीणा और वस्त्र के अतिरिक्त है ही क्या तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो, लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप के भागी क्यों बन रहे हो देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ। इन्होंने कहा भगवान! मेरी आजीविका का यही साधन है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूं। देवर्षि बोले ‘तुम जाकर पहले अपने परिजनों से पूछकर आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण-पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप-कर्मों में भी हिस्सेदार बनेंगे। तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जाएंगे। यदि तुम्हें विश्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बांध दो। देवर्षि को पेड़ से बांध कर रत्नाकर अपने घर चले गये। इन्होंने बारी-बारी से अपने परिजनों से पूछा कि ‘तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझ से केवल भरण-पोषण ही चाहते हो। सभी ने एक स्वर में कहा कि ‘हमारा भरण-पोषण आपका कर्तव्य है। आप कैसे धन लाते हैं, यह सोचना आपका विषय है। हम आपके पापों के हिस्सेदार नहीं बनेंगे, यह सुनकर उनके ज्ञान चक्षु खुल गये। इसके बाद उन्होंने तुंरत जंगल की ओर प्रस्थान किया और देवर्षि नारद के बन्धन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों पर गिर पड़े। नारद जी ने उन्हें धैर्य बंधाया और राम नाम के जप का उपदेश दिया, किन्तु पूर्वकृत भयंकर पापों के कारण उनसे राम नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तदनन्तर नारद जी ने सोच-समझकर उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा। ईश्वरीय प्रेरणा से वह सांसारिक जीवन (मोह) को त्याग कर परमात्मा के ध्यान में लग गये, उन्होंने कठोर तपस्या की। तपस्या में वे इतने लीन हो गए की उनके पूरे शरीर में दीमक ने अपनी वल्मीक बना लिया, इसी कारण इनका नाम वाल्मीकि पड़ा। भगवान के नाम का निरन्तर जप करते-करते वाल्मीकि अब ऋषि हो गये। उनके पहले की क्रूरता अब प्राणिमात्र के प्रति दया में बदल गयी।
शिकारी को दिया श्राप
महर्षि वाल्मीकि अयोध्या के समीप तमसा नदी के किनारे तपस्या करते थे। वह प्रतिदिन प्रात स्नान के लिए नदी में जाया करते थे। एक दिन जब वह सुबह स्नान करके वापस लौट रहे थे, तो उन्होंने एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को खेलते हुए देखा। वाल्मीकि उन्हें देखकर आनंद ले रहे थे, तभी अचानक एक शिकारी ने तीर चलाकर क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक पक्षी को मार दिया तब दूसरा पक्षी पास के पेड़ में बैठकर अपने मरे हुए साथी को देखकर विलाप करने लगा। इस करुण दृश्य को देखकर वाल्मीकि के मुख से यह श्लोक निकल पड़ा।
‘मां निषाद प्रतिष्ठाम त्वमगम शाश्वती समा
यात्क्रौंचमिथुनादेकं अवधी काम मोहितं‘
अर्थात हे शिकारी! तुमने काम में मोहित क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार दिया है, इसलिए तुम कभी भी प्रतिष्ठा और शांति को प्राप्त नहीं कर सकोगे।
रचनाकर महर्षि वाल्मीकि
महर्षि वाल्मीकि ने तमसा नदी के किनारे अपने आश्रम में रहकर अनेक रचनाएं लिखीं, जिनमें प्रसिद्ध ग्रन्थ रामायण भी शामिल है। रामायण में वर्णित कथा जैसा सुन्दरएस्पष्ट और भक्ति भावपूर्ण वर्णन दूसरे कवि के काव्य में नहीं मिलता है। वाल्मीकि को संस्कृत साहित्य का आदि कवि माना जाता है।
वाल्मीकि रामायण में सात खंड हैं, उन्होंने अपनी इस रचना में सिर्फ भगवान श्री राम का ही नहीं बल्कि उस समय के समाज की दशा, सभ्यता, शासन-व्यवस्था तथा लोगों के रहन-सहन का भी वर्णन किया है। रामायण को त्रेता युग का इतिहास ग्रन्थ भी माना जाता है।
लव-कुश के गुरु
महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पुरुषोतम श्री राम के पुत्रों लव-कुश का जन्म हुआ था, उनकी शिक्षा-दीक्षा महर्षि वाल्मीकि की ही देख-रेख में हुई थी। उन्होंने अपने ज्ञान और शिक्षा-कौशल से लव-कुश को छोटी उम्र में ही ज्ञानी और युद्ध-कला में निपुण बना दिया था। श्री राम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा, जब महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पहुंचा तो लव-कुश ने उसे बांध लिया और जब घोड़ा छुड़ाने के लिया अयोध्या से सेना आई तो उन्होंने लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की सेना को पराजित कर अपनी असीम प्रतिभा और शक्ति का परिचय दिया, उन दोनों ने श्री राम को भी अपनी वीरता और बुद्धि से आश्चर्यचकित कर दिया, उनका यह पूरा पराक्रम महर्षि वाल्मीकि की शिक्षा का ही परिणाम था। महर्षि वाल्मीकि कवि, शिक्षक और ज्ञानी ऋषि थे, उनके ग्रन्थ रामायण में इसकी स्पष्ट छाप दिखती है। रामायण ग्रन्थ भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की एक बहुमूल्य कृति है। यह भारतीय साहित्य का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है।
अनमोल वचन
जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
प्रण को तोड़ने से पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
माया के दो भेद हैं अविद्या और विद्या।
दुखी लोग कौन सा पाप नहीं करते।
असत्य के समान पातक पुंज नहीं है। समस्त सत्य कार्यों का आधार सत्य ही है।
प्रियजनों से भी मोह वश अत्यधिक प्रेम करने से यश चला जाता है।
अति संघर्ष से चंदन में भी आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार बहुत अवज्ञा किए जाने पर ज्ञानी के भी हृदय में क्रोध उपज जाता है।
संत दूसरों को दुख से बचाने के लिए कष्ट करते रहते हैं, जबकि दुष्ट दूसरों को दुख में डालने का सदैव प्रयास करते रहते हैं।
उत्साह से बढ़कर दूसरा कोई बल नहीं है।
