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वही काटेंगे जो बोएंगे—गृहलक्ष्मी की कहानियां
Wahi Kaatege Jo boege

वही काटेंगे जो बोएंगे-

“राधेय…राधेय!”
“बाबा! आपने हमें पुकारा।”
“हाँ बेटी! पर तू ससुराल से कब आई?”
“अभी-अभी! आप सबों के बिना मुुझे कहाँ अच्छा लगता है? बच्चों की छुट्टियाँ हुई तो आ गई आपकी सेवा करने ।”
“ना-ना बिटिया…कन्यादान कर दिया है तुम्हारा। हमारी सेवा के लिए बहुएँ हैं ना! एक -दो रोज रूक कर अपने घर लौट जा!” दिल कड़ा कर उन्होंने घर की शाँति के लिए जो कुछ कहा उसे राधा ने मान लिया।
रामविलास की प्रथम संतान थीं राधा। सुनहले बालों वाली गुड़िया सी राधा के जन्म के साथ ही उनके चाॅकलेट-बिस्कुट का व्यापार चल निकला। उसके बाद से बेटी का चेहरा देखे बिना वह अपना दिन शुरू नहीं करते थे। बचपन बेहद लाड़- दुलार भरा था। पढाई में बहुत अच्छी थीं पर उन दिनों बेटियों का ब्याह जल्दी ही किया जाता था। सत्रह की कच्ची उम्र में शादी हो गई।
ससुराल और मायके के माहौल में बड़ा फर्क था। वहाँ परिवार की लाडली और यहाँ किसी ने उसे समझा ही नही। एक ओर छोटे भाई-बहनों के विछोह का कष्ट सह नहीं पा रही थी वहीं दूसरी ओर सब स्नेह के लिए नहीं बल्कि काम के लिए पूछते। जरा सी ऊँच -नीच होते ही ताने-उलाहने मिलते। राधा का दिल मायके में अटका रहता। ससुराल में ननदें झगड़तीं,सास नहीं थीं जो संभाल लेतीं। एक ओर काम की अधिकता के दूसरी ओर शांति का अभाव ,पति का स्वभाव भी अपने परिवार वालों से अलग ना था। कुछ तो समकालीन समाज में पुरुषों का घर के मामलों में चुप रहना ही सही माना जाता था। उनकी ओर से भी कोई सहयोग नहीं मिलने पर, स्नेह के दो बोल के तड़प में जब-तब मायके का रूख कर लेती। माँ-बाबा समझा-बुझा कर वापस भेज देते। शादी के दो साल पूरे होने को थे कि जुड़वां पुत्रों ने जन्म लिया। लव—कुश के आते ही गृहस्थी से जुड़ने लगी । जीवन को एक दिशा मिल गई थी। बच्चों संग वह भी बढने लगी। बेटे स्कूल जाने लगे तो आशाओं ने कुछ और पंख फैलाए। अब वह स्कूल की छुट्टियों में बच्चों को साथ लेकर मायके जाया करतीं।

शुरू के दस साल तो बच्चों को बड़े करने में निकल गए। इसी बीच भाईयों की भी शादियाँ हो गईं थीं। दो-चार साल गुजरते ही पूरे परिवार का राधा के प्रति स्नेह भाभियों को खटकने लगा था। मगर अपनों के स्नेह में बंधी वही समझ नहीं पा रही थी। रिक्शे से उतरते ही पिता की आवाज कानों में पड़ी। उनकी बातों से एक झटका सा लगा। ससुराल वालों के व्यवहार के कारण उनसे जुड़ ही नहीं पाईं थीं और अब मायका भी छूट गया। दोनों बेटों में ही मन लगा लिया। अपनी लहलहाती फसल देख जैसे किसान झूम उठता है ठीक उसी तरह अपने बच्चों को देख गर्व से भर जातीं।

अच्छी सी नौकरी लग गई तो एक साथ ही दोनों की शादियाँ करा दीं। संयोगवश उनकी ओर से खुशी की खबर भी साथ ही आई। जिसने उनके उदास मन में उथल-पुथल सी मचा दी। बेटे बाप बनने जा रहे हैं। उन्होंने बारी-बारी से दोनों ही से कहा।
“मै मदद के लिए आ जाऊँ?”
“नही माँ! रिंकी की मम्मी आईं हैं और वह अपनी माँ के साथ ज्यादा आराम से मैनेज कर पाएगी।”
अमन से इस जवाब की उम्मीद नहीं थी। आकाश ने भी कुछ ऐसा ही कहा । उम्र ढल रही है, सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो चली है। बहुत सी बातें समझ नहीं पातीं। कुछ कानों तक पहुँच भी जाएँ तो दिल तक नहीं उतरतीं। दिल तो उन्होंने लगाया ही नहीं कभी। कोख के रिश्तों को ही महत्व दिया। उन्हें देखा जिन्होंने उसे जन्म दिया और उनके लिए जीने लगी जिन्हें स्वयं जन्म दिया।

अब सब अपनी दुनिया में मशगूल हो गए। सबके अपने काम व बच्चे की जिम्मेदारियां हैं। साथ कोई है तो पति, जिनसे कभी बनी नहीं। दोनों अपने ही सोच के घेरे में कैद है। इसी कारण साथ होते हुए भी तन्हा हैं। पुरूष प्रधान समाज में अक्सर स्त्रियों के हिस्से यही तो आता है। मायके के मोह में भटकती ससुराल की हो नहीं पाती और जिन्हें अपने रक्त से सृजित किया है वहाँ किसी और का अधिकार देखकर व्याकुल हो जाती हैं। कोख के रिश्तों को निभाने की धुन में दिल के रिश्तों पर धूल की परत जमती जाती है।

एक घर में पैदा होकर,दूसरे के लिए फर्ज निभाकर,तीसरे घर में अपने पुत्रों पर हक की लड़ाई में भी हार जाती हैं। अगर कोई इस रिश्ते को बचा सकता है तो खुद उनके कोख की पैदाइश यानि बच्चे मगर वह अपना जीवन संभालने में अकसर अनदेखी करते हैं। ऐसे में कई बार तीसरी पीढ़ी यानि बच्चों के बच्चे ही पूरे परिवार को जोड़ने में सहायक सिद्ध होते हैं। उनके भोले मुख से यह सुनने के बाद कि ‘आप जैसा करेंगे हम भी वही सीखेंगे’ कुछ सुधार आने लगा है। कुछ लोग रिश्तों की कद्र करने लगे हैं। पता है आज नहीं तो कल उन्हें भी बूढ़ा होना है और वह वही तो काटेंगे जो बोएंगे।

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