वादा—गृहलक्ष्मी की कहानियां: Wada Hindi Kahaniya
Wada

Hindi Kahaniya: माया ने घड़ी देखा तो नौ बज रहे थे और वह रोज की तरह इस वक्त हाॅस्टल सुपरिटेंडेंट के चेम्बर में आ बैठी थी। बसंत ने दस्तक दे दिया था तो उसे बसंत पंचमी की वह छुट्टी याद आ गयी जब सुबह-सुबह ही आदित्य गेट पर आ गया था। उससे मिली तो वह बाहर चलने की जिद करने लगा। माया ने कहा भी कि “परीक्षाएं सिर पर हैं। बाद में चलेंगे।”
“अरे नहीं! अभी चलो। मैं पढ़ा दूँगा ना तुम्हें। दिक्कत क्या है? कौन सा टॉपिक पढ़ना रह गया है?”
“सोशल वेलफेयर फंक्शन बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा।”
“पर्सनल वेलफेयर समझो! सोशल वेलफेयर समझ में आ जायेगा।”
मुस्कुराते चेहरे ने यह बात कुछ ऐसे कही कि उसकी भी हँसी निकल गयी। कमरे में आकर उस दिन पीले रंग का सूट पहना। उसके पारदर्शी रंगत पर खूब फबता था पीला रंग। माया और रीना बाहर आये तो देखा कि आदित्य और विवान ऑटो लेकर आ चुके थे। यूनिवर्सिटी आने के बाद की यह पहली आउटिंग थी। साथ में लड़के भी थे। इस बात से माया थोड़ी नर्वस महसूस कर रही थी तो उसकी घबराहट को भाँप रीना ने कहा भी “एक महीने पढ़ाई करते तो अच्छा होता। बाहर जाने का क्या मतलब है? पूरा दिन बर्बाद हो जायेगा।”

“कुछ बर्बाद ना होगा मेरी माँ! मैं पढ़ा दूँगा तुम्हें।”
विवान के यह कहते ही रीना चुप हो गई। इस बीच आदित्य कुछ नहीं बोल रहा था। शायद कुछ सोच रहा था। जल्दी ही वे सारनाथ पहुँच गये। बनारस से दूर नहीं है सारनाथ और वहीं पास में है ‘सीता जी की रसोई’ जिसे चौखंडी स्तूप भी कहते हैं। आधे घंटे-चालीस मिनट में ही सभी उस बेहद सुंदर व शाँत स्थान पर थे।
“अहा! ये कौन सी जगह है। बला की शांति है यहाँ… है ना रीना?” कहकर माया ने रीना की ओर देखा तो वह कहीं और ही घूमती नजर आयी। विवान उसे उस जगह के बारे में बता रहा था।
“सीता जी की रसोई है!”
“अच्छा! पहले तो कभी नहीं सुना इस बारे में।”
“जानता हूँ! तभी तो यहाँ लाया हूँ तुम्हें। पहली बार जो बात कहने जा रहा हूँ उसके लिये कोई ऐसी ही जगह चाहिए। हर बात कैंटीन या लाइब्रेरी में तो नहीं की जा सकती है।”आदित्य ने कहा।
“अच्छा! ऐसी क्या खास बात है?”
“तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। मेरा मतलब यह है कि यह साथ उम्र भर का हो तो?”
“मुझे भी तुम पसंद हो मगर मेरा परिवार….”
“मैं मना लूँगा उन्हें। तुम ‘हाँ’ तो कहो!”
“हाँ!”
“मतलब?”
“मेरी ‘हां’ है!” और वह पूरा ही आश्वस्त हो गया। माया को अहसास था उसके जज़्बात का। निगाहें गाहे-बगाहें बातें किया करती थीं। वह पिछले छः महीनों से एक-दूसरे को जानते थे और आँखों ही आँखों में अक्सर मन को झाँक लिया करते थे। उन्हीं अनकहियों को वह अपनी जबान दे रहा था। एक निश्चिंत स्वर में बोला “तुम्हारे पिता का बहुत अहसानमंद हूँ जो तुम जैसी प्यारी बेटी को जन्म दिया। काश! वह हमें हमेशा के लिये एक कर दें। इस बारे में मैं उनसे बात करूँगा।”

“उनका तो मुझे पता नहीं पर मैं ये वादा करती हूँ कि आजीवन तुम्हारी ही रहूँगी!”
“मैं भी तुम्हारा रहूँगा सदा- सदा के लिए सिर्फ़ तुम्हारा! ये मेरा वादा है!”
“अगर हम एक ना हो सके तो?”
“होप फॉर दी बेस्ट एंड रेडी फॉर दी वर्स्ट! मेरे लिए तो इतना ही बहुत है कि तुमने मेरे प्रस्ताव का मान रखा। सच कहूँ तो इस विषय पर महीनों सोचता इस नतीजे पर पहुँचा कि अपनी भावनाओं को दबाने से बेहतर है कि तुम्हें बता दूँ। एक-दूसरे का साथ देने का वादा किसी पवित्र स्थान पर करना चाहता था ताकि हमेशा के लिये ये क्षण यादगार बन जाये!”
आदित्य ने जब शर्माते हुए यह कहा तो माया ठगी सी उसे देखती रह गई थी। आदित्य का गोरा चेहरा गुलाबी पड़ गया था। उसके कानों तक फैले मुस्कान और होठों के बीचो बीच के काले तिल में उसका दिल अटक कर रह गया था।

 हाँ! वह भी प्यार करने लगी थी। इतना ज़हीन,संजीदा और ऐसा चाहने वाला उसे कहाँ मिलता जिसने सदा ही उसके मान-सम्मान का ख्याल पहले रखा था। दिल की बात तक कहने के लिये एक पवित्र स्थान चुना था। शायद कहीं और कहकर वह उसे किसी दुविधा में नहीं डालना चाहता था। उससे भी अधिक उसकी फिक्र करने वाला आदित्य औरों की तरह चंचल चुहलबाज या हल्के बुद्धि वाला नहीं बल्कि बेहद गंभीर इंसान था।
उफ़! ये यादें….यही तो अब उसके जीने का सहारा बनीं हैं। जब से यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स की लेक्चरर का कार्यभार संभाला है वह रोज ही आनंद भवन का एक चक्कर लगा जाती है और क्यों ना लगाये आखिर उसने खुद को यहीं से बाँध रखा है। यह भूमिका स्वयं तो नहीं लिया था यूनिवर्सिटी का नियम था कि सभी लेक्चरर किसी ना किसी हाॅस्टल के सुपरिटेंडेंट की जिम्मेदारी लेनी होगी। ऐसे में उसकी ख्वाहिश थी कि उसे आनंद भवन मिल जाये। यह वही आनंद भवन है जहाँ की मिट्टी से उसका गहरा नाता रहा है। तभी तो आज भी इस ओर कदम बढ़ाते ही उसका हृदय बेसाख्ता धड़क उठता है। उन्हें ही जगाने वह चली आती है। सच्चाई तो यह है कि उसकी भावनाएं कभी सोयी ही नहीं। आज फिर मन भटका तो एक-एक कर सारे दरख्तों की छलांग लगा सुंदर यादों से गुजर कर वापस उसमें समाहित हो गया और वह पूर्णता के अहसास से आत्मविभोर हो उठी। ख्यालों में खोई माया वर्तमान में लौट आई जब एक आगंतुक ने आनंद भवन में अपने कदम रखे।

“क्या रूम नंबर छत्तीस से मारिया को बुलवा सकती हैं?”
एक जानी-पहचानी सी आवाज सुनकर धक से रह गई। यह क्या? सामने अधपके बालों में उम्रदराज आदित्य खड़ा दिखा। व्यक्तित्व में आज भी वही गहराई है। धीर -गंभीर चेहरा पहचान में आ गया पर शायद वह उसे पहचान ना सका। उसे देख खुद पर नजर डाला तो महसूस हुआ कि वह काफी बदल चुकी है। कहाँ कमसिन माया जिसकी जादूई मुस्कान पर लोग घायल हो जाया करते थे और कहाँ माया मैम जो शायद ही कभी मुस्कुराती हो। खैर तब के बिछड़े आज यहां मिलेंगे और वह भी ऐसे ये तो ख्वाबों ख्यालों में भी ना सोचा था।
उसने तुरंत फोन कर कुमार को बुलाया जो लड़कियों के कमरे तक जाकर उनके गेस्ट के आने की खबर पहुँचाता था। उससे कहा कि मारिया से मिलने जो व्यक्ति आये हैं उन्हें बैठाकर मारिया को बुला दे और विजिटिंग रजिस्टर में एंट्री व हस्ताक्षर करा लाये। संबंध की जगह पिता का नाम ‘आदित्य वर्मा’ लिखा था और हस्ताक्षर भी उसी के थे। माया उन अक्षरों से पूर्व परिचित थी। उन्हें पहचानते ही यादों के धुंधले सफर में खो गई। उसे वह आखिरी खत याद आ गया जो आदित्य ने जर्मनी जाने के पहले लिखा था।
“मैं दो सालों के लिये जर्मनी जा रहा हूँ। वापस लौटकर शादी करूँगा। मेरा इंतज़ार करना।
तुम्हारा आदित्य”
उसका आदित्य ‘आदित्य वर्मा’ भला मारिया का पिता कैसे हो सकता है और उसकी अट्ठारह साल की बेटी है…यह सोचकर ही अचरज में पड़ गई। हो भी सकता है… उन्हें बिछड़े हुये भी तो इक्कीस साल हो गये हैं …मारिया का चेहरा आँखों के सामने आ गया.. शक्ल मिलती है…जाने कैसे अब तक ध्यान ही नहीं गया…अर्थशास्त्र आनर्स कर रही मारिया उसकी स्टूडेंट है…..पर आदित्य ऐसा कैसे कर सकता है….उसने ताउम्र इंतज़ार करने का वादा किया था और वह भी उसके वादे पर यकीन कर उसकी प्रतीक्षा करती रह गई।

जाने कितनी ही बार माता-पिता ने शादी का दबाव बनाया था। कितनी ही बार उसने रिश्ते ठुकराये थे। शादी के नाम से ही घर छोड़कर जाने की बात कहती। आखिरकार उन लोगों ने उसका चिरस्वयंवरा होना स्वीकार कर लिया था और ऐसे में उसका वही सहचर जब एक पिता के रूप में सामने मिला तो दुख और पछतावे के सिवा कुछ भी शेष नहीं रहा। नहीं जानती थी कि एक दिन वक़्त उसे ऐसी राह पर ला खड़ा करेगा।
चिंतित व परेशान निगाहें उठीं तो शीशे की केबिन से सामने विजिटर रूम में बैठा आदित्य साफ-साफ दिख रहा था और वह अपने चेम्बर से एकटक उसे ही देख रही थी। ओह! यही वह शख्स है जिससे किया वादा निभाने के लिये उसने हर वादे को तोड़ा था और वह स्वयं का किया वादा तोड़कर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ गया। खैर जो भी हो आज की सुबह उसका यहाँ आना सफल हो गया था। उसके जीवन की धूरी यानि उसका राजकुमार नजरों के सामने था। सुबह तक जिसके नाम पर प्यार उमड़ रहा था अब गुस्से की चिंगारियां सुलग रहीं थी। जी तो चाहता था कि उससे सवाल-जवाब कर ले। उसे खूब डाँटे मगर पोजीशन का ख्याल कर चुप रह गई। जहाँ बिना बात बवाल होता था वहाँ औरों को मसाला क्यों दे? यही सब सोचती ख्यालों में गुम थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई।
“मे आई कम इन मैडम?” मारिया थी।
“यस प्लीज!”
“मैम! ये मेरे पापा हैं! मैनेजमेंट कॉलेज के प्रोफेसर और पापा! ये माया मैम हैं! आपसे कहा था ना कि इकनॉमिक्स की नई लेक्चरर राँची से आई हैं और बहुत अच्छा पढ़ाती हैं।”

“माया…तुम यहाँ? तुम कहाँ चली गई थी…कहाँ- कहाँ नहीं ढूँढा तुम्हें?” आदित्य सहसा हड़बड़ाहट में बोले जा रहा था।
“ओ माय गॉड..पापा! आप जानते हैं एक-दूसरे को?”
“हम साथ थे।”
चश्में के भीतर से एक संक्षिप्त सा जवाब देकर माया वापस अपनी फाइलों में खो गई।
“आप बातें कीजिए पापा। मैं सामान पैक कर आती हूँ।”
बिटिया समझदार थी और आदित्य बेचैन पर पता नहीं क्यों माया उसकी अनदेखी कर रही थी। एक क्षण को ऐसा लगा जैसे दोनों के मुँह पर ताले पड़ गये हों। जब खामोशी के पाँच मिनट निकल चुके और कोई कुछ ना बोल रहा था तो आखिरकार माया ने चुप्पी तोड़ी।
“तुमने तो कहा था इंतज़ार करोगे?”
“कर ही तो रहा हूँ!”
“फिर मारिया?”
“बहन की बेटी है। दिल्ली एयरपोर्ट पर मुझे रिसीव करने आते समय कार एक्सीडेंट में पति-पत्नी दोनों मारे गये। बिन माँ-बाप की बच्ची को मैंने गोद ले लिया और वह मुझ अकेले के जीने का सहारा बन गई!”
“ओह! सॉरी !”
“तुम कहाँ खो गई थी माया.. बहुत ढूँढा तुम्हें…पचासों खत लिखे..जवाब ना आने पर उसी पते पर पहुँचा भी था। पड़ोसियों से पता लगा कि अब वहाँ कोई नहीं रहता। अंततः हारकर बैठ गया।” उसके चेहरे की बेचैनी साफ नजर आ रही थी।
“हाँ! राज्य के बंटवारे में पापा ने बिहार की जगह झारखंड चुन लिया था। हम लोग पटना से राँची चले गये थे।” दुख और क्रोध से तमतमाये चेहरे पर पसीने की कुछ बूँदें झिलमिलाने लगीं थीं। किसी तरह से खुद को संयत कर माया ने कहा “आई एम वेरी सॉरी!”

आदित्य अपनी जेब से रूमाल निकाल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा “सॉरी क्यों? तुम्हारी जगह मैं होता तो मैं भी यही सोचता। चलो! कुछ अपने बारे में बताओ..तुम यहाँ किसके साथ…मेरा मतलब तुम्हारे पति?”
“हमने एक-दूसरे का इंतज़ार करने का वादा किया था आदित्य!” माया ने आदित्य के रुमाल से अपने चेहरे को पहले की तरह ही पोंछते हुए कहा जैसे दोनों के बीच कुछ ना बदला हो।
“फिर भी इतना लंबा इंतज़ार…घरवालों ने कुछ कहा नहीं…मेरा मतलब…. वह कैसे मान गए?”
“कुछ याद नहीं आदित्य! बस तुम्हारा वादा याद रहा और सारे संघर्ष भूल चुकी हूँ!”
“तुम बिल्कुल नहीं बदली…अब भी रुमाल नहीं रखती हो!”
“तुम जो रखते हो!” आदित्य का रुमाल लौटाते हुए कहा तो दोनों खिलखिला कर हँस पड़े। पीछे खड़ी मारिया ने आकर दोनों के हाथ मिला दिये और कहा कि “पापा मैं तो मैम को देखते ही पहचान गयी थी। आपके वॉलेट में रखी इनकी तस्वीर मुझे याद थी। जब से इन्हें देखा तभी से आप दोनों को मिलाने की बात सोचती थी। इसी कारण बीमारी की बात कहकर आपको यहाँ बुलाया। चलिए! अब आप अच्छे वाले दोस्त बनकर अपना वादा निभाइए।”
यही तो दोनों की ख्वाहिश थी। इसी दिन के लिये इतना लंबा इंतज़ार किया। वादे से बंधे दोनों अपनी बेटी की मौजूदगी में ‘विशेष विवाह अधिनियम’ के तहत सदा के लिये विवाह-बंधन में बंध गये। इस विवाह में अलग बात बस इतनी थी कि बेटी अपने माँ-बाप के कोर्ट मैरिज की मुख्य गवाह बनी थी।

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