स्कूली बच्चों की पीठ पर लदा बोझा, उर्फ बस्ते, को देखता हूं तो मन यह सोचकर गद्गद हो जाता है कि आने वाले कल के नागरिकों की अच्छी ‘ट्रेनिंग हो रही है। आज बस्ते का भारी-भरकम बोझ तो कल देश का बोझ उठाएंगे। हमारी शिक्षा प्रणाली के भाग्य-विधाताओं को प्रणाम! दूर की सोचते हैं ससुरे। बच्चों के बचपन से ही मजदूरी की आदत डाल दो। अफसर-वैज्ञानिक-डॉक्टर न बन सके तो क्या, मालधक्के की हमाली तो कहीं नहीं गई।
नन्हे-नन्हे बच्चों पर पढ़ाई का इतना सारा बोझ लादने वाले स्कूलों के बारे में सोचा। जरूर इन स्कूलों में बच्चों के खेल और स्वास्थ्य को लेकर भी ढेर सारे इंतजाम होंगे। क्यों न कुछ स्कूलों का सर्वे कर आएं। अपने बच्चों का भी दाखिला किसी अच्छे (यानी कि महंगे!) स्कूल में करवा दें ताकि अंग्रेजी फटाफट बोल सकें और हमारी गुलाम छाती जुड़ा जाए।
हम पहुंच गए एक कॉन्वेंट स्कूल। अंदर घुसे तो लगा किसी ‘एमआईजी या ‘एचआईजी मकान में घुस आए हैं। भीतर कुछ बच्चे टहल रहे थे। हम समझ गए स्कूल ही है। सामने एक सज्जन ने मुझे देखते ही अंग्रेजी झाड़ी, ‘वैलकम, सर, इन अवर ग्रेट कॉन्वेंट स्कूल!
‘…क्या बोले भाई, धीरे-धीरे बोलो न! मैंने कहा।
‘महोदय, हमारे इस महान स्कूल में आपका स्वागत है। कॉन्वेंट स्कूल वाला समझा कि यह अड़हा-गंवार आदमी है। कहीं बाबू होगा। अपने बच्चे के एडमिशन के लिए आया है। बोला- ‘मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं, श्रीमान?
‘बच्चे का दाखिला करवाना है। मैंने कहा।
‘हो जाएगा। वह बोला।
‘अपने स्कूल की कुछ खासियतें तो बताइए। मेरे प्रश्न पर वह हंस पड़ा। बोला- ‘एक हो तो बताऊं। हजारों हैं, गिनाऊं?
‘अच्छा। मैंने पूछा- ‘बच्चों के स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए फस्र्ट-एड है?
वह बोले- ‘ये क्या बला है? हमने पूछा- ‘खेत का मैदान है। वह बोले- ‘हमारा तो नहीं है… हां, पड़ोस में, जहां भैंसे खेलती हैं, वहां हम भी बच्चों को ठेल देते हैं।
‘वाह-वाह, भैंसें और बच्चे एक साथ! ‘जानवर और इंसान फिल्म की शूटिंग होती है क्या उधर?
वे हंस पड़े, ‘मजाक अच्छा कर लेते हैं आप! इन ए कॉन्वेंट!
‘अच्छा, ये बताइए, ये छोटे-छोटे कमरे… इनमें मुश्किल से पच्चीस बच्चे ही बैठ सकते हैं, आप कितने बच्चे बैठाते हैं? मेरा प्रश्न था।
‘हम पचास बच्चों से ज्यादा एक क्लास में नहीं बैठाते, यह हमारा ‘रूल है? वह बोले।
‘लेकिन पच्चीस बच्चों वाली क्लास में आप पचास बच्चे बिठाकर तो ‘रूल तोड़ ही रहे हैं न। बच्चे कैसे बैठते होंगे भई?
वह हंसा- ‘वैरी सिम्पल, सर, वैरी सिम्पल। एक बच्चा दूसरे बच्चे की गोद में बैठता है।
‘ये क्या तमाशा है? इससे बच्चों को तकलीफ नहीं होगी?
मेरे प्रश्न पर वह फिर हंसने लगे और बोले- ‘नहीं भई, तकलीफ का तो खैर सवाल ही पैदा नहीं होता, इससे उनमें सद्भाव पनपता है और यही हमारे ‘न्यू ग्रेट कॉन्वेंट स्कूल का लक्ष्य भी है। वैसे कुछ कमरे सेकंड और थर्ड फ्लोर में निकालने की योजना है। फिर यह ‘गोद प्रथा समाप्त हो जाएगी। तब तक इन बच्चों में प्रेम और सद्भावना का वृक्षारोपण भी हो जाएगा।
उनके विचार को झेलते हुए गश आने लगा था। फिर भी थोड़ी पड़ताल और कर लेने की इच्छा रोक नहीं पाया। पूछा- ‘फीस कितनी लेते हैं?
वह खींसे निपोरने लगे- ‘फीस तो हम लेतेच्च नहीं। हां, बिल्डिंग रखरखाव के लिए दस-बीस हजार ले लेते हैं। जैसा जजमान, वैसा दान।
‘सारी कसर आप ‘डोनेशन में ही निकाल लेते हैं तो और काहे की फीस?
‘डोनेशन? अरे बाबा रे, ये आप क्या कह रहे हैं जी? वह बोले- ‘हम डोनेशन जैसे शब्दों के खिलाफ हैं। हम सहयोग राशि लेते हैं सहयोग राशि, आप कितनी राशि देंगे शिक्षा का विकास करने के लिए?
‘शिक्षा का विकास कि आपके पेट का विकास? मैंने थोड़ा गुस्से में कहा। वे घिघियाने लगे- ‘काहे को पेट में लात मारते हैं? पेट का विकास होगा, तभी तो हम शिक्षा का विकास कर सकेंगे। बच्चों पर ध्यान दे सकेंगे।
‘महोदय, बच्चों का नाम लेकर तो झूठ मत बोलिए। मैंने कहा, ‘आप लोगों का पूरा ध्यान लूटने में ही लगा रहता है। आपके यहां स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं, ठीक-ठाक कमरे नहीं हैं, खेल का मैदान नहीं है, तो आपके यहां है क्या?
‘तिजोरी है।
‘किसलिए?
‘अब आपसे क्या छिपाना, जो कमाई होती है, उसे जमा करने के लिए तिजोरी तो रखनी ही पड़ती है। तो आप कब ला रहे हैं अपने बच्चे को? वह बेहयायी के साथ पूछ बैठे। धंधे में बेहया होना पहली शर्त होती है। (हर धंधे की बात नहीं कर रहा हूं।)
मैंने कहा- ‘भर पाया श्रीमान, कोई दूसरा स्कूल देखूंगा मैं।
वह बोले- ‘अजी, हमसे बचकर कहां जाइएगा, जहां जाइएगा हमें पाइएगा, यानी कि हर जगह हमारे ही भाई-बंधु बैठे हैं।
‘तो मैं सरकारी स्कूल में भर्ती करवाऊंगा।
‘मतलब, आप अपने बच्चे के साथ खिलवाड़ करना चाहते हैं।
मैं सोच में पड़ गया, क्या करूं? इधर कुआं, उधर खाई, कहां जाऊं भाई! फिर निर्णय किया, सरकारी स्कूल तो लावारिसों जैसे हो गए हैं। वहां तो बर्बादी के आसार कुछ ज्यादा ही हैं। प्राइवेट स्कूल ही ठीक है भैया, थोड़ी बहुत पढ़ाई तो करते ही हैं ससुरे। लेकिन जिस ग्रेट कॉन्वेंट स्कूल को मैंने देखा, वहां तो बच्चे को भरती कराने का सवाल ही नहीं उठता।
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