तेरहवीं की दावत: गृहलक्ष्मी की कहानी: Stories in Hindi
Terhavi ki Dawat

Stories in Hindi: ‘भौजी, कैसे हैं भैया?’
‘तुम्हारे भैया की हालत में क्या परिवर्तन होना है? सावन सूखे न भादो हरे। जब तक जिएंगे बिस्तर पर ही रहेंगे।’
‘खर्चा पानी…?’ लच्छीराम ने पूछा।
‘तुम घड़ी-घड़ी क्यों पूछते हो? जब घर का कमाऊ आदमी लाइलाज बीमारी के कारण बिस्तर पर पड़ जाता है तब उस घर में फाके होते ही हैं। ऊपर से जवान बेटियों की चिंता अलग।’
‘तुम चिंता मत करो भौजी। ऊपर वाला जब एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है।’
‘मुझे तो कोई रास्ता नजर नहीं आता। उलटे तुम्हारे भैया की दवाएं भी बंद हो गई हैं। झूठी ही सही पर मन को तसल्ली तो थी कि इलाज चल रहा है। शायद कभी ठीक हो जाएं।’ कहती हुई पार्वती ने पल्लू से आंखें पोंछीं।
‘धैर्य रखो भौजी, मुझसे तुम्हारी यह हालत देखी नहीं जाती। बुरा न मानो तो एक बात कहूं।’ पार्वती ने कौतूहल से लच्छीराम की ओर देखा। ऐसी कौन सी बात कहना चाहता है जो बुरी लगे।
‘बुरा क्यों मानूंगी भैया, जो भी कहोगे हित में ही कहोगे।’
‘डर लगता है कहीं बुरा न मान जाओ। यदि अच्छी न लगे तो मेरी बात यहीं खत्म कर देना। मन में न रखना।’

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‘कुछ कहोगे भी या यों ही पहेलियां बुझाते रहोगे। विश्वास पूर्वक कहती हूं कि तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं मानूंगी।’


‘भौजी, तुम तेरहवीं पर किसी के घर दावत खाने जा सकती हो! बड़े आदमी हैं। उनकी पत्नी का देहांत हो गया है। मेरे परिचित हैं। किसी सुहागिन ब्राह्मïणी की व्यवस्था करने के लिए मुझसे कहा गया है। अचानक तुम्हारा ध्यान आ गया। अच्छा भला सामान मिलेगा। कुछ तो सहारा लगेगा।’
‘यह क्या कह दिया भैया। मैं किसी की तेरहवीं जीमने जाऊं और दान-दक्षिणा लूं, मुझसे यह सब नहीं होगा। फिर कोई जान-पहचान वाला मिल गया तो…?’

आप नहीं जाओगी तो कोई और चली जाएगी पहली बार जाने में संकोच होगा। वहां कोई जान-पहचान वाला नहीं मिलेगा। यदि कोई मिल भी जाए तो क्या कोई जान-पहचान वाले तुम्हारे पेट को रोटी देने आते हैं, कोई तुम्हारी खैर-खबर लेता है? सयानी होती तीन-तीन बेटियां हैं उन्हें घर में अकेली छोड़कर तुम भी तो कुछ नहीं कर सकती। एक बेटा भी होता तो सोच लेते।’
‘यह तो तुम ठीक कह रहे हो भैया, पर मुझे बड़ा संकोच हो रहा है।’
‘संकोच को छोड़ो भौजी, वहां तुम किसी की तरफ मत देखना। माथे तक घूंघट कर लेना। वे अपने रीति-रिवाज अपनी तरह से करते रहें, बस तुम चुपचाप देखती रहना’ लच्छीराम ने समझाया।
‘तुम तो वहीं रहोगे न!’ पार्वती ने हिम्मत की।
‘मेरे रहने न रहने से तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा?’
‘तुम रहोगे तो थोड़ी हिम्मत बनी रहेगी’ पार्वती ने किसी मासूम बच्चे की तरह लच्छी राम का दामन थामना चाहा।
‘भाभी रहूंगा तो वहीं, पर इतना बड़ा ब्रह्म भोज है, पता नहीं लालाजी कौन सा काम सौंप दें।’
‘हां, यह तो तुम ठीक कहते हो, पर घर तक तो तुम छोड़ोगे न। इन लड़कियों से क्या कहूं कि कल कहां जाऊंगी।’ पार्वती ने फिर सवाल उछाला।
‘क्या हो गया है भौजी, इतना डर क्यों रही हो? क्या कभी कहीं दावत खाने नहीं गईं। कुछ भी कह देना बच्चों से। घंटे भर की तो बात है। सोचना किसी संबंधी के यहां जा रहे हैं। बस जरा कपड़े ढंग के पहन लेना। समय पर लेने आ जाऊंगा। तो बात पक्की समझूं?’
‘अब तुमने भैया न कि गुंजाइश कहां छोड़ी है?’
अगले दिन तक पार्वती संकोच और आशंका से घिरी रही। किसी भी काम में मन नहीं लगा। नींद भी ठीक से नहीं आई। बार-बार मन हुआ कि मना कर दे। मृतका की जगह उसे बिठाकर पाठ-पूजा करेंगे और कुछ सामान देकर हमेशा के लिए विदा कर देंगे। क्या वहां से मिले सामान को संभाल पाएगी? क्या वह सामान उसे मृतका की याद नहीं दिलाएगा? लेकिन मृतका को तो उसने कभी देखा ही नहीं है। फिर मन में तर्क उठा कि उसके ना जाने से उन्हें क्या फर्क पड़ेगा, वह किसी और को बुला लेंगे।
निश्चित समय पर आकर लच्छीराम पार्वती को अपने साथ ले गया।
इतनी बड़ी कोठी, कोठी के बाहर चमचमाती गाड़ियों की लाइन और गाड़ियों से उतरते बड़े-बड़े लोगों को देखकर पार्वती का संकोच और भी बढ़ गया। लच्छीराम ने समय की नजाकत को समझा और पार्वती के कान में फुसफुसाया, ‘इधर-उधर मत देखो भौजी वरना जी घबराता रहेगा।’
तभी लच्छीराम की नजर लालाजी पर पड़ी। लच्छीराम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘पंडिताइन जी आ गईं लालाजी।’

लालाजी ने अपने पास खड़े पुत्र को इशारा किया। वह ससम्मान पार्वती को अंदर तक ले गया। अंदर अरष्टि का हवन अभी-अभी संपन्न हुआ था और ब्राह्मण भोज की व्यवस्था चल रही थी। बहुओं ने पार्वती को चौकी पर बिठा दिया। ब्राह्मणों के साथ ही पार्वती को नए बर्तनों में खाना परोसा गया। मनुहार करके खिलाया गया। एक बहू झूठी थाली उठाकर ले गई। बर्तन धो-धाकर प्लास्टिक की थैली में डाल दिए गए। ब्राह्मण भोजन कर चुके तो पार्वती को लोहे के नए फोल्डिंग पलंग पर बिठाया गया। पलंग पर बिस्तर लगा था। रजाई-गद्दा, चादर, दो तकिए, कंबल, दरी, तौलिया, प्लास्टिक की बाल्टी, जग, साबुन, तेल, शैंपू, चटाई, एक डिब्बे में पांचों कपड़ों सहित साड़ी और कार्डिगन तथा ढेरों सामान रखा था।
लालाजी की दोनों बहुओं ने मिलकर पार्वती को साड़ी, बिछुए और पायल पहनाई। पैरों में महावर लगाया। मांग में सिंदूर डाला, हाथों में मेहंदी रचाई, माथे पर बिंदी लगा नाखूनों पर नेल पॉलिश लगाई। कलाइयों में नई चूड़ियां पहनाई। मेकअप बॉक्स में साड़ी पिन, क्रीम पाउडर, कंघा, शीशा, लिपस्टिक आदि रखे थे। सिर पर ऊनी शॉल ओढ़ाया, उसे पलंग पर बिठाकर बहू-बेटे पलंग को उठाकर पांच कदम चले। बड़े बेटे ने गले में सोने की चैन पहनाई, छोटे बेटे ने एक लिफाफे में रुपये रख कर दिए। फिर परिवार की जितनी भी बहुएं थी सभी ने इक्कीस-इक्कीस रुपये पार्वती की गोद में रखकर उसके पैर छुए। पार्वती सब चुपचाप देखती रही।

दस-दस किलो आटा, दाल, चावल, घी, तेल, चीनी और ग्यारह परोसे एक टोकरी में रख सारे सामान के साथ पार्वती को एक रिक्शा में बैठा कर विदा कर दिया गया। रिक्शा के पैसे भी लाला जी के नौकर ने दे दिए।
रिक्शा जब पार्वती के घर के दरवाजे पर रुका तब पार्वती की तंद्रा भंग हुई। उसने झट हाथ में पकड़ा रुपयों का लिफाफा और गले में पहने सोने की चैन ब्लाउज में डाल ली। फिर दरवाजा खटखटाया। बड़की ने दरवाजा खोला और मां को इतने सामान के साथ देख कर चिल्ला पड़ी, ‘कहां गई थी मां?’
‘बाद में बताऊंगी, पहले सामान अंदर रख।’
कहां संकोच बस जिस सामान की ओर नजरे नहीं उठ रहीं थी, पार्वती अब उस सामान को एक-एक कर उठाकर देखने लगी। सोचा, इतने दिन निकल गए घर में गर्म कपड़े मयस्सर नहीं हुए। रजाई-गद्दे भी नाममात्र के बचे थे। चलो सर्दी आराम से कट जाएगी।
‘अम्मा शाल तो मैं लूंगी’ बड़की ने मां के कंधे से शाल उतारी।
‘और यह कार्डीगन मैं’ मंझली डिब्बे से कार्डीगन निकालती चहकी।
‘अम्मा तुम्हारी साड़ी तो बहुत सुंदर है। लगता है आज ढेरों दहेज के साथ ससुराल आई हो। पता तो चले कहां से हाथ मारा है? क्या कोई लॉटरी निकली है?’
‘ओहो यह पायल, यह बिछुआ, आज कहां हाथ मारा है? ये नेल पॉलिश आखिर कहां गई थीं अम्मा?, बड़की ने पार्वती पर आश्चर्य से नजर डालते हुए पूछा।
खाट पर पड़ा फालिस का मारा पार्वती का पति भी गां-गां की आवाज निकालने लगा
‘तुम तो चुपचाप लेटे रहो। सांस लेने दो। अभी सब बताती हूं।’ अपने पति से कहती हुई पार्वती ने पुकारा ‘मंझली बड़की पहले सारा सामान अंदर रखो कोई देख लेगा।’
अब पार्वती को चिंता सताने लगी। दहेज ही तो है सब। यह सब बड़की के विवाह में दे दूंगी। लड़के वाले कब से कह रहे हैं। पैसा पास ना होने से अभी तक टालती आ रही हूं।
उसने दरवाजा बंद कर ब्लाउज से रुपयों का लिफाफा निकाला पूरे ढाई हजार रुपये और सोने की जंजीर। जंजीर को हथेली पर रखकर अंदाज किया दो तोले की तो होगी ही। ख्याल आ गया गले में काला धागा बांधने के अलावा कभी कोई गहना पहना ही नहीं। अब क्या पहनूंगी? बड़की को ही दे दूंगी। एक-एक चीज उतार-उतार कर अटैची में संभाल कर रखती जाती।
अभी तो पैर छूने पर मिले रुपये गिनने हैं। पूरे पांच सौ है। यानी कुल मिलाकर पूरे तीन हजार। मन में डर सा लगा। लच्छीराम को सोने की जंजीर और ढाई हजार रुपये के बारे में नहीं बताएगी। कहीं मांग ही ना ले। केवल पांच सौ ही दिखाएगी। उसे कुछ ही पल में मिले सामान से मोह हो आया। कहीं कोई उसकी निधि ना छीन ले।
सोचा लच्छीराम को सामान दिखा कर संभाल कर रख लेगी। जाते समय कितना संकोच हो रहा था। एक साथ इतना सामान उसने अपने जीवन में तब भी नहीं देखा था जब बड़की का बापू नौकरी करता था। यदि ऐसे ही न्योते मिलते रहे तो तीनों बेटियों के हाथ आराम से पीले कर देगी।
इधर बड़की को कहां चैन था। पार्वती को फिर से झिंझोड़ा, ‘बताओ ना मां, कहां गई थी?’
‘एक जगह तेरहवीं में खाना खाने गई थी।’
‘तेरहवीं में खाना खाने में इतना सामान मिलता है। फिर तो मां तुम रोज तेरहवीं में जाना। हाय कितनी गरम-गरम कचोरिया हैं, लड्डू और यह सब्जी, यह रायता, बड़की फटी-फटी आंखों से देख सोचने लगी कि कितना समय हो गया कभी ढंग का खाना तो क्या पेट भर खाना भी नहीं मिला। तीनों लड़कियां जल्दी-जल्दी चटखारे ले लेकर खाने लगी।
पार्वती तृप्ति के भाव से उन्हें देखने लगी। आंखें टपकाने लगीं। कई महीने का राशन पानी घर आ गया था। अब कोई भूखा नहीं रहेगा। बड़की के बापू की भी थोड़ी दवा करा लेगी। मन में सोचा, सौदा बुरा नहीं है।
शाम को लच्छीराम आया, ‘कैसा रहा भौजी? अब तो कोई संकोच नहीं है ना।’
‘नहीं भैया, तुमने तो जीने की राह बता दी’ कहकर, पार्वती उससे सामान देख लेने का आग्रह करने लगी।
‘भौजी सामान क्या देखूं। मुझे मालूम है क्या-क्या मिला है। इस बार सब सामान तुम्हीं रखो। पहली पहली बार मिला है। आगे से पच्चीस परसेंट मेरा होगा। बोलो मंजूर है’ लच्छीराम हंसा।
‘चाचा तुमने तो हम सब की दावत करा दी। आपकी लंबी उम्र हो और सबको आप जैसे चाचा मिलें।’
‘बस-बस क्यों इतना मक्खन लगा रही है? बल्कि मैं तो हमेशा तुम लोगों के लिए ही सोचता हूं। अपने ही अपनों के काम आते हैं।’ कहते हुए लच्छी राम ने बड़की के सिर पर हाथ फेरा।
‘तुम्हारी बात क्या टाल सकती हूं भैया! ठीक ही कहा था तुमने कि ऊपर वाला एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है। हम तो तुम्हारे कारण ही जी जाएंगे। फिर भी कुछ तो लेते जाओ भैया।’पार्वती ने जिद्द कर थोड़ा सा खाना बांध दिया।
लच्छीराम ने एक कचोरी उठाई। मुंह से काटी और दांतो से चबाते हुए पार्वती की ओर देखने लगा तो पार्वती बोली, ‘ऐसे क्या देख रहे हो भैया?’
‘आज तो खूब जच रही हो भौजी, मन करता है देखता ही रहूं। अब भैया तो तुम्हारी तारीफ करने लायक रहे नहीं। मुझे ही करने दो, सदा सुहागन रहो भौजी’ लच्छीराम ने दांत निपोर दिए उसके अंदर का भेड़िया करवट लेने लगा।