prerana - munshee premachand
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मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश से ज्यादा ऊधमी कोई लड़का न था। बल्कि यों कहो कि अध्यापन-काल के दस वर्षों में मुझे ऐसी विषम प्रकृति के शिष्य से साबिक़ा न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने, उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ही उसे आनंद आता था। ऐसे-ऐसे षड्यंत्र रचता, ऐसे-ऐसे फदें डालता, ऐसे-ऐसे मंसूबे बाँधता कि देखकर आश्चर्य होता था। गिरोहबंदी में अभ्यस्त था।

खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आंतक से शाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाए, मगर क्या मजाल कि कोई उसके हुक्म की अवज्ञा कर सके। स्कूल के चपरासी और अर्दली उससे थर-थर काँपते थे। इंस्पेक्टर का मुआयना होने वाला था। मुख्य अधिष्ठाता ने हुक्म दिया कि लड़के निर्दिष्ट समय से आधा घंटा पहले आ जाएँ। मतलब यह था कि लड़कों को मुआयने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जाएँ। मगर दस बज गए, इंस्पेक्टर साहब आकर बैठ गए और मदरसे में एक लड़का भी नहीं। ग्यारह बजे सब छात्र इस तरह निकल पड़े, जैसे पिंजड़ा खोल दिया हो। इंस्पेक्टर साहब ने कैफियत में लिखा-डिसिप्लिन बहुत खराब है। प्रिंसिपल साहब की किरकिरी हुई, अध्यापक बदनाम हुए और यह सारी शरारत सूर्यप्रकाश की थी। मगर बहुत पूछताछ करने पर किसी ने सूर्यप्रकाश का नाम तक नहीं लिया। मुझे अपनी संचालन- विधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कॉलेज में इस विषय में मैंने ख्याति प्राप्त की थी। मगर यहाँ मेरा सारा संचालन-कौशल मोर्चा खा गया था। कुछ अक्ल ही काम नहीं करती कि शैतान को कैसे मार्ग पर लाएँ। कई बार अध्यापकों की बैठक हुई, पर यह गिरह न खुली। नई शिक्षा विधि के अनुसार मैं दंड-नीति का पक्षपाती न था, मगर हम यहां इस नीति से केवल विरक्त थे कि कहीं उपचार रोग से असाध्य न हो जाएं। सूर्यप्रकाश को स्कूल से निकाल देने का प्रस्ताव भी किया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर हम इस नीति का व्यवहार करने का साहस न कर सके। बीस-बाईस अनुभवी और शिक्षण-शास्त्र के आचार्य एक बारह-तेरह साल के उद्दंड बालक का सुधार न कर सके, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था। यों तो सारा स्कूल उससे त्राहि-त्राहि करता था, मगर सबसे ज्यादा संकट मुझे भोगना पड़ता था। मैं स्कूल आता तो हरदम यही खटका लगा रहता था कि देखेें आज क्या विपत्ति आती है। एक दिन मैंने अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा मेंढक निकल पड़ा। मैं चौंककर पीछे हटा, तो क्लास में एक शोर मच गया और वह पट्ठा सिर झुकाए नीचे मुस्कुरा रहा था। मुझे आश्चर्य होता था कि यह नीचे की कक्षाओं में कैसे पास हुआ! एक दिन मैंने गुस्से से कहा- ‘तुम इस कक्षा से उम्र भर नहीं पास हो सकते।’ सूर्यप्रकाश ने अविचलित भाव से कहा- ‘आप मेरे पास होने की चिंता न करे। मैं हमेशा पास हुआ हूँ और अब भी हो जाऊँगा।’

‘असंभव’।

‘असंभव संभव हो जाएगा।’

मैं साश्चर्य उसका मुँह देखने लगा। ज़हीन-से-ज़हीन लड़का भी अपनी सफलता का दावा इतने निर्विवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा, वह प्रश्न-पत्र उड़ा लेता होगा। मैंने प्रतिज्ञा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने दूँगा। देखूं कितने दिन इस कक्षा में पड़ा रहता है। आप घबड़ाकर निकल जाएगा।

वार्षिक परीक्षा के अवसर पर मैंने असाधारण देखभाल से काम लिया, मगर जब सूर्यप्रकाश का उत्तर-पत्र देखा, तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। मेरे दो पर्चे थे, दोनों में ही उसके नंबर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझे खूब मालूम था कि वह मेरे किसी पर्चे का कोई भी प्रश्न हल नहीं कर सकता। मैं इसे सिद्ध कर सकता था। मगर उसके उत्तर-पत्रों को क्या करता? लिपि में इतना भेद न था, जो कोई संदेह उत्पन्न कर सकता। मैंने प्रिंसिपल से कहा, तो वह भी चकरा गए, मगर उन्हें भी जान-बूझकर मक्खी निगलनी पड़ी। मैं कदाचित स्वभाव से ही निराशावादी हूँ। अन्य अध्यापक को मैं सूर्यप्रकाश के विषय में जरा भी चिंतित न पाता था। मानो ऐसे लड़कों का स्कूल में आना कोई नई बात नहीं, मगर मेरे लिए वह एक विकट रहस्य था। अगर यही ढंग रहे, तो एक दिन वह या तो जेल में होगा या पागलखाने में।

उसी साल मेरा तबादला हो गया। यद्यपि यहाँ की जलवायु मेरे अनुकूल थी, प्रिंसिपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री हो गई थी, मगर मैं अपने तबादले से खुश हुआ, क्योंकि सूर्यप्रकाश मेरे मार्ग का काँटा न रहेगा। लड़कों ने मुझे विदाई की दावत दी, और सबके सब स्टेशन तक पहुँचाने आए। उस वक्त सभी लड़के आँखों में आँसू भरे हुए थे। मैं भी अपने आँसुओं को न रोक पाया। सहसा मेरी निगाह सूर्यप्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लज्जित खड़ा था। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आँखें भी भीगी थी। मेरा जी बार-बार चाहता था कि चलते-चलते उससे दो-चार बात कर लूँ। शायद वह भी मुझसे कुछ कहना चाहता था, मगर न मैंने पहले बातें की, न उसने; हालाँकि मुझे बहुत दिनों तक इसका खेद रहा। उसकी झिझक तो क्षमा योग्य थी, मेरा अवरोध अक्षम्य था। संभव था, उस करुणा और ग्लानि की दशा में मेरी दो-चार निष्कपट बातें उसके दिल पर असर कर जाती, मगर इन्हीं खोए हुए अवसरों का नाम तो जीवन है। गाड़ी मंद गति से चली। लड़के कई कदम उसके साथ दौड़े। मैं खिड़की से बाहर सिर निकाले खड़ा था। कुछ देर तक मुझे उनके हिलते हुए रूमाल नजर आए। फिर वे रेखाएँ आकाश में विलीन हो गई। मगर एक अल्पकाय मूर्ति अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी। मैंने अनुमान किया, वह सूर्यप्रकाश है। उस समय मेरा हृदय किसी विकल कैदी की भांति घृणा, मालिन्य और उदासीनता के बंधनों को तोड़-तोड़कर उससे गले मिलने के लिए तड़प उठा।

नए स्थान की नई चिंताओं ने बहुत जल्दी मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया। पिछले दिनों कीं याद एक हसरत बनकर रह गई। न किसी का कोई खत आया, न मैंने कोई खत लिखा। शायद दिनों का यही दस्तूर है। वर्षा के बाद वर्षा की हरियाली कितने दिनों रहती है? संयोग से मुझे इंग्लैंड में विद्याभ्यास करने का अवसर मिल गया। वहाँ तीन साल लग गए। वहाँ से लौटा, तो एक कॉलेज का प्रिंसिपल बना दिया गया। यह सिद्धि मेरे लिए बिलकुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दूर नहीं उड़ी थी, किंतु पद-लिप्सा अब किसी और भी ऊँची डाली पर आश्रय लेना चाहती थी। शिक्षामंत्री से रब्त-जब्त पैदा किया। मंत्री महोदय मुझ पर कृपा रखते थे, मगर वास्तव में शिक्षा के मौलिक सिद्धांतों का उन्हें ज्ञान न था। मुझे पाकर उन्होंने सारा भार मेरे ऊपर डाल दिया। घोड़े पर सवार वह थे, लगाम मेरे हाथ में थी फल यह हुआ कि उनके राजनीतिक विपक्षियों से मेरा विरोध हो गया। मुझ पर जा-बेजा आक्रमण होने लगे। मैं सिद्धांत रूप से अनिवार्य शिक्षा का विरोधी हूं। मेरा विचार है कि हर एक मनुष्य को उन विषयों में ज्यादा स्वाधीनता होनी चाहिए, जिसका उससे निज का संबंध है। मेरा विचार है कि यूरोप में अनिवार्य शिक्षा की जरूरत है, भारत में नहीं। भौतिकता पश्चिमी सभ्यता का मूल तत्व है। वहाँ किसी काम की प्रेरणा आर्थिक लाभ के आधार पर होती है। जिंदगी की जरूरतें ज्यादा है, इसलिए जीवन-संग्राम भी अधिक भीषण है। माता-पिता भोग के दास होकर बच्चों को जल्द-से -जल्द कुछ कमाने पर मजबूर करते हैं। इसकी वजह है कि वह मद का त्याग करके एक शिलिंग रोज बचत कर लें, वे अपने कमसिन बच्चे को एक शिलिंग की मजदूरी करने के लिए दबाएंगे। भारतीय जीवन में सात्विक सरलता है। हम उस वक्त तक अपने बच्चों से मजदूरी नहीं कराते, जब तक परिस्थिति हमें विवश न कर दे। दरिद्र-से-दरिद्र हिंदुस्तानी मजदूर भी शिक्षा के उपकारों का कायल है। उसके मन में यह अभिलाषा होती है कि मेरा बच्चा चार अक्षर पढ़ जाए। इसलिए नहीं कि उसे कोई अधिकार मिलेगा, बल्कि केवल इसलिए कि विद्या मानवी शील का श्रृंगार है। अगर यह जानकर भी वह अपने बच्चे को मदरसे नहीं भेजता, तो समझ लेना चाहिए कि वह मजबूर है। ऐसी दशा में उस पर कानून का प्रहार करना मेरी दृष्टि में न्याय-संगत नहीं है। इसके सिवाय मेरे विचार में अभी हमारे देश में योग्य शिक्षकों का अभाव है। अर्द्धशिक्षित और अल्पवेतन पाने वाले अध्यापकों से आप यह आशा नहीं कर सकते है कि वह कोई ऊँचा आदर्श अपने सामने रख सकें। अधिक-से-अधिक इतना ही होगा कि चार-पाँच वर्ष में बालक को अक्षर का ज्ञान हो जाएगा। मैं इसे पर्वत खोदकर चुहिया निकालने के तुल्य समझता हूँ। वयस प्राप्त हो जाने पर यह मामला एक महीने में आसानी से तय किया जा सकता है। मैं अनुभव से कह सकता हूँ कि युवावस्था में हम जितना ज्ञान एक महीने में प्राप्त कर सकते है, उतना बाल्यकाल में तीन साल में भी नहीं कर सकते, फिर ख़ामख्वाह बच्चों को मदरसे में कैद करने से क्या लाभ? मदरसे के बाहर रहकर स्वच्छ वायु तो मिलती, प्राकतिक अनुभव तो प्राप्त होते। पाठशाला में बंद करके तो आप उसके मानसिक और शारीरिक दोनों विधानों की जड़ काट देते है। इसलिए जब प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा में अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव पेश हुआ, तो मेरी प्रेरणा से मिनिस्टर साहब ने उसका विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया। फिर क्या था? मिनिस्टर साहब और मेरी वह ले-दे हुई कि कुछ न पूछिए। व्यक्तिगत आक्षेप किए जाने लगे। मैं गरीब की बीवी था, मुझे ही सबकी भाभी बनना पड़ा । देशद्रोही, उन्नति का शत्रु और नौकरशाही का गुलाम कहा गया। मेरे कॉलेज में जरा-सी भी कोई बात होती तो कांउन्सिल में मुझ पर वर्षा होने लगती। मैंने चपरासी को पृथक किया। सारी कॉउन्सिल पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई। आखिर मिनिस्टर को मजबूर होकर उस चपरासी को बहाल करना पड़ा। यह अपमान मेरे लिए असह्य था। शायद कोई भी इसे सहन न कर सकता। मिनिस्टर साहब से मुझे शिकायत नहीं। वह मजबूर थे। हां, इस वातावरण में काम करना मेरे लिए दुःसाध्य हो गया। मुझे अपने कॉलेज के आंतरिक संगठन का भी अधिकार नहीं। अमुक क्यों नहीं परीक्षा में भेजा गया? अमुक के बदले अमुक को क्यों नहीं छात्रवृत्ति दी गई। अमुक अध्यापक को अमुक कक्षा क्यों नहीं दी जाती है? इस तरह के सारहीन आक्षेपों ने मेरी नाक में दम कर दिया। इस नई चोट ने कमर तोड़ दी। मैंने इस्तीफा दे दिया।