टारगेट—गृहलक्ष्मी की कहानियां
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Kahani in Hindi: अंशिका कई साल बाद मायके आई थी। भाई के बेटे की शादी थी । इस मौके को पूरी तरह जीने के लिए अपनों से मिलने की उत्सुकता में वह पागल हो रही थी। यहां पहुँचे लोगों में कोई कुशल क्षेम पूछ रहा था तो कोई बहुत दिन बाद मिलने की शिकायत सुना रहा था। अंशिका मुस्कुरा कर सबकी शिकायतें सुन रही थी। वह हंसी- खुशी कुछ पल सब के साथ बिताना चाह रही थी।
ऐसे स्वभाव से उसे शोरगुल कभी पसंद नहीं रहा। मुश्किल समय को भी हंस कर बिताना जानती थी। वह अपने समय में मेघावी छात्रा थी। अपने कक्षा में हमेशा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होती थी। आधुनिक रंग रूप उसे कभी भी आकर्षित नहीं करता था। वह हमेशा अपने रंग में रंगी रहती। हर कुछ नया और सहजता के साथ करना उसकी पहचान थी। अंशिका के इस स्वभाव से कुछ जलते तो कुछ उससे प्रभावित होते थे। अंशिका के ऊपर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अपने जीवनकाल में ऐसे दुष्कर समय देखी थी जिससे धैर्य और संयम बनाये रखना उसका स्वभाव बन चुका था।
शादी के दिन अचानक उसकी नजर एक भारी भरकम बेडौल से छोटे कद वाले एक व्यक्ति पर पड़ी।पहचानने में उसे देर नहीं लगी। अंशिका पूछ बैठी,
“ कहो पारस कैसे हो तुम? “
“भला चंगा हूँ।”
“ वो तो दिख रहा!” भीनी मुस्कान के साथ अंशिका बोली।
तंज़ भरी आवाज में पारस पूछ बैठा ” और तुम! क्या कर रहीं आजकल?”
अंशिका सकपका गई। “अभी तो तुम्हारे समक्ष खड़ी हूँ।”
पारस ने अपनी बातों को संभालते हुए कहा , “ अरे! नहीं ,नही । ऐसा कुछ नहीं। “
“तो तुम ही बताओ क्या जानना चाहते हो।”
“ बस यही कि स्कूल वाले अच्छे मार्क्स जीवन में काम आए या नहीं। कोई पद प्रतिष्ठा मिली या बस तरह तरह का अंचार डाल लोगों के थाली में परोस कर खुश हो।”

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“ खुशी से तुम्हारा मतलब क्या है समझी नहीं।”
“ अरे बाप! अब खुशी का मतलब भी समझाना होगा। तुम्हारी वेश भूषा देख तो यही लगा कि अच्छे मार्क्स काम नहीं आए। मुझे तुमसे बहुत कम मार्क्स आते थे।लेकिन मेरी खुशी, मेरी जिंदगी का सुख देखो। मेरे पास महँगी गाड़ी, बड़े शहरों में अपना घर है। हर भौतिक सुख सुविधाओं का लुत्फ चुटकियों में जब चाहूँ तब उठा सकता हूं। अब तुम खुद समझ लो खुशी का मतलब।”
पारस की मूर्खता पर अंशिका तरस खा रही थी। सोच रही थी मुझे नीचे दिखाने में यह कितना गिरा जा रहा है। इस सोच में वह डूबी ही थी कि पारस ने दूसरा प्रश्न छोड़ दिया,
“ चलो छोड़ो! ये बताओ अपने बच्चे के बारे में क्या सोचा हैं,क्या बनाना चाहती हो ?बुरा मत मानना । अपना हूँ इसलिए पूछ रहा हूँ।”
“ देखो पारस। कोई किसी को बनाता नहीं। जिसे जो बनना होता है,वह खुद बनता है। अब तुम ही देख लो तुममें और तुम्हारे पिताजी में कितना अंतर है। वह सहिष्णुता के मूर्ति हैं और तुम?”
“ लगता है स्कूली नंबर वाला गुमान तुम्हारा खत्म नहीं हुआ अंशिका। मैं तो बस पूछा बच्चो को क्या बनाओगी। कुछ तो टारगेट रखा होगा मन में। इतनी सी बात पर तुम लगी लेक्चर देने।”
“ मेरा टारगेट बच्चों को मनुष्य बनाना है पारस । ऐसा मनुष्य जो लोगों के साथ वाद -विवाद का अंतर समझें। पद प्रतिष्ठा का क्या हैं ,यह तो मिलते और छीनते रहते हैं।”
अंशिका का जवाब सुन बुत बना पारस उसे निहार सोच रहा था, आज फिर हार गया इसके समक्ष।