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गृहलक्ष्मी की कहानियां - कान्हा
Stories of Grihalakshm

गृहलक्ष्मी की कहानियां – ” ये सुबह सुबह किसका फोन होगा…? इस वक्त तो सांस लेने तक की फुर्सत नहीं होती ऊपर से यह फोन किसी भी वक्त घनघना उठता है.चिराग के स्कूल बस का टाइम हो रहा है उसका टिफिन पैक करना है, प्रशांत के ऑफिस निकलने से पहले उनका लंच भी तो रेडी करना है और यह फोन….”

           सुचारिता अभी यह सब कहती हुई  डायनिंग टेबल तक पहुंची ही थी कि प्रशांत ने फोन उठा लिया.फोन पर बातों के दौरान प्रशांत के माथे पर पड़ते बल और उसके चेहरे के बदले रंग और हाव-भाव से सुचारिता को अंदेशा हो गया कि फोन  अवश्य उसकी अपनी बहन रूचि के पति, उसके देवर और प्रशांत के छोटे भाई सुबोध का बनारस से होगा.दोनों चचेरी बहनों का ब्याह एक ही घर में जो हुई थी. 

           पिछले दो वर्षों से रूचि की तबियत ख़राब चल रही थी.वह गर्भाशय के कैंसर से जूझ रही है. किसी अनहोनी के भय से सुचारिता सुबह की व्यवस्था भूल वहीं खड़ी हो प्रशांत के बातों के समाप्त होने का इंतज़ार करने लगी.

           उसका संशय सही निकला. प्रशांत के फोन रखते ही जब सुचारिता सवालिया निगाहों से प्रशांत की ओर देखने लगी. प्रशांत उसे इस प्रकार अपनी ओर देखता देख उसके समीप जा लंबी सांस लेता हुआ उसके कांधे पर अपना हाथ रखते हुए बोला-

          “सुबोध का फोन था.समय आ गया है चिराग को सच बताने का, पैकिंग कर लो हमें बनारस निकलना होगा और इस बार वहां कुछ दिन रूकना भी होगा “.

          ” नहीं….. ” सुचारिता जोर से चीखी और प्रशांत का हाथ अपने कांधे से झटक रोने लगी फिर स्वयं को थोड़ा संभालती हुई बोली-

          ” तुम सुबोध को मना कर दो. कह दो हम नहीं आ पाएंगे. चिराग का इस साल 12 वीं बोर्ड है और हम उसे डिस्टर्ब नहीं कर सकते या फिर कुछ और बहाना बना दो, लगे तो कुछ रूपए पैसे भेज दो लेकिन मैं अपने बेटे को ले कर वहां उन लोगो के पास नहीं जाऊंगी “

          “यह तुम क्या कह रही हो, रूचि तुम्हारी बहन है.उसने हमारे लिए क्या कुछ नहीं किया और यह मत भूलो कि तुम  उस परिवार की बड़ी बहू हो.इस वक्त उन्हें रूपए की नहीं हमारी ज़रूरत है पूरे परिवार को हमारी ज़रूरत है और तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो”

          “मुझे कुछ याद दिलाने की जरूरत नहीं किसने मेरे लिए क्या किया मुझे सब ज्ञात है और हां…. मैं हूं स्वार्थी अपने बेटे के लिए स्वार्थी क्या मैं कुछ भी बन सकती हूं” कहती हुई सुचारिता वहीं सोफे पर धड़ाम से बैठ गई.

          प्रशांत भी उसके करीब जा बैठा और सुचारिता को अपनी बांहों में भरते हुए बोला- 

          “अब बस भी करो….कब तक तुम यूं ही अपने आप को परेशान करती रहोगी.डर डर के जिओगी और सच्चाई से भागती रहोगी.सुबोध कह रहा था डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है रूचि लास्ट स्टेज पर है. उसके पास वक्त बहुत कम है कभी भी किसी भी वक्त….! तुम समझ रही हो ना मैं क्या कहना चाह रहा हूं.बस एक बार वह चिराग को देखना चाहती है और उसकी यह अंतिम इच्छा केवल तुम ही पूरी कर सकती हो”

          यह सुन सुचारिता प्रशांत की बांहों में बिफर पड़ी और उसकी नज़रों के सामने वह लम्हा दौड़ गया जब वह मायके जाने की तैयारी में थी और सुबोध उसके आगे पीछे मंडराने लगा, उसे इस प्रकार अपने आगे पिछे मंडराता देख सुचारिता ने सुबोध से कहा –

          “क्या हुआ कुछ चाहिए…?”

           उसके इतना कहते ही सुबोध ने उसके पैर छू लिए और कहने लगा –

            ” भाभी आप का आशीर्वाद चाहिए,यदि आप हां कह दें तो मेरी वीरान जिंदगी गुलज़ार हो जाएगी.”

         ” अरे… अरे…क्या कर रहे हो, साफ-साफ कहो जो कहना है.”

         “भाभी मैं आप की बहन रूचि से प्यार करता हूं और उससे शादी करना चाहता हूं बस आप का साथ चाहिए.”

         यह सुनते ही उसके मायके जाने की खुशी दोगुनी हो गई.जिस के संग वह बचपन में एक ही आंगन में खेल खुद कर बड़ी हुई थी वही बहन व सखी उसे फिर से देवरानी के रूप में मिल जाए तो उसे और क्या चाहिए और फिर सुबोध भी तो भाई के रुप में लक्ष्मण था जो अपने बड़े भैया प्रशांत की बातों को पत्थर पर खींची लकीर के समान मानता और उसका सम्मान करता. 

         उसने बिना विलंब किए बड़े बुजुर्गो को राज़ी कर लिया और सबके आशीष से उसी साल दोनों को परिणय-सूत्र में बांध दिया. दिन, महीने साल गुजरने लगे और देखते ही देखते रूचि की गोद में एक वर्ष के भीतर एक नन्ही परी खिलखिलाने लगी. कुछ सालों बाद दोबारा रूचि के आंचल में एक और कली मुस्कुराने लगी.

        सभी बहुत खुश थे.वह भी बड़ी मम्मी बन के फूले नही समां रही थी परंतु न जाने कैसे उसके दिल के किसी कोने में एक टीस अपना फन उठाने लगा.शादी के दस साल बाद भी उसकी कोख अब तक सूनी थी जिसकी वजह से आस पड़ोस,नाते रिश्तेदारों में तरह तरह की बातें होने लगी. निराश और उदासी ने उसे पूरी तरह से अपने गिरफ्त में ले लिया था.पहले जहां वह मायके जाने के लिए सदा उत्साहित रहती अब धीरे-धीरे उसका मन उचटने लगा.

        अब वह लोगों को मिलने से कतराने लगी थी.सभी से एक दूरी बनाने और खोई खोई सी गुमसुम रहने लगी. सुचारिता के  बर्ताव में हो रहे परिवर्तन से प्रशांत अनभिज्ञ नहीं था, बिना कुछ कहे ही प्रशांत उसके दिल का दर्द उसकी आंखों में पढ़ने लगा . प्रशांत कत‌ई नही चाहता था कि उसका यह दर्द नासूर बन जाए और उसके मन में सुलगता आग पूरे परिवार को जला दे इसलिए उसने किसी से कुछ कहे बिना अपना ट्रांसफर दिल्ली करवा लिया लेकिन यहां भी वह बुझी बुझी सी रहने लगी.

        बहुत इलाज़ के बाद भी निराशा ही हाथ लगी.असल में उसके दोनों ही फैलोपियन ट्यूब बंद थे. दो बार उस ट्यूब को खोलने के लिए आपरेशन भी किया गया परन्तु सफलता प्राप्त नहीं हो सकी.दो दफे आईवीएफ ट्रीटमेंट की असफलता ने उसे पूरी तरह से तोड़ दिया.

        प्रशांत ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की यहां तक वह बच्चा गोद लेने को तैयार हो गया लेकिन उसे तो बस अपना स्वयं का बच्चा चाहिए. उसके जिद को देखते हुए डाक्टर ने उन्हें सरोगेसी की सलाह दी. डाक्टर ने कहा “इस प्रक्रिया के माध्यम से जो बच्चा होगा वह जैविक रूप से उनका अपना होगा”. यह सुन वह फौरन मान गई.

          वह चाहती थी उसकी अपनी सगी छोटी बहन उसके लिए सरोगेसी मां बने लेकिन उसने साफ इन्कार कर दिया.प्रशांत ने जब सुबोध को सारी बातें बताई और सुबोध ने रुचि को तो रूचि बिना कुछ सोच विचार किए सुचारिता को मातृत्व सुख देने के लिए सरोगेसी मां बनने को सहर्ष तैयार हो गई.

          सारे टेस्ट एवं प्रक्रिया के पश्चात जब रुचि गर्भवती हुई सुचारिता उसे अपने संग दिल्ली चलने की जिद करने लगी, वह किसी भी प्रकार की जोखिम उठाने को तैयार नहीं थी.वह नहीं चाहती थी कोई भी छोटी सी लापरवाही से रूचि और आने वाले बच्चे को किसी भी प्रकार की कोई छति पहुंचे .

          रूचि की दोनों बेटियां उस वक्त छोटी ही थी इसलिए रूचि उन्हें छोड़ कर दिल्ली नहीं जाना चाहती थी लेकिन रूचि के लाख मना करने पर भी वह उसे अपने संग दिल्ली ले आई. वह रूचि के आराम का पूरा-पूरा ध्यान करती. दिन रात केवल उसकी सेवा में लगी रहती.

          दिन बीत गए और नौवें महीने में रूचि ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सुचारिता ने बड़े प्यार से चिराग रखा.अब तो सारा दिन वह धुरी की भांति चिराग के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती और साथ ही साथ वह इस प्रयत्न में भी लगी रहती कि किस प्रकार वह रुचि को चिराग से दूर रख सके. रूचि उसके मन में पनप रहे असुरक्षा की भावना को भांप गई और अपने ममता का गला घोंट सुबोध से कह बनारस लौट आई.

        सुचारिता हर वक्त इस बात को लेकर सजग रहती की कहीं कोई चिराग से यह ना कह दे कि उसको जन्म देने वाली मां रूचि है .इसलिए भी वह रिश्तेदारों से एक दूरी बनाए रखती.एक बार जब चिराग करीब सात आठ साल का था उसे किसी परिवारिक कार्यक्रम में बनारस जाना पड़ा   जहां किसी रिश्तेदार ने बातों बातों में यह कह दिया कि – 

        ” इसका नाम चिराग नहीं कान्हा होना चाहिए क्योंकि इसकी एक नही बल्कि भगवान कृष्ण की भांति दो दो मांएं है एक जिसने इसे जन्म दिया और दूसरी जो उसे पाल पोस के बड़ा कर रही है”

         यह सुनते ही वह आगबबूला हो उठी और फौरन कार्यक्रम छोड़ वहां से आ गई और कहने लगी-

         “आज के बाद वह फिर कभी बनारस नही आएंगी. सब ने उसे बहुत समझाया रूचि ने तो यह तक कह दिया वह कभी भी चिराग को अपना बेटा नहीं कहेगी उस पर कभी अपना हक नही जाताएगी और ना ही घर का कोई सदस्य चिराग को बताएगा कि उसकी जननी कौन है”.

         अभी सुचारिता यह सब स्मरण करती हुई प्रशांत की बांहों में रो ही रही थी कि वहां चिराग आ गया और कहने लगा-

         ” मम्मी हमें चाची को देखने के लिए बनारस चलना चाहिए और मैं जानता हूं आप मना नहीं करेंगी क्योंकि आप मेरी मां है जो कभी किसी को दुःख नही दे सकती और फिर आप ही ने तो सिखाया है दुनिया में परिवार से बढ़ कर कुछ नही होता. हमें अपने परिवार के साथ, अपनों के संग सदा हर परिस्थिति में खड़ा रहना चाहिए और चाची तो हमारे परिवार की हिस्सा है”

         चिराग ने उसे वो सबक याद दिला दिया जो वह इतने सालों से चिराग को तो सिखाती आ रही थी किन्तु स्वयं भूल चुकी थी.सुचारिता बनारस चलने को तैयार हो गई.

         बनारस पहुंचने के उपरांत जब सुचारिता परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रूचि के कमरे में दाखिल हुई तो उसने देखा बिस्तर पर लेटी रूचि बहुत कमजोर दिखाई दे रही है.चिराग को देखते ही वह मुस्करा उठी और चिराग जैसे ही उसके करीब गया उसे गले लगा रोने लगी. 

         कीमोथेरेपी की वजह से वह सूख  के कांटा हो चुकी थी.बाल सारे झड़ ग‌ए थे. यह देख सुचारिता की आंखों से आश्रुधार बहने लगे और वह भी उससे लिपट गई और कहने लगी-

          मुझे माफ कर दे मेरी बहन,मैं पुत्र मोह और अपने स्वार्थ में इतनी अंधी हो गई थी कि तेरा निश्छल प्रेम और दर्द देख ही नहीं पा‌ई.मैं तेरा यह कर्ज कैसे उतार पाऊंगी, अभी सुचारिता अपनी बात पूरी भी नहीं कर पा‌ई थी कि रूचि की सांसें थम गई और वह सभी मोह माया के बंधनों से मुक्त हो गई.

         रूचि की अंतिम विदाई की तैयारियां होने लगी.इसी बीच आवाज़ उठी रूचि को मुखाग्नि कौन देगा यह सुन सुचारिता बोली –

         ” मुखाग्नि चिराग देगा क्योंकि चिराग केवल मेरा ही बेटा नहीं रूचि का भी बेटा है.”