लवासे-21 श्रेष्ठ युवामन की कहानियां पंजाब: Stories in Hindi
Lawaase

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

Stories in Hindi: आतंकवाद चरम सीमा पर था। कश्मीर से हमारे रिपोर्टर ने अभी-अभी उसे रोंगटे खड़े कर देने वाले कांड के बारे में सूचित किया था। उस कांड के जितने दृश्य हमने यहां दिल्ली में बैठ कर देखे थे, वह हमारी रीढ़ की हड्डी को सुन्न करने के लिए काफी थे। एक पल के लिए न्यूज रूम के एक प्राइवेट कार्नर में बैठे हम सभी रिपोर्टर कांप गए थे। दरअसल जिस रिपोर्टर ने कश्मीर से ये सारी रिपोर्ट और दृश्य भेजे थे, वह भी उस भयानक बंब विस्फोट में बुरी तरह से घायल हो गया था। हमें मालूम हुआ, अन्य घायलों के साथ उसे भी स्थानीय अस्पताल ले जाया गया है। अब मसला यह था कि उस दहकती-झुलसती आग में दूसरा कौन सा कद्दावर सूरमा जाने के लिए तैयार होगा। वहां जाने का अर्थ था पीयूष की तरह डूयूटी निभाते-निभाते किसी भी समय उसके चीथड़े उड़ सकते थे। परन्तु हम तो देश के एक जिम्मेवार न्यूज चैनल के रिपोर्टर हैं। खतरों से खेलना हमारा कर्तव्य ही नहीं जुनून भी है। परन्तु अब कौन? यही सब सोचते हए, चैनल हैड के चेहरे से अगले संकेत जानने की कोशिश कर रहे थे। “गीतांजली…” चैनल हैड ने गोल मेज को घेरे बैठे आठ-दस लोगों से मेरी ओर अंगुली का इशारा करते हुए घोषणा की तो सभी अचंभित होकर मेरी ओर देखने लगे। कमरे में पल भर के लिए सन्नाटा फैल गया।

“गीतांजली, पीयूष की जगह पर तुम श्रीनगर जाओगी, हमारे चैनल की ओर से कवरेज करने के लिए।” चैनल हैड ने अपनी बात को फिर से दुहराया।

“मैं…? सर…मैं…?” मैं हैरान थी कि इतने सारे सीनियर और अनुभवी सहकर्मियों के होते हुए मेरा ही चयन क्यों किया गया था।

“तुमने अपने जीवन का काफी बड़ा हिस्सा श्रीनगर में गुजारा है। तुम वहां के हर स्थान, वहां के लोगों के विचारों और संस्कृति को जानती-समझती भी हो। इसलिए आज की स्थिति में तुम्हारा ही वहां जाना ठीक रहेगा। क्या ख्याल है तुम्हारा?”

“सर, जैसा आप ठीक समझें”, कहते हुए मैंने वहां बैठे अन्य साथियों की ओर देखा ताकि मुझे उनकी प्रतिक्रिया मालूम हो सके। लेकिन मेरे लिए कुछ भी समझना मुश्किल था। दरअसल सभी में से मुझे चुन कर, ऐसे अति मुश्किल हालातों में इतने मुश्किल काम के लिए भेजना, बॉस का मेरे प्रति विश्वास को प्रगट कर रहा था। पता नहीं मेरे कुलीग्स को मुझ पर इतना विश्वास किया जाना अच्छा लगा होगा कि नहीं। परन्तु बॉस ने बिना कोई परवाह किए, मुझे अगले ही दिन श्रीनगर रवाना होने की ताकीद कर दी।

अगले दिन की फ्लाईट से अपने कैमरामैन और अन्य टैक्नीशियनों के ग्रुप के साथ मैं श्रीनगर पहुंच गई। वहां एक बढ़िया होटल में हमारे रहने का बंदोबस्त था। ठहरने का स्थान मैंने खुद, अपनी मर्जी से ही पसंद किया था। नेहरू पार्क, डल झील के किनारे इस जगह से सचमुच मेरी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई थी। मगर उन यादों का आज के कश्मीर के साथ मुझे कोई मेल नजर नहीं आ रहा था। तब वहां के गुलजार और सब्जाजार कश्मीर में आज हर ओर आग की लपटें उठ रही थीं। जिस समय एयरपोर्ट से एक विशेष वैन हमें नेहरू पार्क होटल तक ला रही थी। रास्ते में लाल चौक से गुजरते हुए मैंने धुएं के गुबार देखे। ड्राईवर ने बताया, यहां अभी-अभी ही एक बंब फटा था। अंदर किसी गली में क्रॉस फायरिंग चल रही थी। अपनी सीट की पुश्त से टेक लगाते हुए मेरी आंखों से पानी की कुछ बूंदें बह कर मेरे गालों तक पहुंच गई। यह आज के कश्मीर के हालात के प्रति मेरा मौन रुदन था। कैमरामैन ने चलती गाड़ी को धीरे करते हुए, उस बंब ब्लास्ट, चिथड़ी लाशों और दौड़ते-भागते लोगों के कुछ शॉटस् लिए। मैं जैसे शारीरिक तौर पर ही नहीं, मानसिक तौर पर भी थक चुकी थी। मैं होटल जा कर कुछ देर आराम करना चाहती थी।

सुबह मुंह-अंधेरे दरवाजे पर हुई ठक-ठक से ही मुझे अंदाजा हो गया कि वेटर बैड-टी लेकर आया होगा। सचमुच वही था। ट्रे में टीकोजी से ढकी चाय की केतली के साथ अंग्रेजी का स्थानीय और राष्ट्रीय अखबार भी था। राष्टीय अखबार उठाते ही मझे कल शाम को देखे बंब धमाके की तबाही याद आ गई। राष्ट्रीय अखबार छोड़ कर, मैंने स्थानीय अखबार उठा लिया। भाप और महक छोडते कहवे की प्याली मेरे हाथों में थी। अखबार के सारे ही पन्ने बंब धमाके, क्रॉस फायरिंग, लाशों, मरने वालों की गिनती, घायल लोगों की गिनती, आंतकवादियों व फौजियों के मारे व शहीद होने के आंकड़ो से भरे थे। बंब ब्लास्ट की जिम्मेवारी जिस समूह ने अपने सिर पर ली थी, उसके चार आतंकवादी भी इस क्रॉस फायरिंग में अपनी जान गवां चुके थे। कैसा जुनून है, इन लोगों का। इस कश्मीर में आग के यह बीज कब बो दिए गए थे? इन की फसल कब तैयार हुई। होश तब आया जब इस आग ने बारूदी विस्फोट बन कर सारी वादी को अपनी लपेट में ले लिया था? क्या आतंकवादियों को जीने का कोई शौक नहीं था? जिन्दगी से इतना मोहभंग? किस मिट्टी के बने हैं ये लोग।

यह सोचते हुए मैं उन चारों मरने वाले आतंकवादियों की तस्वीरें देखने लगी। 20-25 बरस के ये नौजवान, जिन्हें आसमान में उड़ान भरनी थी। आज अपने साथ सैंकड़ों लोगों को मिट्टी में मिला कर खुद भी मिट्टी हो गए थे। तभी मेरी नजर एक आतंकवादी की तस्वीर पर अटक गई। चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा। बेशक भरपूर दाढ़ी ने चेहरे का बहुत सारा हिस्सा ढंक दिया था, फिर भी आंखें जैसे कुछ जानी-पहचानी लग रही थी। मेरी नजर तस्वीर के नीचे दिए कैप्शन से नाम ढूंढने लगी। और अचानक जैसे मेरे हाथों में पकड़ा कहवे का कप कांप गया। तस्वीर वाला चेहरा और आंखें ही नहीं, नाम भी मुझे काफी जाना-पहचाना लगा, ‘अली बूदरा, एरिया कमांडर।’ जो अन्य आतंकवादियों का नेतृत्व कर रहा था मगर क्रॉस फायरिंग में आर्मी के हाथों मारा गया था।

छह फुट से ऊंचा उसका शरीर, चढ़ती जवानी, छलनी हो कर तंग सी गली में पड़ा था। मेरा दिल दुआ करने लगा, यह अली बूदरा कोई और हो, परन्तु वह वही था। इस सच्चाई को मैं कैसे झुठला सकती थी। तो क्या जब कल मैं लाल चौक से गुजर रही थी, उसी समय अली बूदरा वहां बंब ब्लास्ट करके किसी तंग गली में जा छिपा था? क्या अली बूदरा, आज खुद छिप रहा था? किस काम के लिए? किस मकसद के लिए? एक बार पहले भी वह छिप गया था, मगर तब कोई मजबूरी, कोई मकसद था उसके पास…। हां अली बूदरा अपनी दुकान में बने तंदूर के पीछे छिप कर बैठ गया था। पूरी रात। सर्दियों की ठिठुरती काली स्याह रात और उस रात मैं भी उसके घुटने पर सिर रख कर सिमटी, सहमी सी, वही छिप कर सवेर होने की प्रतीक्षा करती रही थी।

पांछुक की पहाड़ी पर बने आर्मी कंटोनमैंट में मैं मेजर रिपूदमन यादव की इकलौती बेटी गीतांजली यादव, शहर के वूमैन कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रही थी। मेरी मम्मी सरिता यादव बेहद मॉडर्न और फैशनेबल महिला थी। इतनी फैशनेबल कि आस-पड़ोस में रहने वाले या मिलने आने-जाने वाले उससे दूरी रखने में ही भलाई समझते थे। जैसा कि अक्सर होता है कि आर्मी वालों की पत्नियों के अपने मनोरंजन के साधन होते हैं। किटी पार्टियां और महिलाओं के अपने दुख-सुख भरी व्यवस्ताएं होती। परन्तु मम्मी ऐसी औरतों में से नहीं थी। वह न किसी से अधिक दोस्ती रखती और न ही दुश्मनी। ना वह किसी किटी पार्टी में जाती थी और न ही किसी को अपने घर पर बुलाती थी। उन्हें किसी का घर में आना पसंद नहीं था। यहां तक कि मुझे भी कॉलेज की सहेलियां को घर पर लाने की इजाजत नहीं थी। पापा अपने दोस्तों के साथ बाहर लॉन में ही ड्रिंक लेते थे।

हां एक शख्स था, जो मालिक ना होकर भी हमारे घर का मालिक था। पापा को कभी मालिक जैसा दर्जा मिला ही नहीं था, वह शख्स अवश्य मालिकों की तरह घर में ही दनदनाता फिरता रहता था। वह था राजपाल सिंह। पता नहीं, हमारे घर के साथ उसका क्या रिश्ता था। पापा के साथ मैंने उसे कभी बोलते नहीं देखा था, हमेशा वह मम्मी के आगे-पीछे ही घूमता रहता। मम्मी ने उसे अपने कजिन के तौर पर घर में आश्रय दे रखा था। पापा ना तो उससे कोई बात ही करते और ना ही उसकी उपस्थिति पर कोई विरोध ही करते थे। वह तो ड्यूटी से आते ही क्लब या किसी अन्य मनोरंजन स्थान की ओर चल देते थे। गई रात या तो पी कर घर लौटते या घर आ कर पीने लगते थे।

घर में उन्हें जैसे कोई दिलचस्पी ही नहीं थी या कह सकते हैं कि घर में किसी प्रकार की दखलअंदाजी करने का कोई अधिकार उन्हें प्राप्त नहीं था। घर की हर बात मम्मी और राजपाल ही करते। जो लाना होता, वही लाते थे। मम्मी का अलग कमरा था। जिसमें एंटीक म्यूजियम की तरह मम्मी के साज-श्रृंगार की वस्तुएं, आभूषण, विग, जूते-चप्पल, साड़ियां, पैंटस और कितना कुछ कूड़ा-कबाड़ पड़ा रहता। मम्मी अक्सर कैपरी और टॉप पहन कर घूमती रहती। उनके कटे बाल बहुत पतले थे परन्तु उन्होंने हर रंग और हर फैशन की विग अपने कमरे में जमा कर रखी थी।

उनके इस अजायबघर जैसे कमरे में मुझे भी जाने की इजाजत नहीं थी। कभी भूल से मैं वहां चली भी जाती तो मम्मी खीझ कर चीखने लगती। अपनी चीजों के अस्त-व्यस्त हो जाने का इल्जाम लगा देती। परन्तु राजपाल बिना रोक-टोक के मम्मी के कमरे में जाता। बल्कि मम्मी वहां होती, तो वह उनके साथ अंदर घुसा रहता था। मम्मी हमेशा मेरी पहुंच से दूर रही। आम मां की तरह उसने मुझे कभी न लाड़ लड़ाया, ना कभी अपने सीने से लगा कर, धप. बारिश से बचाया, न कभी अपनी बांहों में झलाया। न कभी मेरे आंसू पोंछे, न मेरी हंसी पर न्योछावर हुई। मैं खुद ही हंसती, रोती और अकेले सहमते हुए सो जाती। मम्मी मेरे पास नहीं थी मगर पापा ने भी मुझ से कभी लगाव प्रकट नहीं किया था। मम्मी-पापा हमेशा एक भंयकर खामोशी की धुंध में खोए हुए जी रहे थे। मैं उन दोनों के प्यार को तरसती, भीड़ में खोए हुए नादान बच्चे समान जिन्दगी की अंगुली पकड़ने के लिए तड़पती रही।

अचानक राजपाल पता नहीं कहां से आ गया, हमारी जिन्दगी में। कश्मीर आए हमें अभी एक ही बरस हुआ था कि अचानक मम्मी ने एक दिन ऐलान किया कि उनका कोई कजिन आ रहा है, जो कश्मीर में कोई इंपोर्ट-एक्सपोर्ट का बिजनेस करना चाहता है। चमड़े और जंगली जानवरों की चमड़ी की वस्तुओं को बाहर के देशों में भेजने का काम करता है और मरे हुए जानवरों की चमड़ी का वह व्यापारी हमारे घर के जीते-जागते ‘जानवरों’ का मोल-तोल करने में जुट गया।

शुरू-शुरू में मैं राजपाल को राजपाल अंकल कहती थी मगर मम्मा ने अंकल कहने से मना कर दिया। मम्मा खुद भी मम्मी कहलवाना पसंद नहीं करती थी। वह सरिता का शार्टकट सरू-मां कहलवाना पसंद करती थी। इस प्रकार यह शब्द सरू-मां एक नया रिश्ता और नयापन देता था। उन्होंने यह नाम अपने लिए रिजर्व कर लिया था।

सरू मां और राजपाल अक्सर घर से बाहर रहते। कभी पिक्चर, कभी बाजार, कभी पिकनिक। पापा या तो ड्यूटी पर, किसी क्लब या बार में …और मैं कहां जाती? कॉलेज के होस्टल में मेरी एक सहपाठिन थी मीनू। मेरी उससे खूब बनती थी। मैं अपना अधिकतर समय उसके साथ ही गुजारती। हालांकि सरू मां को यह भी पसंद नहीं था। वह चाहती थी कि मैं समय से घर वापस आ जाया करूं।

उस दिन कॉलेज जाते समय मैं क्लास में जाने की बजाय मीनू के होस्टल चली गई। मीनू क्लास के लिए निकलने ही वाली थी कि मैं उसके गले लग कर दहाड़े मार कर रोने लगी। मीनू घबरा गई। आसपास कमरों में रहने वाली लड़कियां भी वहां जमा हो गईं। रोते-रोते मैं होश गवां बैठी। अर्ध-बेहोशी की हालत में मैं सारा दिन मीनू के कमरे में पड़ी रही। जब वार्डन को यह बात मालम हई. उसने मेरे घर पर फोन कर दिया। आधे घंटे बाद मम्मी आर्मी की गाडी ले कर राजपाल के साथ होस्टल आ पहुंची। होस्टल की सारी लड़कियां मम्मी को आंखें फाड़-फाड़ कर देखने लगीं, जैसे चिडियाघर से साक्षात कोई अजीब सा जानवर उनके बीच आ घसा हो। मम्मी का हलिया ही ऐसा था, घुटनों से ऊंची लाल रंग की कैपरी, सफेद स्लीवलैस टाईट टॉप, हाई पैंसिल हील और हेयर बैंड में कैद कंधों तक कटे हुए बाल। आंखों पर चौड़ा धूप का चश्मा। राजपाल एक ओर सीने पर दोनों हाथ बांधे खड़ा था।

मम्मी को देखकर हॉस्टल का चौकीदार और सिक्योरिटी आफिसर अचंभे में आ गए, क्योंकि होस्टल में रहने वाली किसी भी लड़की की मम्मी का यह हुलिया उन्होंने कभी नहीं देखा था। खैर! मम्मी मुझे घर ले आई मगर उन्होंने यह नहीं पूछा कि मैं होस्टल में बेहोश क्यों हो गई थी। मैं भी किसी को यह बता नहीं पाई कि सुबह मम्मी और राजपाल जब पहाड़ी पर सैर के लिए गए थे, मैं अपने कमरे में सो रही थी। अचानक पापा मेरे कमरे में आए और उन्होंने कहा, उन्हें बहुत तेज बुखार है और बेहद ठंड लग रही है। वह मेरे बिस्तर में घुस गए। उन्होंने मेरी टांगों को अपनी टांगों से जकड़ कर, ‘मुझे बहुत ठंड लग रही है बेटा’ कह कर बाहों में भर लिया। ऐसा पहली बार हुआ था। आज से पहले पापा ने कभी मुझे अपनी बाहों में नहीं लिया था। बचपन में भी बीमार होने पर पापा बस दरवाजे से ही मुझे एक नजर देखते और अपना पैग बनाने चल देते थे। मम्मी दवा दे कर या नौकर को मेरा ध्यान रखने को कह कर अपने कमरे में आराम करने चली जाती थी। आज जब मैं जवान, कॉलेज जाने वाली लड़की हूं तो पापा अपनी ठंड से बचने के लिए मेरे बिस्तर में आ घुसे थे।

पता नहीं कैसे मैंने उन्हें परे धकेला। हालांकि उनकी बांहों से निकलना आसान नहीं था परन्तु मैं चीखने लगी। पापा नौकर के डर से धीरे से बिस्तर से निकल अपने कमरे में जा घुसे और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया था। जब मैं तैयार होकर कॉलेज जाने के लिए निकली, मम्मी और राजपाल तब तक सैर करके वापस नहीं लौटे थे।

मुझे आर्मी की जीप ही कॉलेज छोड़ने और लेने आती थी। जिस पहाड़ी पर हमारे क्वार्टर थे, उससे कुछ ही दूरी पर मुसलमानों का मुहल्ला था। उस मुहल्ले से परे एक बेकरी की दुकान थी। उस दुकान में बहुत ही स्वादिष्ट बिस्कुट बनते थे। मैं अक्सर अपने ड्राईवर को वो बिस्कुट लेने के लिए भेजा करती थी।

उस दिन पापा की बांहों से छूट कर कॉलेज तो जा रही थी परन्तु हलक में जैसे कांटें चुभ रहे थे। मेरा शरीर कांप रहा था। बेकरी की दुकान के पास पहुंच कर प्यास से मेरा लहू खुश्क होने लगा। अचानक ड्राईवर ने ब्रेक लगाई। उसे मालूम था, मुझे बिस्कुट चाहिए होंगे परन्तु आज तो मुझे पानी चाहिए था, ऐसा कोई जल जो मेरी रुह में मची आग को शांत कर दे। मैं ड्राईवर को वहीं रोक कर खुद दुकान की ओर चली गई। ड्राईवर हैरानी से मुझे देखता रहा। बेकरी वाले को मालूम था कि रोज ही इस वक्त मैं बिस्कुट लेती हूं, उसे यह भी मालूम था कि मुझे कौन से बिस्कुट पसंद थे।

उस दिन अचानक अपनी दुकान में मुझे देख कर वह भी हैरान हो गया। छह फुट का जवान बेकरीवाला। जिसे कश्मीरी भाषा में ‘कांदरा’ कहा जाता है। होंठों पर बहुत खूबसूरत मुस्कान लिए अपना काउंटर छोड़ कर मेरे पास आ गया। मेरे चेहरे की ओर देखते हुए वह मेरी फरमाइश जानना चाह रहा था। ‘पानी’ मैं बस इतना ही कह पाई। मगर अगले ही पल मेरी आंखों से पानी बहने लगा। उसके चेहरे पर दर्द की रेखाएं खिंच गई। एक स्टूल मेरी ओर सरका दिया और हौले से मेरा कंधा पकड़ कर उस पर बिठा दिया। जल्दी ही गिलास में कोल्ड ड्रिंक ले आया। मैंने एक ही चूंट में सारा गिलास खत्म कर दिया। पता नहीं वह कौन था। पता नहीं मैं कौन थी। पता नहीं वो कैसी डोर थी कि मैंने सिर उठा कर उसकी आंखों में देखा। आंसू बिना रुके आंखों से बह कर मेरे गालों को भिगो रहे थे। मैं इन आंसुओं को बह जाने देना चाहती थी। मगर किस के सामने? एक अजनबी के सामने? जिससे मेरा ड्राइवर रोज मेरे लिए बिस्कुट लेता था। सिर्फ इतना ही रिश्ता था उससे मेरा? मैं उसके सामने रोती रही और मैंने खुद को रोका भी नहीं था।

ड्राईवर गाड़ी से बाहर निकल आया। काफी देर तक मैं उसी दुकान में बैठी थी। काउंटर से एक पेपर नैपकिन देते हुए, उसने मुझे आंखें पोंछने को कहा और ड्राइवर की ओर इशारा किया। मेरे होंठों पर दर्दभरी हल्की सी मुस्कान आ गई। उसने अपना हाथ आगे बढ़ा कर मेरा हाथ थामा और मुझे स्टूल से उठने को कहा। मैं चुपचाप दुकान से बाहर आ गई। गाड़ी में बैठ कर, सीट से टेक लगाते ही मैंने आंखें बंद कर ली।

घर आ कर ड्राईवर ने मुझे एक पैकेट दिया। बेकरी वाले ने आज कुछ नयी चीज दी थी। मगर मैंने तो इसे खरीदा नहीं था। फिर यह क्या था? मैंने सवालिया नजरों से ड्राइवर की ओर देखा। ‘लवासे’ ड्राईवर ने बताया। बेकरीवाले ने आज बिस्कुट की जगह यह कश्मीरी रोटी का स्वाद चखने के लिए कहा है। मैं हैरान हो गई। मुझे याद आया, मैंने तो कोल्ड ड्रिंक के भी पैसे नहीं दिये थे, फिर ये रोटियां? मगर पता नहीं क्यों, मेरे होंठों पर मुस्कान-सी आ गई।

मेरी परीक्षाएं नजदीक थी। एक दिन शाम को मैं बरामदे में लगे झूले में बैठी किताब पढ़ रही थी कि राजपाल भी मेरे साथ झूले पर आ बैठा। लगा, जैसे किसी जहरीले सांप ने मुझे डस लिया हो। मैं उछल कर उठने लगी कि उसने मेरा हाथ जर्बदस्ती पकड़ कर, मुझे बिठा दिया। गुस्से और नफरत से मेरा मुंह लाल हो गया।

“बैठो, मुझे तुम से कोई बात करनी है।”

“लेकिन मुझे तुम से कोई बात नहीं करनी।” कह कर मैं अपने कमरे में आ गई। इतनी देर में मम्मी मेरे दरवाजे को जोर-जोर से पीटने लगी। मेरी आंखें रोने के कारण सूजी हुई थी। ऐसा लग रहा था, मम्मी दरवाजा तोड़ ही डालेगी। मैंने उठ कर दरवजा खोला तो दांत पीस कर कहने लगा, “यू ब्लडी बिच…तूने अपने मंगेतर का अपमान किया…।”

“मंगेतर?” मेरी आंखें फटी की फटी रह गई।

“हां मंगेतर…। इसी राजपाल के साथ तुम्हारी शादी होगी। अपने इम्तहान खत्म करके इससे शादी करके दफा हो जाओ यहां से….।” कितना जहर था, मम्मी की आवाज में। मम्मी ने बिलकुल भी नहीं सोचा कि उनकी बातों का मुझ पर क्या असर हुआ है। मुझे लगने लगा, मेरी टांगें कांपते-कांपते बेहोश हो रही थी। उसके बाद मैं अंधेरी दुनिया में खो गई। मुझे अगले दिन होश आया।

‘गीतांजलि, तुम तैयार हो जाओ। मैं तुम्हें मूवी दिखाने ले कर जा रहा हूं। पांच बज गए हैं। छः बजे शौ शुरू होने वाला है। कम ऑन…गेट रैडी।” राजपाल हुक्म चलाते हुए मेरे सिर पर आ खड़ा हुआ। मगर मैं टस से मस नहीं हुई। मम्मी भी हाई हील की ठक-ठक करती मेरे कमरे में आ गई।

“चलो उठो अंजलि। राजपाल के साथ मार्किट हो आओ और वह तुम्हारे साथ मवी देखना चाहता है।” मम्मी का आदेश था।

“मगर मुझे कहीं नहीं जाना। ना मूवी और न ही मार्किट। आप चले जाओ… हमेशा से आप ही साथ जाते रहे हो। फिर आज मुझे क्यों भेज रहे हो।” मैंने गुस्से से कहा।

“क्योंकि वो विवाह तेरे साथ करना चाहता है, इसलिए…।”

“लेकिन आपने मुझसे तो पूछा ही नहीं कि मैं भी करना चाहती हूं कि नहीं?”

“तुमसे पूछने-ना-पूछने की कोई जरूरत नहीं। मैं तुम्हारी मां हूं। जो भी करूंगी, वो तुम्हारे लिए ठीक ही होगा। राजपाल हैंडसम है, पढ़ा-लिखा है, अच्छा कमाता-खाता है। और तुम्हें क्या चाहिए? उठो नखरे मत करो। तैयार हो जाओ।”

कहते हुए वह राजपाल की कलाई पकड़ कर उसे बाहर ले गई। शायद वह मुझे तैयार होने का मौका दे कर गए थे। मैंने देखा, वे कानाफूसी करते हुए मकान के पिछवाड़े चले गए थे। शायद कोई बहुत ही गंभीर या गुप्त बात हो रही थी।

“क्या मैं इस राजपाल के हत्थे चढ़ जाऊंगी? यह राजपाल अब तक मेरी मां को भोगता रहा, अब इसकी नजर मुझ पर आ पड़ी? मां ने मुझे उसे मेरी ओर धकेलने का फैसला कैसे लिया? जरूर कोई बहुत बड़ी सौदेबाजी हुई होगी?” सोचते हुए मेरे जेहन में कितना धुआं और गुबार भर गया कि मैं कुछ भी सोचने-समझने का होश खो बैठी। मम्मी और राजपाल सिर जोड़ कर अभी भी बातें कर रहे थे। मुझे लगा जैसे मेरे खिलाफ कोई षडयंत्र रचा जा रहा हो और मुझे इस षडयंत्र से भाग जाना चाहिए। खुद को बचा लेना चाहिए।

और मैं भाग उठी। कमरे से तेजी से भागते हुए गेट की ओर तूफान की तरह भागी। मैं पांछुक की उस पहाड़ी की ओर पागलों की तरह भागने लगी। मुझे लग रहा था कि एक दुनिया मेरे पीछे मुझे पकड़ने के लिए भाग रही थी। मगर मुझे इनसे अपने आप को बचाना ही होगा, मगर कैसे? सौ गज की दूरी पर लवासे वाली बेकरी की दुकान थी। सौ गज की दूरी का फासला….मैंने जिसे जुनून में भाग कर तय किया, उससे मेरे शरीर का लहू मेरे चेहरे पर इकट्ठा हो गया। ‘फटाक’ से बेकरी का दरवाजा खोल मैं कोने में लगे तंदूर के पीछे जा छिपी। बेकरी वाला हैरान-परेशान, कभी मेरी अधमरी हालत को देखता कभी बाहर फौजी सिपाहियों को, जो पुलिस के कुत्तों की तरह मेरी सूह ले रहे थे। मगर इस तंग गली में आ कर मैंने उन्हें चकमा दे दिया था। वास्तव में मैं दुकान के मुख्य दरवाजे की बजाय पिछली गली से अंदर आई थी। एक फौजी ने तो दरवाजा खोल कर पूछा भी कि ‘कोई लड़की तो यहां नहीं आई? बेकरी वाले ने उसे इनकार करते हुए, बांहें फैला कर उसे अंदर आने से रोक दिया था। किसी की भी दुकान में घुसने की हिम्मत नहीं हुई थी। परन्तु उन्होंने पूरी गली और मुहल्ले में अपनी फौज के जासूस तैनात कर दिए थे।

तंदूर के पीछे छिपे मैं थर-थर कांपते हुए, अर्ध-बेहोश हो रही थी। मुझे मालूम नहीं था, मैं जिसकी शरण में यहां आ पहुंची थी, वहां घरवालों या बाहर वालों से अधिक सरक्षित थी भी या नहीं? परन्त पता नहीं कैसा विश्वास था कि मैं मां-बाप. दोस्त-सहेलियों से अधिक इस अजनबी की शरण में आ कर अधिक सुरक्षित महसूस कर रही थी। उसने मेरी ओर एक नजर देखा और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खडा किया। तंदर के पीछे उसने कालीन बिछा कर ऊपर कंबल डाल दिया और मुझे वहां आराम से बैठने का इशारा किया।

रात हो रही थी। दुकानें बंद करने का वक्त हो गया था। परन्तु अब क्या किया जाए? मैं अब घबराने लगी। घर से तो मैं भाग आई थी, मगर अब कहां जाऊंगी? इस बेकरी में तंदूर की ओट में कितना समय गुजार सकती थी। फिर इस दुकानदार को दुकान भी तो बंद करनी होगी। मैं घबरा कर उठ बैठी। उसने शायद मेरी घबराहट को भांप लिया। अपने होंठों पर अंगुली रख कर मुझे चुप रहने का इशारा किया। “डरना नहीं…, मैं अभी आ रहा हूं…। अपने भगवान् को याद करो, प्रार्थना करो। मैं खाना लाता हूं तुम्हारे लिए।” कह कर वह ताला-चाबी उठा बाहर चला गया। सामने के मुख्य द्वार पर ताला लगा कर, उसने बत्तियां बुझा दी और बाईक ले कर चला गया। वह फौजियों को बताना चाहता था कि दुकान बंद करके वह भी घर चला गया है। लेकिन कुछ ही देर बाद वह हाथ में टिफन लेकर, पिछले दरवाजे से अंदर आ गया। आते समय उसने अपना भेष बदल लिया था। अब उसके सिर पर नमाजी टोपी थी और उसने फिरन पहन रखा था, जिससे वह ठेठ कश्मीरी लग रहा था। एक पल के लिए मैं उसे पहचान नहीं पाई। मैं डर के मारे चीख ही पड़ती, अगर वह मेरे मुंह पर हाथ रख कर सिर की टोपी परे ना फेंक देता।

खाना खा लो, लेकिन चुपचाप…। बाहर तुम्हारे रिश्तेदार खड़े हैं।” उसने बहुत ही धीमे स्वर में फुसफुसाते हुए और इशारों में मुझे बताया। मगर मैं कहां खा सकती थी? मैंने सिर हिला कर इनकार कर दिया तो उसने प्यार से झिड़कते हुए प्लेट में राजमां और चावल डालकर मेरी ओर बढ़ा दिए। मुझे मजबूरी में थोड़ा सा खाना पड़ा। मम्मी के घर जहां डाइनिंग टेबल के मैनर्स एक छूत की बीमारी का दर्जा रखते थे। आज तक कांटे-छुरी और चम्मच के बिना हमने खाने को छुआ भी नहीं होगा। उसी मम्मी की बेटी कश्मीरी मुसलमान के परोसे राजमां-चावल हाथों की पांचों अंगुलियों से स्वाद ले कर खा रही थी। यकीनन इतना स्वादिस्ट खाना मैंने पहले कभी नहीं खाया था। हाथ धो कर वह फ्रिज से मेरे लिए आइसक्रीम ले आया। बल्ब हम जला नहीं सकते थे। बहुत सावधानी से जीरो वॉट के बल्ब में हम काम कर रहे थे।

खाने से फारिग होकर वह भी मेरे निकट तंदूर के पास आ बैठा। ‘अब बताओ, क्या किस्सा है?’ मेरी आंखों में देखते हुए उसने पूछा तो मैंने अपनी जिन्दगी का पूरा इतिहास उस अजनबी मसीहे के आगे खोल कर रख दिया। “आगे का क्या सोचा है तुमने?” उसने दूर शून्य में देखते हुए पूछा।

“समझ नहीं आ रहा क्या करूं?”

“मेरे साथ चलोगी?” उसने फिर से दुहराया। मगर मेरा सिर मेरे ही घुटनों पर झुक गया। क्या जवाब देती। उसने फिर दुबारा नहीं पूछा। बस सारी रात मेरे साथ बातें करता रहा। मैं भी जब थक गई तो उसके घुटनों पर ही सिर रख कर पता नहीं कब सो गई।

सुबह उसने घर फोन करके अपनी बहन से एक बुर्का लेकर आने के लिए कहा। कुछ ही देर बाद उसकी बहन और अब्बा दुकान पर आ गए। मुख्य द्वार खोलते ही उन्होंने देखा, दो फौजी अभी भी उन गलियों में गश्त लगा रहे थे। अंदर आते ही उसके अब्बा ने उसकी बहन को मेरी ओर भेजा और अली को अपने साथ ले कर दूसरी ओर चले गए। मेरे मसीहा का नाम अली बूदरा था। उसने अब्बा को सारी बात बताई।

उसकी बहन मुझे बुर्के में अपने साथ अपने घर ले आई। वहीं से मैंने अपने मम्मी-पापा को खत लिख कर धमकी दी कि मैं उनका घर छोड़ कर जा रही हूं। यदि उन्होंने मुझे ढूंढने या मिलने की कोशिश की तो मैं डल झील में छलांग लगा कर मर जाऊंगी मगर उससे पहले उनका नंगा सच सभी को

अली बूदरे के अब्बा जी ने किसी की सिफारिश करवा कर मुझे होस्टल में जगह दिलवा दी। मैंने वहीं रह कर अपनी परीक्षा दी। उसके बाद यूनीवर्सिटी में मॉस कम्यूनिकेशन में दाखिला ले लिया। उन दिनों ही लॉ डिपार्टमैंट के स्टूडेंट हरीश जैन के साथ मेरी दोस्ती हो गई, जो धीरे-धीरे प्यार में बदल गई। पहले-पहल मैं अली बूदरा के परिवार से काफी मिलती-जुलती रही लेकिन हरीश से प्यार होने के बाद मेरी नजदीकी उन से कम होने लगी।

मेरा मॉस कम्यूकेशन खत्म होते ही मैंने और हरीश ने शादी कर ली। मैंने अली बूदरा के परिवार को शादी के लिए आमंत्रित किया परन्तु सिर्फ उसकी बहन और अब्बा ही शादी में आए।

हरीश ने लॉ के बाद के.ए.एस. कर लिया और वह पुलिस में डी.एस.पी. हो गया। उन्हीं दिनों में कश्मीर में आतंकवाद सलग उठा और देखते ही देखते सारी कश्मीर वादी आग के जंगल में तब्दील हो गई। हर ओर बंब ब्लास्ट क्रॉस फायरिंग, बंदके और कत्ल होने लगे। लह का डरावना खेल खेला जाने लगा। कोई किसी का दोस्त न रहा। सभी शक के घेरे में आ गए। दो-तीन साल में ही कश्मीर का नक्शा बदल गया।

हरीश की पोस्टिंग सोपोर हो गई थी। यह बहत ही संवेदनशील इलाका माना जाता था। एक शाम एक होटल में चार आतंकवादियों के छिपे होने की उन्हें सूचना मिली। हरीश अपने बाकी साथियों के साथ उस जगह पर चला गया। निडर और ईमानदार अफसर की छवि के कारण हरीश अपने विभाग में सभी का प्यारा था परन्तु आतंकवादियों की आंख की किरकिरी भी था। उसका नाम हिट लिस्ट में था। होटल के आंगन में पहुंचते ही उसने आंतकवादियों को हथियार छोड़ कर समर्पण करने के लिए ललकारा। पुलिस ने होटल को चारों ओर से घेर लिया था। आतंकवादियों का बच निकलना नामुमकिन था। इसी कारण हरीश उन्हें समर्पण के लिए उकसा रहा था। तभी पलक झपकते ही एक गोली आकर हरीश की दाहिनी आंख से होते हुए सिर के पीछे से निकल गई। पल भर में ही क्या हो गया। किसी को समझ में न आया। कुछ ही पल पहले आतंकवादियों को ललकारने वाला शेर खुद मिट्टी के ढेर में बदल गया।

मेरी दुनिया हरीश के साथ ही उजड़ गई थी। उस कश्मीर में अब मेरे लिए कुछ बाकी नहीं रहा था। सिवाय अधजले अंगारों के सुलगते धुएं के, जो हरीश की चिता से उठ कर मेरी छाती में अटक कर रह गया था। उसके बाद मैं उसी धुएं में सांस लेती रही। जब सांस लेना मुश्किल हो गया तो कश्मीर छोड़ कर दिल्ली आ गई। यहां एक न्यूज चैनल ज्वाइन कर लिया।

आज जब उसी न्यूज चैनल की रिपोर्टिंग के लिए मैं कश्मीर आई तो पहली ही रिपोर्ट अली बूदरा के बंब ब्लास्ट में मौत की दे रही थी।

अली बूदरा, जिसकी सिर्फ आंखों की पाकीजगी पर विश्वास कर मैं अपना घर छोड़ कर, पूरी रात उसकी दुकान में लगे तंदूर की ओट में उसके घुटनों पर सिर टिका कर बिता दी थी। वही अली बूदरा…आज आतंकवादी? इस तंजीम का एरिया कमांडर? असली एरिया कमांडर तो वह तब था, जब पूरे एरिया को फौजियों ने छावनी बना दिया था और उसने दरवाजे पर खड़े होकर किसी को भी मेरी ओर झांकने की इजाजत नहीं दी थी। असली एरिया कमांडर तो वह तब था, जब उसी एरिया में अपनी बहन के बुर्के में उसने हमारे ही घर के आतंकवादियों से मेरी हिफाजत की थी। परन्तु आज अली बूदरा एक आतंकवादी …?

क्या अली बदरा जैसे किसी आतंकवादी ने ही हरीश की आंख में निशाना नहीं लगाया होगा? हो सकता है, वह भी अली बूदरा ही हो? या सारे ही आतंकवादी अली बूदरा हो? अपनी ही पनाह में महफूज रखी हर अंजली के सहाग के दश्मन…।

यह सब सोचते हए अखबार का पन्ना मेरे हाथों में ही मड-तड गया। मगर अगले ही पल उस मडे-तडे अखबार के पन्ने को आंखों से लगा. मैं जोर-जोर से रोने लगी। उस रात तंदूर के पीछे बैठ कर अली बूदरा के सिरहाने रोने के समान मैं आज भी रो रही हूं…लगता है कि कोई पास ही किसी तंदूर में मुहब्बत से लवासे सेक रहा है मगर लापरवाही से लवासे जल कर राख हो गए हैं। जले लवासों की तीखी गंध मुझे हरीश की चिता से उठते धुएं में घुलती महसूस हुई। लगा, जैसे मेरी सांस फिर से रुकने लगी हो।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’

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