एक न ययाति को-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Hindi Kahaniyan
Ek na Yayaati

Hindi Kahaniyan: जब तक किसी काम को पूरे समर्पण से न किया जाय तब तक वो उभर के नहीं आता”,पति विराज की यह बात सुनते ही  रजनी के हाथ तेजी से थिरकने लगे।
परांठे बेलते हुए वह भी एक जिम्मेदार स्त्री की ही भूमिका निभाती आ रही थी छः बरस से।
रसोईघर में सुबह  चार बजे ही शुरुआत हो जाती थी और रात बारह से पहले आँखों मे नींद नही आती।
वजह था …उसका सँगीत का अध्यापक जीवनसाथी पहले सुबह साढ़े छह बजे  विद्यालय जाता पढ़ाने को फिर जो दौर शुरू होता ट्यूशन का वो रात दस बजे से पहले न थमता।
घर की दशा आर्थिक दशा ही  बदल दी थी ,उसने अपनी कड़ी मेहनत से। यूँ तो  कहने को उसके पिता ने तीन नौकरी बदलीं पर एक एक भी ढंग से न कीं और ऊपर से उनकी शराब पीने की लत।

माँ की घर चलाने की जद्दोजहद देख वह जो काम मिलता खाली समय में करता,उसने घर की माली हालत देखते हुए अपने  प्रिय विज्ञान को छोड़कर कला विषय चुना और उसमें भी सँगीत।
विज्ञान पढ़ने  को धन चाहिए था,,और सँगीत ने उसके पेट मे रोटी डालने का काम किया रात के छोटे छोटे जागरण और कार्यक्रम ने। तब उसे पता चला कि सँगीत बड़े आदमियों का शौक होता है,बस समर्पण से जुट गया,चार डिग्रियां  लेने के बाद उसे एक अच्छी नौकरी मिली और घर के हालत चार पायदान ऊपर हुए, धनी परिवार की बेटी रजनी से अच्छी शादी हो गयी ।
रजनी तो समर्पित बहू की भूमिका में थी ही पर एक समर्पित बेटे की भूमिका का दबाव पहली बार इतना ज्यादा देखा  रजनी ने। विराज की तनख्वाह आती उसके ससुर के हाथ में …
शाम को शराब की बोतल का स्थान  अब देशी से बदल कर अंग्रेजी  का हो गया था,साथ में सूखे मेवे उनके स्वास्थ्य की  ज़रूरत थे।

बाकी पान बीड़ी सिगरेट और  हर शुक्रवार के पहली  फ़िल्म के  शौक अभी भी ज्यों के त्यों थे।उनकी पत्नी रमा जी भी अपने दबे शौक़ बेटे की कमाई से पूरे करने लगीं।
अब विवाहित बेटी नीता का भी स्तर और खर्च विराज के सिर पर आ पड़े क्यों कि समर्पण की शर्त ही यह है कि अपने  और अपनी ज़रूरतों के  विषय में सोचना गलत होता है। विराज को भी पिता के बिना चैन न मिलता अक्सर वो उन्ही के साथ सो जाया करता।रजनी अपने कमरे में प्रतीक्षारत रहती।
कोई शिकायत करती भी थी,तो सुनवाई नहीं होगी ये पक्की बात थी।फिर भी किसी तरह वो एक बच्ची की माँ बन गयी। पर उसने पाया कि घर में उसकी और बच्ची की किसी भी  कैसी भी ज़रूरत  और उसकी  पूर्ति का कोई स्थान ही न था।
अब खुशमिजाज़ रजनी की जगह अनमनी रजनी ने ले ली थी,सुविधाओं में पली बढ़ी रजनी ऊपरी तौर से संपन्न दिखती। पर अन्दर से वो एक एक रूपये को परेशान थी,देवर ननद और सास ससुर से न कुछ बचत होती और न ही उसके हिस्से कुछ आता। लिहाज़ा असर उसके स्वास्थ्य और कामकाज पर पड़ने लगा था,वक़्त बेवक़्त उसे समर्पण में कमी का एहसास कराया जाता।

कहते हैं कि जब शब्द मौन हो जायें तो आँखे बोलतीं हैं ,और जब आँखे भी बरसकर ख़ाली हो जाएं तो उनका रीतापन बहुत शोर करता है।
विवाह की वेदी के फेरे लेते समय जिस समर्पण शब्द ने उसका तनमन पुलकित कर दिया था,अब वही उसे ऐसे लगता मानों कानों में बूँद- बूँद पड़ता तप्त तैल।
बेटी भी पाँचवी कक्षा में आते आते अपनी माँ की ज़िंदगी की कशमकश को समझने लगी थी,विराज का हाल अब भी वही था। हाँ रजनी ने अवश्य अपनी  आर्थिक स्वतंत्रता के प्रयास शुरू कर दिए थे।
उसने बेटी के विद्यालय में ही विदेशी भाषा की शिक्षिका के लिए प्रयास किया और उसे वह प्राप्त भी हो गयी।
वाह…. अच्छी बात है घर मे अब दोगुनी तनख्वाह आयेगी,अगर बच्चों में समर्पण का भाव हो तो घर का दरिद्र चला जाता है।
मेज पर शराब और हाथों में ग्लास लिए बुजुर्ग दीनानाथ की आँखों में नक़द नारायण के सपने  सितारों की तरह जगमगा रहे थे और लड़खड़ाते स्वर में बोले। अब तो रजनी बहू  भी  हमारे घर के  नियम के अनुसार अपनी तनख्वाह हमारे हाथ में देगी कल… शाम को ।
तब तक बैठक में गृहकार्य कर रही नन्ही जीविधा ने विराज से सवाल किया,”पापा ययाति कौन थे मुझे उन पर एक छोटी कहानी लिखनी है।कल सुनाना है एसेम्बली में”।
विराज मौन रहा,उसने फिर दीनानाथ जी से सवाल किया,बाबा आप बताओ न उन्होंने भी उसे डपटते हुए कह दिया। अपनी माँ से पूछो माँ बाप  सन्तान के लिए आजीवन समपर्ण करते हैं ताकि बुढ़ापे में चैन से जियें,ये उसका काम है मेरा नहीँ।
जीविधा इस अप्रत्याशित डाँट से सिसकियाँ भरकर रोने लगी,पहली बार रजनी ने निर्णय लिया,यूट्यूब से एक वीडियो खोज कर उसे स्मार्ट टीवी से जोड़ दिया और सोफे पर बैठ गयी।
उसे पूरा वीडियो दिखाने के बाद रजनी ने कहा,”बेटा ययाति एक ऐसा राजा था,जिसने अपने  निजी  सुख के लिए अपनी जिंदगी भर तो उसका उपभोग किया ही।
बाद में अपने बेटे की युवावस्था को उससे पितृ भक्त होने के नाम पर लेकर उसे अपना बुढापा सौंप दिया। छी माँ  जीविधा ने वितृष्णा से कहा ,पापा तो अपने बच्चे को प्यार करते हैं ,अपने मतलब के लिए कोई अपने बच्चे का इस्तेमाल कैसे कर सकता है?
स्वार्थ ….बेटा  निजी स्वार्थ रजनी ने गहरी आवाज में कहा,विराज को उसकी आवाज़ किसी गहरे कुँए से आती लग रही थी। समर्पण हमेशा सही हो ऐसा हर समय तो कतई नहीं होता ,क्यों मम्मी…. जीविधा ने सवाल किया,”राजा ययाति ने चक्रवर्ती सम्राट बनने का  आशीर्वाद भले ही दिया पर अपने आनन्द के लिए बेटे पर बुढ़ापे का कष्ट क्यों लाद दिया।

मतलब….मतलब यह भी हो सकता है कि उन्होंने ख़ुद सारे सुख अपने लिए रख लिए हों और सँघर्ष अपने बेटे को दे दिए हों। दीनानाथ जी को अचानक उस वीडियो में पुरु और ययाति में अपना अक्स दिखने लगा।और नशा चढ़ने की बजाय हिरन हो उठा।
वो गिलास मेज पर रख  जोर से चिल्लाये बन्द करो ये वीडियो ।
और रजनी ने दृढ़ शब्दोँ में उत्तर दिया मैं पुरु नहीं बन सकती,मुझे समपर्ण अस्वीकार है।