बैजनाथ अचेत तो थे नहीं, आवाज़ सुनी, पहचाना, धीरे से बोले- ‘अरे यह बिल्हौर ही के हैं। भला-सा नाम है। तहसील में आया-जाया करते हैं। क्यों महाशय! मुझे पहचानते है?’
चोखेलाल- ‘जी हां, खूब पहचानता हूं।’
बैजनाथ- ‘पहचानकर भी इतनी निष्ठुरता। मेरी जान निकल रही हैं। ज़रा देखिए, मुझे क्या हो गया?’
चोखे- ‘हां, यह सब कर दूंगा और मेरा काम ही क्या? फीस?’
दारोग़ाजी- ‘अस्पताल में कैसी फीस जनाबेमन?’
चोखे- ‘वैसे ही जैसी इन मुंशीजी ने मुझसे वसूल की थी जनाबेमन।’
दारोग़ाजी- ‘आप क्या कहते हैं, मेरी समझ में नहीं आता।’
चोखे- ‘मेरा घर बिल्हौर में है। वहां मेरी थोड़ी-सी ज़मीन है। साल में दो बार उसकी देख-भाल को जाना पड़ता है। जब तहसील में लगान करने जाता हूं, मुंशीजी डांटकर अपना हक़ वसूल कर लेते हैं। न दूं तो शाम तक खड़ा रहना पड़े। स्याहा न हो। फिर जनाब कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। मेरी फीस दस रुपये निकालिए। देखूं, दवा दूं तो अपनी राह लीजिए।’
दारोगा- ‘दस रुपये!’
चोखे- ‘जी हां, और यहां ठहरना चाहे तो दस रुपये रोज़।’
दारोगाजी विवश हो गये। बैजनाथ की स्त्री से रुपये मांगे। तब उसे अपने बक्से की याद आयी। छाती पीट ली। दारोगाजी के पास भी अधिक रुपये न थे, किसी तरह दस रुपये निकालकर चोखे लाला को दिये, उन्होंने दवा दी। दिन भर कुछ फायदा न हुआ। रात को दशा संभली। दूसरे दिन फिर दवा की आवश्यकता हुई। मुंशियाइन का एक गहना जो 20 रु. से कम का न था बाजार में बेचा गया। तब काम चला। शाम तक मुंशी जी चंगे हुए। रात को गाड़ी में बैठकर खूब गालियां दी।
श्री अयोध्या जी में पहुंचकर स्थान की खोज हुई। पंडों के घर जगह न थी। घर-घर में आदमी भरे हुए थे। सारी बस्ती छान मारी पर कहीं ठिकाना न मिला। अंत में यह निश्चय हुआ कि किसी पेड़ के नीचे डेरा जमाना चाहिए किन्तु जिस पेड़ के नीचे जाते थे वहीं यात्री पड़े मिलते। खुले मैदान में, रेत पर पड़े रहने के सिवा और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देखकर बिस्तरे बिछाए और लेटे। इतने में बादल घिर आये। बूंदे गिरने लगी। बिजली चमकने लगी। गरज से कान के परदे फटे जाते थे । लड़के रोते थे, स्त्रियों के कलेजे कांप रहे थे। अब यहां ठहरना दुस्सह था, पर जाये कहां।
अकस्मात् एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन लिए आता हुआ दिखाई दिया, वह निकट पहुंच गया तो पंडितजी ने उसे देखा। आकृति कुछ पहचानी हुई मालूम हुई किंतु यह विचार न आया कि कहाँ देखा है। पास जाकर बोले- ‘क्यों भाई साहब, यहां यात्रियों के ठहरने के लिए जगह न मिलेगी?’ वह मनुष्य रुक गया। पंडितजी की ओर ध्यान से देखकर बोला- ‘आप पंडित चंद्रधर तो नहीं हैं?’
पंडितजी प्रसन्न होकर बोले- ‘जी हां। आप मुझे कैसे जानते हैं?’
उस मनुष्य ने सादर पंडितजी के चरण छुए और बोला- ‘मैं आपका शिष्य हूं। मेरा नाम कृपाशंकर है। मेरे पिता कुछ दिनों बिल्हौर में डाक-मुंशी रहे थे। उन्हीं दिनों में आपकी सेवा में पढ़ता था।
पंडितजी की स्मृर्ति जागी, बोले- ‘ओहो, तुम्हीं हो कृपाशंकर। तब तो तुम दुबले-पतले लड़के थे। कोई आठ-नौ साल हुए होंगे।’
कृपा- ‘जी हां, नवां साल था। मैंने वहां से आकर इन्ट्रेंस पास किया, अब यहाँ म्युनिसिपिल्टी में नौकर हूं। कहिए, आप तो अच्छी तरह रहे, सौभाग्य था कि आपके दर्शन हो गये।’
पंडित- ‘मुझे भी तो मिलकर बड़ा आनंद हुआ। तुम्हारे पिता अब कहां हैं?’
कृपा- ‘उनका तो देहान्त हो गया। माताजी साथ है। आप यहां कब आये?’
पंडित- ‘आज ही आया हूं। पंडो के घर जगह न मिली। विवश हो कर यही रात काटने की ठहरी।’
कृपा- ‘बाल-बच्चे भी साथ हैं?’
पंडित- ‘नहीं, मैं तो अकेले ही आया हूं। पर मेरे साथ दारोगाजी और सियाहेनवीस साहब हैं, उनके बाल बच्चे भी साथ हैं।’
कृपा- ‘कुल कितने मनुष्य होंगे?’
पंडितजी- ‘है तो दस, किन्तु थोड़ी-सी जगह में निर्वाह कर लेंगे।’
कृपा- ‘नहीं साहब, बहुत-सी जगह लीजिए। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा है। चलिए, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए। मेरा परम सौभाग्य है कि आपकी कुछ सेवा करने का अवसर मिला।’
कृपाशंकर ने कई कुली बुलाये। असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया। साफ-सुथरा घर था। नौकर ने चटपट चारपाइयां बिछा दी। घर में पूरियां पकने लगी। कृपाशंकर हाथ बांधे सेवक की भांति दौड़ता था। हृदयोल्लास से उसका मुख-कमल चमक रहा था। उसकी विनय और नम्रता ने सबको मुग्ध कर लिया।
और सब लोग तो खा-पीकर सोये, किंतु पंडित चंद्रधर को नींद नहीं आयी। उनकी विचार-शक्ति इस यात्रा की घटनाओं का उल्लेख कर रही थी। रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहृदयता और शालीनता प्रकाशमय दिखाई देती थी।
पंडितजी ने आज शिक्षक का गौरव समझा।
उन्हें आज इस पद की महानता ज्ञात हुई।
यह लोग तीन दिन अयोध्या रहे। किसी बात का कष्ट न हुआ। कृपांशंकर ने उनके साथ जाकर प्रत्येक धाम का दर्शन कराया।
तीसरे दिन जब लोग चलने लगे तो वह स्टेशन तक पहुंचाने आया। जब गाड़ी ने सीटी दी तो उसने सजल नेत्रों से पंडितजी के चरण छुए और बोला, कभी-कभी इस सेवक को याद करते रहिएगा।
पंडितजी घर पहुंचे तो उनके स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया उन्होंने फिर किसी दूसरे विभाग में जाने की चेष्टा नहीं की।
