Bodh Munshi Premchand
Bodh Munshi Premchand

पंडित चंद्रधर ने एक अपर प्राइमरी में मुदर्रिसी तो कर ली थी, किन्तु पछताया करते कि कहां से इस जंजाल में आ फंसे। यदि किसी अन्य विभाग में नौकर होते तो अब तक हाथ में चार पैसे होते, आराम से जीवन व्यतीत होता। यहां तो महीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे कहीं पंद्रह रुपये देखने को मिलते हैं। वह भी इधर आये, उधर गायब। न खाने का सुख, न पहनने का आराम। हमसे तो मजूर भी भले।

पंडितजी के पड़ोस में दो महाशय और रहते थे। एक ठाकुर अतिबल सिंह, वह थाने में हैड कांसटेबल थे। दूसरे मुंशी बैजनाथ, वह तहसील में सियाहेनवीस थे। इन दोनों आदमियों का वेतन पंडित से कुछ अधिक न था, तब भी उनकी जिंदगी चैन से गुज़रती थी। संध्या को वह कचहरी से आते, बच्चों को पैसे और मिठाइयां देते। दोनों आदमियों के पास टहलते थे। घर में कुर्सियां, मेज़ें, फर्श आदि सामग्रियां मौजूद थी। ठाकुर साहब शाम को आराम कुर्सी पर लेट जाते और खुशबूदार खमीरा पीते। मुंशीजी को शराब-कबाब का व्यसन था। अपने सुसज्जित कमरे में बैठे हुए बोतल साफ़ कर देते। जब कुछ नशा होता तो हारमोनियम बजाते। सारे मोहल्ले में उनका रौब-दाब था। उन दोनों महाशयों को आते-जाते देखकर बनिए उठकर सलाम करते। उनके लिए बाज़ार में अलग भाव था। चार पैसे की चीज़ टके में लाते। लकड़ी-ईधन मुफ्त में मिलता। पंडितजी उनके ठाट-बाट को देखकर कुढ़ते और अपने भाग्य को कोसते। वह लोग इतना भी न जानते थे कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है अथवा सूर्य पृथ्वी का। साधारण पहाड़ों का भी ज्ञान न था, जिस पर भी ईश्वर ने उन्हें इतनी प्रभुता दे रखी थी। यह लोग पंडितजी पर बड़ी कृपा रखते थे। कभी सेर-आध सेर दूध भेज देते और कभी थोड़ी-सी तरकारियां। किन्तु इनके बदले में पंडितजी को ठाकुर साहब के दो और मुंशीजी के तीन लड़कों की निगरानी रखनी पड़ती। ठाकुर साहब कहते, पंडितजी! यह लड़के आवारा हुए जाते हैं ज़रा इनका ख्याल रखिए। यह बातें बड़ी अनुग्रहपूर्ण रीति से कही जाती थी। मानो पंडितजी उनके गुलाम हैं। पंडितजी को यह व्यवहार असह्य था, किन्तु इन लोगों को नाराज़ करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी अचार-चटनी चख लेते। केवल इतना ही नहीं, बाज़ार से चीज़ें भी सस्ती लाते। इसलिए बेचारे इस अनीति को विष के घूंट के समान पीते। इस दुरवस्था से निकलने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े यत्न किये थे। प्रार्थना-पत्र लिखे, अफसरों की खुशामदें की, पर आशा पूरी न हुई। अंत में हारकर बैठ रहे। हां, इतना था कि अपने काम में त्रुटि न होने देते। ठीक समय पर जाते, देर करके आते, मन लगाकर पढ़ाते। इससे उनके अफ़सर लोग खुश थे। साल में कुछ इनाम देते और वेतन-वृद्धि का जब कभी अवसर आता, उसका विशेष ध्यान रखते। परन्तु इस विभाग की वेतन-वृद्धि ऊसर की खेती है। बड़े भाग से हाथ लगती है। बस्ती के लोग उनसे सन्तुष्ट थे। लड़कों की संख्या बढ़ गयी थी और पाठशाला के लड़के भी उन पर जान देते थे। कोई उनके घर आकर पानी भर देता, कोई उनकी बकरी के लिए पत्तियां तोड़ लाता। पंडितजी इसी को बहुत समझते थे।

एक बार सावन के महीने में मुंशी बैजनाथ और ठाकुर अतिबलसिंह ने श्री अयोध्याजी की यात्रा की सलाह की। दूर की यात्रा थी। हफ्तों पहले से तैयारियां होने लगी। बरसात के दिन, सपरिवार जाने में अड़चन थी, परन्तु स्त्रियां किसी भांति भी न मानती थी। अन्त में विवश होकर दोनों महाशयों ने एक-एक सप्ताह की छुट्टी ली और अयोध्या जी चले। पंडितजी को भी साथ चलने के लिए बाध्य किया। मेले-ठेले में एक फ़ालतू आदमी से बड़े काम निकलते। पंडितजी असमंजस में पड़े, परंतु जब उन लोगों ने उनका व्यय देना स्वीकार किया तो इंकार न कर सके और अयोध्याजी की यात्रा का ऐसा सुअवसर पाकर न रुक सके।

बिल्हौर से एक बजे रात को गाड़ी छूटती थी। यह लोग खा-पीकर स्टेशन पर आ बैठे। जिस समय गाड़ी आयी, चारों और भगदड़-सी पड़ गयी – हज़ारों यात्री जा रहे थे। उस उतावली में मुंशीजी पहले निकल गए। पंडितजी और ठाकुर साहब साथ थे। एक कमरे में बैठे। इस आफ़त में कौन किसका रास्ता देखता है।

गाड़ियों में जगह की बड़ी कमी थी, परन्तु जिस कमरे में ठाकुर साहब थे उसमें केवल चार मनुष्य थे। वह सब लेटे हुए थे। ठाकुर साहब चाहते थे कि वह उठ जाएं तो जगह निकल आये। उन्होंने एक मनुष्य से डांटकर कहा- ‘उठ बैठो जी, देखते नहीं हम लोग खड़े हैं।

मुसाफिर लेटे-लेटे बोला‒ क्यों उठ बैठें जी? कुछ तुम्हारे बैठने का ठेका लिया है?

ठाकुर- ‘क्या हमने किराया नहीं दिया है?’

मुसाफिर- ‘जिसे किराया दिया हो, उससे जाकर जगह मांगो।’

ठाकुर- ‘ज़रा होश की बातें करो। इस डिब्बे में दस यात्रियों के बैठने की आज्ञा है।’

मुसाफिर- ‘यह थाना नहीं है, ज़रा ज़बान संभाल कर बातें कीजिए।’

ठाकुर- ‘तुम कौन हो जी?’

मुसाफ़िर- ‘हम वही है, जिस पर आपने खुफ़िया फ़रोसी का अपराध लगाया था और जिसके द्वार से आप नकद 25 रु. लेकर टले थे।

ठाकुर- ‘अहा! अब पहचाना। परन्तु मैंने तो तुम्हारे साथ रियायत की थी, चालान कर देता तो तुम सजा पा जाते।’

मुसाफ़िर- ‘और मैंने भी तो तुम्हारे साथ रियायत की कि गाड़ी में खड़ा रहने दिया। ढकेल देता तो तुम नीचे जाते और तुम्हारी हड्डी-पसली का पता न लगता।’

इतने में दूसरा लेटा हुआ यात्री जोर से ठट्ठा मारकर हंसा और बोला- ‘और क्यों दारोग़ा साहब, मुझे क्यों नहीं उठाते?’

ठाकुर साहब क्रोध से लाल हो रहे थे। सोचते थे अगर थाने में होता तो इनकी जबान खींच लेता, पर इस समय बुरे फंसे थे। वह बलवान मनुष्य थे पर यह दोनों मनुष्य भी हट्टे-कट्टे दिख पड़ते थे।

ठाकुर- ‘सन्दूक नीचे रख दो, बस जगह हो जाये।’

दूसरा मुसाफिर बोला- ‘और आप ही क्यों न नीचे बैठ जायें। इसमें कौन-सी हेठी हुई जाती है। यह थाना थोड़े ही है कि आपके रौब में फ़र्क पड़ जाएगा।’

ठाकुर साहब ने उनकी ओर भी ध्यान से देखकर पूछा- ‘क्या तुम्हें भी मुझसे कोई बैर है?’

‘जी हां, मैं तो आपके खून का प्यासा हूं।’

‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा हैं, तुम्हारी तो सूरत भी नहीं देखी।’

दूसरा मुसाफिर- ‘आपने मेरी सूरत न देखी होगी पर आपके डंडे ने देखी है। इसी कल के मेले में आपने मुझे कई डंडे लगाये। मैं चुपचाप तमाशा देखता था पर आपने आकर मेरा कचूमर निकाल दिया। मैं चुप रह गया, पर घाटा दिल पर लगा हुआ है। आज उसकी दवा मिलेगी।’

यह कहकर उसने और भी पांव फैला दिया ओर क्रोध-पूर्ण नेत्रों से देखने लगा। पंडितजी अब तक चुपचाप खड़े थे। डरते थे कि कहीं मार-पीट न हो जाये। अवसर पाकर ठाकुर साहब को समझाया। ज्यों ही तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर साहब ने बाल-बच्चों को वहां से निकालकर दूसरे कमरे में बैठाया। इन दोनों दुष्टों ने उनका असबाब उठा-उठाकर ज़मीन पर फेंक दिया। जब ठाकुर साहब गाड़ी से उतरने लगे तो उन्होंने उनको ऐसा धक्का दिया कि बेचारे प्लेटफार्म पर गिर पड़े। गार्ड से कहने दौड़े थे कि इंजिन ने सीटी दी, जाकर गाड़ी में बैठ गये।

उधर मुंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागते गुज़ारी। ज़रा पैर फैलाने की जगह न थी। आज उन्होंने जेब में बोतल भरकर रख ली थी। प्रत्येक स्टेशन पर कोयला पानी ले लेते थे। फल यह हुआ कि पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ गया। एक बार उल्टी हुई और पेट में मरोड़ होने लगी। बेचारे बड़ी मुश्किल में पड़े। चाहते थे कि किसी भांति लेट जाएं, पर वहां पैर हिलाने को भी जगह न थी। लखनऊ तक तो उन्होंने किसी तरह जब्त किया। आगे चलकर विवश हो गये। एक स्टेशन पर उतर पड़े। प्लेटफार्म पर लेट गए। पत्नी भी घबरायी।

बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा परन्तु जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गयी। गाड़ी चल दी। दारोगाजी ने अपने मित्र को इस दशा में देखा तो वह भी उतर पड़े। समझ गए कि हजरत आज ज्यादा चढ़ा गए। देखा तो मुंशीजी की दशा बिगड़ गयी थी। ज्वर, पेट में दर्द, नसों में तनाव, कै और दस्त। बड़ा खटका हुआ। स्टेशन मास्टर ने यह हाल देखा, तो समझे, हैजा हो गया है। हुक्म दिया, रोगी को अभी बाहर ले जाओ। विवश होकर लोग मुंशीजी को एक पेड़ के नीचे उठा लाए। उनकी पत्नी रोने लगी। हकीम-डॉक्टर की तलाश हुई। पता लगा कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ़ से वहां एक छोटा-सा अस्पताल है। लोगों की जान-में-जान आयी। किसी से यह भी मालूम हुआ कि डॉक्टर साहब बिल्हौर के रहने वाले हैं। ढाढ़स बंधा। दारोगाजी अस्पताल दौड़े। डॉक्टर साहब से समाचार कह सुनाया और कहा – आप चलकर ज़रा उन्हें देख तो लीजिए।

डॉक्टर का नाम था चोखे लाल। कम्पौंडर थे, लोग आदर से डॉक्टर कहा करते थे। सब वृत्तान्त सुनकर रुखाई से बोले- ‘सबेरे के समय मुझे बाहर जाने की आज्ञा नहीं है।’

दारोग़ा- ‘तो क्या मुंशीजी को यही लाएं?

चोखेलाल- ‘हां, आपका जी चाहे लाइए।’

दारोग़ाजी ने दौड़-धूप कर एक डोली का प्रबन्ध किया। मुंशीजी को लादकर अस्पताल लाये। ज्योंही बरामदे में पैर रखा, चोखे लाल ने डांटकर कहा- ‘हैजे (विसूचिका) के रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा नहीं।’