पप्पा ने हमें बुलाया नहीं। कहने से चाचाजी ले जाएँगे? पर इस बार जाएँगे ज़रूर, चाहे कुछ भी हो जाए। कांत मामा को लिखूँ, वे लेते जाएँगे?कल सवेरे दस बजे फैसला है। हम दोनों कांत मामा के साथ आ गए। धर्मशाला में छोड़कर मामा, पप्पा को लेने चले गए। पूरी उम्मीद थी कि इस बार अम्मा ज़रूर आएँगी; पर वह नहीं आईं। मामा ने इतना ही कहा : ‘उसकी हालत लाने जैसी नहीं थी…। फैसला हो जाए तो तुम लोग वहीं चलना।’ पता नहीं, अम्मा किस हालत में हैं! मन बार-बार काँप उठता है। मामा कुछ छिपा रहे हैं। मैंने भी अम्मा से कितना कुछ छिपा रखा है! आज कौन किसके बारे में सही बात जानता है? दूसरे को हलका रखने के लिए सब अपने-अपने दुख से ही भारी हो रहे हैं। पप्पा आए तो मैं और मुन्नू उनसे लिपट गए हैं। कैसे हो गए हैं पप्पा? शायद पप्पा को भी हम लोग ऐसे ही लग रहे होंगे। कितने-कितने आँसू बह गए हम तीनों के? कांत मामा भी रो पड़े।
शाम को दादी-बाबा भी आ गए। रात में मुन्नू दादी से पूछ रहा था : ‘दादी, अब तो हम पप्पा के पास ही रहेंगे न? तुम इतनी पूजा करती हो, अपने भगवान से कहो कि हमारे पप्पा को छोड़ दें।’
‘हाँ बेटा, अब तू पप्पा के पास ही रहेगा। रात-दिन भगवान से यही तो कहती हूँ।’‘चाची के पास तो मैं अब कभी नहीं जाऊँगा। टिल्लू अपने को समझता क्या है? मैं अपने पप्पा के पास रहूँ और फिर आ जाए! हरेक चीज़ में पछाड़ सकता हूँ-पढ़ने में भी, कुश्ती में भी। पहले फर्स्ट भी आया हूँ एक बार क्लास में… क्यों दीदी, आया था न?’मेरी आँखें भीग आईं। कितने दिनों बाद मुन्नू को उसके असली रूप में देख रही हूँ! टिल्लू ने उसे चिढ़ाया था तो इसने कुछ नहीं कहा था, चुपचाप भीतर बैठकर रोया था। शायद जानता था कि टिल्लू को कुछ भी कहने का अर्थ है चाची की मार। पर मुझे कितना बुरा लगा था उस दिन! कहाँ चली गई मुन्नू की बाल-सुलभ ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धी की भावना? क्या इतनी-सी उम्र में हम लोग सब-कुछ सहने के लिए ही बने हैं?
मुन्नू दादी की खाट पर ही सो गया। मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आई। कल फैसला है हम सबकी किस्मत का फैसला। कांत मामा बहुत आश्वस्त हैं; पर पप्पा के चेहरे पर तो कोई भाव ही नहीं!
फैसला हो गया। मैं भी कचहरी गई थी। इस बार किसी ने रोका भी नहीं। वहाँ खास भीड़ नहीं थी। पप्पा में भला घरवालों के सिवा किसे दिलचस्पी हो सकती थी? पप्पा कठघरे में खड़े थे, हम कुर्सियों पर बैठे जज साहब के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। जज साहब आए तो बाबा ने आँखें मूंद लीं। अम्मा का सिर नीचा था। वह ज़रूर मन-ही-मन प्रार्थना कर रही होंगी। मैं मुन्नू का हाथ कसकर दबाए बैठी थी और मुझे लग रहा था कि अब और देरी होगी तो मेरी साँस भी घुट जाएगी।
कानूनी भाषा में जज साहब ने क्या-क्या कहा, मुझे कुछ समझ में नहीं आया; पर आख़िरी वाक्य समझ में आ गया : ‘मुजरिम को रिहा किया जाता है…।’ मैं मुन्नू की हाथ हवा में उछालकर एक तरह से चीख ही पड़ी : ‘मुन्नू, पापा रिहा हो गए… रिहा हो गए।’ पर एकाएक ही दादी और बाबा फूट-फूटकर रो पड़े। मैं भय से काँप उठी, कहीं मैंने ग़लत तो नहीं सुन लिया! पिछली बार भी तो ये लोग इसी प्रकार रोते-रोते घर में घुसे थे। पर बाबा का यह वाक्य : ‘मैं कहता न था बेटे, भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं, देख…।’पर पप्पा को क्या हुआ है? वह खुश क्यों नहीं हो रहे? उनका भाव-हीन चेहरा, गढ़े में धंसी हुई निस्तेज, निर्जीव आँखों में से खुशी की चमक क्यों नहीं आ रही? वह ऐसी पथराई आँखों से बाबा को देख रहे हैं मानो उन्हें बाबा की बात ही समझ में नहीं आ रही हो।मैं दौड़कर पप्पा से चिपट गई : ‘पप्पा, अब बरी हो गए! सुनते हैं, आपको सज़ा नहीं हुई… सज़ा नहीं हुई है आपको!’ पर पप्पा फिर भी वैसे ही रहे, मानो उन्हें विश्वास ही नहीं रहा हो रहा है कि उन्हें सज़ा नहीं हुई।
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सजा: मन्नू भंडारी की कहानी
