Saja by Mannu Bhandari
Saja by Mannu Bhandari

दो दिन मैं स्कूल नहीं गई। जब गई तो मेरी सभी सहेलियाँ हमदर्दी दिखाने लगीं। पर वह हमदर्दी बिल्कुल नहीं थी। हमदर्दी क्या ऐसे कहकर दिखाई जाती है : ‘हाय-हाय, बेचारी के पिता को जेल हो गई!’ आपस में दबी-दबी जबान में कहती : ‘इतने बड़े लोग भी चोरी करते हैं? तभी ठाठ थे आशाजी के!’ मेरा जी होता, चीख-चीखकर सबसे कहूँ कि पप्पा ने कुछ नहीं किया है, बस, इस समय उनके ग्रह बिगड़े हुए हैं। ग्रह जब बिगड़ जाते हैं तब क्या नहीं हो जाता? रामचंद्रजी ने कौन चोरी की थी, फिर भी चौदह साल का बनवास काटा या नहीं? पांडवों ने क्या किया था, फिर भी अज्ञातवास भोगा या नहीं? तब? जब ग्रह बिगड़ते हैं तो राजा को भी सब-कुछ भोगना पड़ता है। इतनी-सी बात ये लोग क्यों नहीं समझती? अम्मा ने मुझे समझाया कि अभी हमारे बुरे दिन हैं, जो भी आए, चुपचाप सहन कर लो और मैं समझ गई। तभी तो उन लोगों से कुछ नहीं कहती थी। पर उनको कभी समझ नहीं आया। शायद बुरे दिनों में ही समझ बढ़ती है। खैर, तभी कांत मामा आ गए। वह इंग्लैंड से जैसे ही लौटे, सीधे घर आ गए थे। कितना बिगड़े थे बाबा और चाचाजी पर कि यह सब कैसे हो गया? आज के ज़माने में तो गुनाहगार अपने को साफ बचाकर ले जाते हैं। लाखों हजम करके मूंछों पर ताव देते घूमते हैं। फाइलों की फाइलें गायब करवा देते हैं। और एक ये हैं कि बिना गड़बड़ किए सज़ा भोगने जा रहे हैं। बिना अपराध किए भी बाबा अपराधी की भाँति चुपचाप सिर नीचा किए सब सुनते रहे। वह बेचारे कानून के छक्के-पंजे क्या जानें? जब नहीं सुना जाता तो रो पड़ते। उस समय मुझे कांत मामा का व्यवहार ज़रा भी अच्छा नहीं लगता था, पर कुछ कह भी तो नहीं सकता था कोई। वह हाईकोर्ट में अपील मंजूर करवाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे। इंग्लैंड से लौटकर कांत मामा अपने को बहुत समझने लगे थे, शायद बहुत-कुछ होकर भी आए थे।

उन्होंने सचमुच अपील मंजूर करवा दी। मैं सोच रही थी, अब पप्पा कितना प्यार करेंगे हमें! कितने दिनों से घर में मनहूसियत छाई हुई है, वह दूर हो जाएगी। हमारे अच्छे दिन लौट आएँगे। सब लोगों के आ जाने से हमें तो कोई पूछता ही नहीं था। एकाएक जैसे हम कुछ नहीं रहे। मैं फिर भी कुछ समझती थी पर मुन्नू नहीं समझता, किसी भी चीज़ की ज़िद कर बैठता। मैं उसे समझाती : भैया, अभी हमारे बुरे ग्रह आए हुए हैं, किसी भी चीज़ की ज़िद नहीं करते।’ पर वह ग्रह-व्रह कुछ नहीं मानता और रोये ही चला जाता। अपील मंजूर होने पर मैंने सोचा था, अब हमारे बुरे दिन टल गए, अब सब-कुछ पहले-जैसा हो जाएगा। तब मैं नहीं जानती थी कि अपील मंजूर हो जाना मुकदमा जीतना नहीं होता मुक़दमे की शुरुआत होती है-असली लड़ाई, असली परीक्षा।

पप्पा थोड़ी देर बाद चाचा के साथ ताँगे पर आए थे और आते ही बात करना तो दूर, बिना किसी की ओर देखे, चुपचाप, नीची नज़र किए वह ऊपर चले गए। सब लोग सकते में आ गए। कैसे हो गए हैं पप्पा! किसी की हिम्मत ही नहीं हुई कि ऊपर जाए। आखिर दादी ने अम्मा को भेजा। अम्मा थोड़ी देर में ही लौट आई : ‘दरवाज़ा ही नहीं खोलते। बहुत खटखटाया तो यही कहा-चली जाओ, मुझे अभी परेशान मत करो।’यों घरवालों के साथ रोई मैं रोज़ ही थी; पर उस दिन पहली बार मेरा मन रोया था, अपनी पूरी समझ के साथ रोया था। क्या हो गया है मेरे पप्पा को? पच्चीस दिनों बाद घर में घुसे और प्यार करना तो दूर रहा, हमारी ओर देखा तक नहीं! बार-बार मन कहने लगा-यह मेरे पप्पा नहीं हैं। वह ऐसे हो ही नहीं सकते। जेलवालों ने उन्हें बदल दिया है। एक अजीब-सा भय मन में समाने लगा कि अब शायद पप्पा कभी प्यार नहीं करेंगे। और सचमुच उसके बाद मैंने कभी उनका प्यार नहीं पाया, आज तक नहीं। इस कार्ड में क्या वह एक पंक्ति भी हमारे लिए नहीं लिख सकते थे? यों में उनकी इस उदासीनता और तटस्थता को समझती भी हूँ। शायद वह अब किसी से मोह नहीं रखना चाहते। कहीं फिर सज़ा हो गई तो?शाम को सब लोग ऊपर गए। दरवाज़ा तो खोला पप्पा ने, पर बात किसी से नहीं की थी। बस, तकिए में मुँह गड़ाकर पड़े रहे थे। मुझे डर लग रहा था, जैसे वह रो रहे हैं। पर हमें तुरंत नीचे भेज दिया गया था। कितना-कितना गुस्सा आया था उस समय! पप्पा हमारे हैं और ये सब इस तरह कर रहे हैं मानो हम कुछ हैं ही नहीं। पप्पा पर पहला हक़ मेरा है, और वह भी सारी दुनिया में मुझे ही सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं। मैं मनाने लगी थी कि ये सब लोग जल्दी से जल्दी अलीगढ़ से चले जाएँ तो अच्छा हो। तभी शायद पप्पा पहले की तरह प्यार करेंगे। सबके सामने शायद उन्हें शर्म आती है। शर्म की बात तो है ही। स्कूल में मुझे क्या कम शर्म आती थी!

पप्पा के घर आने के बाद मामा और चाचाजी चले भी गए। दादी और बाबा तो घर के ही हैं, पर पप्पा फिर भी नहीं उतरे। उस रात अम्मा को सोने के लिए ऊपर भेजा। वह सवेरे उठकर आईं तो बोली : ‘माँ जी, मुन्नू को आप गाँव लेती जाइए, वहाँ के स्कूल में डाल दीजिए। यहाँ तो अब उसकी फ़ीस जुटाना भी भारी पड़ेगा। आशा का तो इस साल फाइनल है; वरना उसे भी उमेश भैया के पास भेज देती। नीचे का घर अब खाली कर देंगे।’ फिर और पता नहीं क्या-क्या बातें हुईं दोनों में और फिर दोनों खूब रोईं, खूब रोईं। मैं किसी को भी रोता देखती तो बिना कारण जाने ही रोने लगती। फिर उस समय तो रोने का बहुत बड़ा कारण भी था-मुन्नू चला जाएगा! कैसे रहेगा वह गाँव में? वहाँ का स्कूल भी कोई स्कूल है! यहाँ इतने अच्छे स्कूल में पढ़ा। पप्पा वैसे चाहे सारे दिन चुपचाप पड़े रहें, पर इस मामले में कभी चुप नहीं रहेंगे।
पर पप्पा कुछ नहीं बोले। शायद अम्मा-पप्पा ने साथ बैठकर ही यह सब तय किया था। रो-धोकर मुन्नू भी चला गया। हाँ, जाते समय पप्पा ने उसे सीने से लगाकर बहुत प्यार किया था। मैं पास ही खड़ी रही थी। पप्पा की आँखों से आँसू टपक रहे थे। मेरा बड़ा मन कर रहा था कि मैं आँसू पोंछ दूँ-उनके दु:ख को दूर करने के लिए नहीं, पप्पा का प्यार पाने के लिए। मुन्न दूर जाकर भी पप्पा के कितने पास हो गया; मैं पास रहकर भी शायद हमेशा से दूर ही रहूँगी! पर पप्पा छोड़ने नीचे नहीं आए। कोई स्टेशन भी नहीं गया। जाता ही कौन? अम्मा अकेली निकलती नहीं, और मैं जाती तो लौटती कैसे?