Stree-Subodhinee by Mannu Bhandari
Stree-Subodhinee by Mannu Bhandari

Hindi Story: प्यारी बहनो, न तो मैं कोई विचारक हूँ, न प्रचारक, न लेखक, न शिक्षक। मैं तो एक बड़ी मामूली-सी नौकरीपेशा घरेलू औरत हूँ, जो अपनी उम्र के बयालीस साल पार कर चुकी है। लेकिन इस उम्र तक आते-जाते जिन स्थितियों से मैं गुज़री हूँ, जैसा अहम अनुभव मैंने पाया… चाहती हूँ, बिना किसी लाग-लपेट के उसे आपके सामने रखूँ और आपको बहुत सारे ख़तरों से आगाह कर दूं। मैं जानती हूँ कि अपने जीवन के निहायत ही निजी अनुभवों को यों सरेआम कहकर मैं खुद अपने लिए बहुत बड़ा खतरा मोल लूँगी। मेरे मात्र पाँच साल के अल्पकालीन विवाहित जीवन पर भी संकट आ सकता है। पर क्या करूँ, मेरा नैतिक दायित्व मुझे ललकार रहा है कि अपनी हज़ार-हज़ार मासूम किशोरी बहनों को… जो या तो ऐसी ही स्थिति में पड़ी हैं या कि कभी भी पड़ सकती हैं… अपने अनुभव से कुछ नसीहत दूँ, बरबादी की ओर जाने से बचा लूँ, ख़तरा उठाकर भी यदि मैं दो-चार बहनों की…

क्या कहा, आपकी दिलचस्पी बेकार की लफ़्फ़ाजी में नहीं है! आप असली बात जानना चाहती हैं! बहुत अच्छे! लफ़्फ़ाजी के प्रति यदि आपके मन में अरुचि है, तो यह शुभ लक्षण है। बहुत शुभ। आप शर्तिया बहुत सारे खतरों से बची रहेंगी। साँप का काटा और बातों का मारा व्यक्ति बेचारा उठ ही नहीं पाता। मुझे ही देखिए, मेरी जो दुर्दशा हुई थी, उसका कारण…

अच्छा-अच्छा, अब एक भी बेकार की बात नहीं। बिना किसी लाग-लपेट के सीधी बात सुनिए। सीधी और सच्ची!
मेरा अपने बॉस से प्रेम हो गया। वाह! आपके चेहरों पर तो चमक आ गई! आप भी क्या करें? प्रेम कम्बख़्त है ही ऐसी चीज़। चाहे कितनी ही पुरानी और घिसी-पिटी क्यों न हो जाए… एक बार तो दिल फड़क ही उठता है… चेहरे चमचमाने ही लगते हैं। खैर, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं थी। डॉक्टरों का नर्सों से, प्रोफेसरों का छात्राओं से, अफसरों का अपने स्टेनो-सेक्रेटरी से प्रेम हो जाने का हमारे यहाँ आम रिवाज है। यह बात बिलकुल अलग है कि उनकी ओर से इसमें प्रेम कम और शगल ज्यादा है, पर वह बात तो बहुत बाद में समझ में आई। मैंने तो अपनी ओर से पूरी ईमानदारी के साथ ही शुरू किया था। ईमानदारी और समर्पण के साथ।
शिंदे नए-नए तबादला होकर हमारे विभाग में आए थे। बेहद खुशमिजाज़ और खूबसूरत। आँखों में ऐसी गहराई कि जिसे देख लें, वह गोते ही लगाता रह जाए। बड़ा शायरा अंदाज़ था उनका और जल्दी ही मालूम पड़ गया कि वे कविताएँ भी लिखते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में वे धड़ाधड़ छपती भी रहती हैं और इस क्षेत्र में उनका अच्छा-खासा नाम है। आयकर विभाग की अफ़सरी और कविताएँ हैं न कुछ बेमेल-सी बात! पर यह उसके जीवन की हक़ीक़त थी।

मैं स्थितियों और उम्र के उस दौर से गुजर रही थी, जब लड़कियों में प्रेम के लिए विशेष प्रकार का लपलप भाव रहता है। बूढ़ी माँ तीनों छोटे भाई-बहनों को लेकर गाँव में रहती थी और मैं इस महानगरी में कामकाजी महिलाओं के एक होस्टल में। न घर का कोई अंकुश था और न इस बात की संभावना कि वे कहीं मेरा ठौर-ठिकाना लगा पाएँगे। मेरा ठिकाना वे लगाते भी क्या, उनकी जिंदगियाँ ठिकाने लगी रहें, और घर की मशीन जैसे-तैसे चलती रहे, इसके लिए मुझे ही हर महीने मनीऑर्डर में तेल डालकर भेजना पड़ता था। सब ओर से असुरक्षित और असहाय होकर ही मैंने जिंदगी के सत्ताईस साल पूरे कर लिए और एकाएक मुझे लगने लगा कि नहीं, इस तरह अब और नहीं चलेगा। हर रोज़ हज़ार-हज़ार इच्छाएँ मुँह-बाए खड़ी रहतीं और मैं उसके सामने ढेर हो जाती। आखिर मैंने अपनी नाक और आँखों को कुछ अधिक सजग और तेज कर लिया। बस, ऐसा करते ही मुझे हर नौजवान की नज़रों में अपने लिए विशेष संकेत दिखने लगे और उनकी बातों में विशेष अर्थ और आमंत्रण की गंध आने लगी। तभी भिड़ गया शिंदे। उसके तो संकेत भी बहुत साफ़ थे… निमंत्रण भी बहुत खुला। लगा, किस्मत ने छप्पन पकवानों से भरी थाली मुझ भुक्कड़ के आगे परोसकर रख दी है। सो मैंने न उसका आगा-पीछा जानने की कोशिश की और न अपना आगा-पीछा सोचने की। बस, आँखें मूँदी और प्रेम की डगर पर चल पड़ी।