बीवी की याद और बात से ही शिंदे अपना चेहरा एकदम मायूस बना लेता और बिना कहे ही मेरे दिमाग में यह बिठाने की कोशिश करता कि बीवी बनते ही औरत बहुत उबाऊ और त्रासदायक बन जाती है…कि रिश्तों में बँधते ही प्रेम नीरस और बेजान हो जाता है… कि सच्चे प्रेमियों को तो हमेशा मुक्त ही रहना चाहिए।
मैं इन सब बातों को सुनती-समझती तो सही, पर गले नहीं उतार पाती, क्योंकि बीवी बनने की ललक जब-तब मेरे भीतर ज़ोर मारती थी। सच बात है, मुझे तो घर भी चाहिए था, पति भी और बच्चे भी। पर उसे तो जैसे बीवी नाम से ही चिढ़ हो गई थी। कभी-कभी तो वह अपनी बीवी के कर्कश स्वभाव और तुनकमिज़ाजी की बात करते-करते रो तक पड़ता। तब मैं लपककर उसे बाँहों में भरती, अपने होंठों से उसके आँसू पोंछती और उसे हौसला बँधाती कि जल्दी ही हम कुछ ऐसा करेंगे कि वह इस दुःख से मुक्त हो जाएगा कि मैं उसे एक सही, सुखद जिंदगी दूँगी। यह आश्वासन उसके लिए कम, मेरे अपने लिए ज़्यादा होता था।
दिन सरकते जा रहे थे और अपने प्रेम करने के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के बावजूद स्थिति जहाँ-की-तहाँ थी यानी कि मैं अपने हॉस्टल के कमरे में बंद, शिंदे अपनी बीवी की मुट्ठी में। साल भर पहले का जागा आत्मविश्वास फिर डगमगाने लगा और मुझे लगा कि अब कोई कार्यक्रम अपनाना पड़ेगा।
आज सोचती हूँ तो अपने पर ही सौ-सौ धिक्कार के साथ आश्चर्य भी होता है कि कैसे मेरी बुद्धि पर ऐसा मोटा परदा पड़ गया था कि यह भी नहीं सोच सकी कि उसकी बीवी भी आखिर मेरी तरह ही एक स्त्री है… अपने पति के छलावे और मक्कारी की शिकार। पर नहीं, यह तो तब समझ में आया जब उसकी मक्कारी ने मुझे भी तबाही के कगार पर ला पटका। झूठ नहीं बोलूँगी, उस समय तो उसके प्रेम में अंधी होने के कारण, वह जो कुछ भी कहता-समझाता, मुझे उस पर पूरा यकीन ही नहीं होता बल्कि मैं भी उसी की तरह दुनियाभर के छलछंद सोचा करती। तभी तो मैंने सोचा कि उसकी बीवी को हमारे प्रेम-प्रसंग की जानकारी तो अवश्य होगी… वह काफ़ी दुःखी भी होगी… क्यों न मैं जब-तब वहाँ उपस्थित होकर उसके त्रास को इतना बढ़ा सकूँ कि वह खुद ही इस अपमानजनक स्थिति को नकारकर अलग हो जाए। रकीब को सामने देखकर अच्छों-अच्छों के हौसले पस्त हो जाते हैं, फिर अपमान और उपेक्षा की आग में झुलसी इस औरत का हौसला ही क्या होगा! और यही सोचकर आखिर मैं एक दिन शिंदे के घर जा धमकी।
एक सुहागिन औरत की सारी नियामतों यानी बूढ़े ससुर के वरदहस्त की छत्र-छाया और बच्चे के पोतड़ों की बंदनवार के बीच, दूधों नहाई पूतों फली भाव से वह कुर्सी पर विराजमान थी। मुझे देखकर उसके चेहरे पर किसी तरह का कोई विकार नहीं आया। बस, सहजता में लिपटा एक प्रश्नवाचक उभरा और ‘हरखू, इन्हें बिठाओ और साहब से बोलो, कोई मिलने आया है’ के साथ बिला गया। विकार तो मुझे देखकर शिंदे के चेहरे पर आया, जिसे उसने थोड़ी-सी कोशिश करके अफ़सरी नक़ाब के नीचे ढक लिया। दफ्तरी भाषा में दफ़्तरी बातें करके उसने मुझे चलता किया। पर बाहर निकलते समय हाथ दबाकर लाड़ में लिपटी हलकी-सी-फटकार के साथ शाम को कमरे पर आने का निमंत्रण भी दे दिया। मैं उसकी बीवी को त्रस्त करने गई थी, पर खुद ही त्रस्त और पस्त होकर लौटी। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि यह औरत है या मांस का लौंदा? इसका आदमी तीन साल से एक दूसरी लड़की के साथ मस्ती मार रहा है और इसे न कोई तकलीफ़, न कष्ट! मैं इसकी जगह होऊँ तो शायद एक दिन भी इस तरह की अपमानजनक स्थिति को बर्दाश्त न करूं। इसके शरीर पर चमड़ी लिपटी है या गेंडे की खाल? यह तो मुझे बहुत बाद में अपने अनुभव ने सिखाया कि अधिकतर शादी-शुदा औरतें ऐसी होती हैं, जिन्हें अपने घर की दीवारों से बेशुमार लगाव होता है। इतना ज़्यादा कि धीरे-धीरे उन दीवारों को ही अपने शरीर के चारों ओर लपेट लेती हैं। फिर मान-अपमान के सारे हमले उनसे टकराकर बाहर ही ढेर हो जाते हैं और वे उनसे बे-असर सती-साध्वी-सी भीतर सुरक्षित बैठी रहती हैं।
शाम को शिंदे मुझ पर एकदम बरस पड़ा कि मैंने उसके घर जाने की मूर्खता क्यों की? कितना चौकस रहना पड़ता है उसे हर समय, जिससे उसकी बीवी को इस प्रसंग की हवा भी न लग सके, वरना तो वह शूर्पनखा की तरह ऑफ़िस, परिवार और सारे शहर में हड़बौंग मचाकर रख देगी। मौका लगा तो मेरा झोंटा पकड़कर सड़क पर जूते लगवाएगी, और बड़ी चालाकी से उसने मेरे मन में अपनी पत्नी के लिए, जिसे वह अक्सर कोतवाल कहता था-ढेर सारी नफ़रत और आक्रोश भर दिया। साथ ही जल्दबाज़ी करने की अपनी नादानी-भरी मूर्खता पर मुझे बेहद शर्मिंदा भी किया।
देखा आपने कि कैसे शातिराना अंदाज़ से पुरुष नफ़रत और गुस्से की सुई अपनी ओर से सरकाकर दोनों औरतों की ओर घुमा देता है। वे ही आपस में लड़ें-भिड़ें, कोसें-गलियाएँ और वह जो असली गुनहगार है, अपने पर आँच आए बिना आराम से दोनों का सुख भोगता रहे। पर उस समय तो मैं जब-जब बहुत अधीर होती, वह समझाता कि सहजीवन का मधुरतम पक्ष तो हम भोग ही रहे हैं, मैं क्यों बेकार में शादी-ब्याह और घर में जकड़कर इस मधुर संबंध का गला घोंटना चाहती हूँ। और इसी चक्कर में वह मधु उँडेलती हुई तीन-चार फड़कती हुई कविताएँ मेरे नाम ठोक देता। मीठी-मीठी पप्पियों के बीच बड़ी ऊँची-ऊँची बातें मेरे जह्न में बिठा देता। कुछ समय के लिए मुझे लगने लगता कि मैं आम औरत से कुछ अलग, कुछ विशिष्ट, कुछ ऊँची हूँ। मेरे कंधों पर स्त्री-पुरुष के संबंधों को एक नई दिशा देने का दायित्व है। अगली पीढ़ी अधिक स्वस्थ, अधिक मुक्त जिंदगी जी सके, इसके लिए हमें पहल करनी होगी, एक उदाहरण रखना होगा-चाहे उसके लिए हमें खाद ही क्यों न बनना पड़े। शिंदे तो ये बातें झाड़कर मज़े से अपनी बीवी का बगलगीर हो जाता और मैं असली अर्थों में खाद बनी अपने कमरे में सड़ती रहती। तभी शिंदे का तबादला हो गया। मैं एक बार फिर डगमगा गई। मुझे लगा कि बस, अब यह मेरी जिंदगी से निकला। रो-रोकर मेरा बुरा हाल था, पर फिर उसने मुझे हाथों-हाथ झेल लिया। एक नई योजना से मेरे आँसू पोंछ दिए। तय हुआ कि नई जगह अभी वह अकेला ही जाएगा और उसके जाने के तीन-चार दिन बाद ही मेडिकल-लीव लेकर मैं उसके पास पहुँच जाऊँगी। उसने मुझे बताया कि उसने यह तबादला करवाया ही इसीलिए है कि शहरी तबादला उसकी जिंदगी के तबादले की भूमिका बन जाए। यह तो मुझे बाद में मालूम पड़ा कि शिंदे ने तबादला इसलिए करवाया था कि हमारे संबंधों की सुरसुराहट उसकी बीवी के कानों तक पहुँचने लगी थी। बात पूरी तरह खुले, उसके पहले ही वह शहर छोड़ देना चाहता था। पर मैं तो यह समझकर कि केवल मेरी खातिर शिंदे ने बड़े शहर की बड़ी संभावनाओं को छोड़ छोटी जगह चुनी है, एकदम, निहाल हो गई और उसकी बातों के जादू में बँधी-बँधी एक सप्ताह बाद ही उसके पास पहुँच गई।
आपको बहुत गलत लग रहा है न? लगना ही चाहिए। अब तो मुझे भी लगता है। पर उस समय गलत-सही की समझ ही कहाँ रह गई थी! मैं उसे पाना चाहती थी और वह मुझे खोना नहीं चाहता था। उसके साथ होटल में गुजारे वे दिन! मैं तो भूल ही गई कि हम दोनों के बीच कोई तीसरा भी है। तबीयत एकदम लहलहा उठी। उस बार उसने बाकायदा योजना बनाई कि पत्नी को अब यहाँ न बुलाकर उसके पिता के घर भेज देगा और धीरे-धीरे उसे कानूनी कार्रवाई करने के लिए राजी कर लेगा… यदि नहीं हुई तो, मजबूर करेगा। पंखों पर सवार होकर ही मैं लौटी थी। आँखों में उसने ढेर सारे अपने आँज दिए थे और उठते-बैठते मुझे अपना स्वीट-होम ही दिखाई देता। मैंने उसे एक फड़कता हुआ प्रेम-पत्र लिखा। बातों का तो वह बादशाह था ही, पत्र लिखने में भी उसे कमाल हासिल था। शरीरों में जो दूरी आ गई थी, उसे वह पत्रों की भाषा से पाटता रहता। पत्रों में मुझे वह ‘दिव्य-प्रेम’ का दर्शन समझाता। मेरे जन्म-दिन पर अपने इसी दिव्य-प्रेम में डुबोकर उसने एक खूबसूरत-सा तोहफा मेरे लिए भेजा। कभी वह चाँदनी रात के गीत लिखकर भेजता, तो कभी साथ बिताए मधुर क्षणों की याद को ताज़ा करनेवाली कविताएँ।
जानता था कि इन बातों से मुझे तसल्ली नहीं होगी, इसलिए तसल्ली देने के लिए वह खुद सशरीर आ पहुँचा। ऑफ़िस का काम निकालकर वह जब-तब आ ही जाया करता था। उसने आँखों में सचमुच के आँसू भरकर कहा कि मैं ही शिंदे की प्राण हूँ, शिंदे की प्रेरणा हूँ। घर-परिवार के अतिरिक्त शिंदे का जो कुछ भी है और वही तो असली शिंदे है-वह उसने मुझे पूरी तरह सौंप रखा है और तुरंत उसने अपनी बात का प्रमाण पेश कर दिया-मुझे समर्पित किया हुआ अपना नया कविता-संग्रह। हाथ से लिखा हुआ था-‘प्राण को।’
उसकी प्रेरणा और प्राण बनने का हश्र यह हुआ कि वह तो दिन-दूना रात-चौगुना फलता रहा। धन-यश-सफलता, मान-सम्मान सभी का मालिक और मैं भीतर-ही-भीतर झुलसकर काठ का कुंदा हो गई। सब ओर से मरी, मुरझाई, टूटी और पस्त! मैं समझ गई कि मैं बुरी तरह ठगी गई हूँ!धीरे-धीरे उम्र की बढ़ोतरी और ऑफिस और दुनियादारी की निरंतर बढ़ती ज़िम्मेदारियों के बीच शिंदे की रोमानी ज़रूरत घटती चली गई। परिणाम यह हुआ कि हमारे बीच चलनेवाले पत्रों की संख्या कम और मजमून मौसम के सर्द-गर्म होने पर आकर टिक गया। और फिर एक दिन उसके पास से गृह-प्रवेश का निमंत्रण-पत्र मिला। जाने का कोई तुक नहीं था, फिर भी मैं चली गई। महज़ सारी स्थिति का जायजा लेने के लिए।
लंबा-चौड़ा आधुनिक ढंग का बना हुआ मकान। लकदक फर्नीचर। बीवी निकलकर आई, तो लगा, यह कोई दूसरी औरत है। शरीर पर चर्बी की तीन-बार परतें चढ़ी हुई और परम तृप्ति का एक डकार भाव सारे चेहरे पर पुता हुआ। आठ साल का एक सुंदर-सा बच्चा भी निकलकर आया। लगा, जैसे शिंदे ने ही अपने को पूरी तरह उँडेल दिया हो उसमें। हू-ब-हू शिंदे।और मेरा मन हो रहा था कि शिंदे के दोनों कंधे झकझोरकर पूछूँ–‘राम धुन की तरह तुम मेरी हो, तुम मेरी हो’ की रट लगानेवाले शिंदे साहब, बताइए तो, आपकी जिंदगी के इस सारे तामझाम में मैं कहाँ हूँ… मैं कितनी हूँ? पर पूछकर अब होना ही क्या था? मैं लौट आई, इस अहसास के साथ कि प्रेम के इस खेल में वह एक सधे हुए खिलाड़ी की तरह खेला और मैं निहायत अनाड़ी की तरह। आठ साल तक चलनेवाला प्रेम-प्रसंग महज़ एक खिलवाड़ था, जिसकी बाज़ी बड़ी होशियारी से शिंदे ने बाँटी। भ्रमजाल के कटते ही नज़र साफ हुई, तो बाज़ी में बँटे हुए पत्तों का यह नक्शा रह-रहकर मेरी आँखों में उभरने लगा :
तुरुप का इक्का यानी घर… उसके पास तुरुप का बादशाह यानी बच्चा… उसके पास तुरुप की बेगम यानी बीवी और प्रेम करने के लिए प्रेमिका… उसके पास तुरुप का गुलाम यानी नौकर-चाकर गाड़ी बंगला… उसके पास लब्बो-लुबाब यह कि तुरुप के सारे पत्ते उसके पास और मुझे मिले उसके दिए हुए छक्के-पंजे, यानी टोटके की तरह पुड़िया में बँधे, दार्शनिक लफ्फाजी में लिपटे हवाई प्यार के चंद जुमले। इन टटपूँजिए पत्तों के सहारे मैं ज़्यादा-से-ज्यादा इतना ही कर सकती थी कि जिंदगी-भर उसकी पूँछ पकड़े रहती और उसे ही अपनी उपलब्धि समझ-समझकर संतोष करती। मन बहुत घबराता, तो उसी पूँछ से हवा करके उसके साथ बिताए मधुर क्षणों पर जमी समय की धूल उड़ाकर कुछ समय के लिए अपना खालीपन भर लेती। पर भला बताइए, इससे कहीं जिंदगी चल सकती थी? यह तो लाख-लाख शुक्र है खुदा का कि मेरी तहस-नहस जिंदगी को नए सिरे से सँवारने के लिए…लेकिन छोड़िए, इस प्रसंग की कोई जरूरत नहीं। निहायत हवाई बातें पल्ले से बाँधे-बाँधे मैंने अपनी जिंदगी को बरबादी के कगार पर ला पटका था। अब चाहती हूँ, ठेठ दुनियादारी की बातें अपनी हज़ार-हज़ार मासूम किशोरी बहनों के पल्ले से बाँध दूँ, जिससे वे मेरी तरह भटकने से बच जाएँ।-इस देश में प्रेम के बीज मन और शरीर की ‘पवित्र भूमि’ में नहीं, ठेठ घर-परिवार की उपजाऊ भूमि में ही फलते-फूलते हैं।-भूलकर भी शादीशुदा आदमी के प्रेम में मत पड़िए। ‘दिव्य’ और ‘महान प्रेम’ की खातिर बीवी-बच्चों के दाँव पर लगानेवाले प्रेम-वीरों की यहाँ पैदावार ही नहीं होती। दो नावों पर पैर रखकर चलने वाले ‘शूरवीर’ ज़रूर सरेआम मिल जाएँगे।–हाँ, शादीशुदा औरतें चाहें, तो भले ही शादीशुदा आदमी से प्रेम कर लें। जब तक चाहा प्रेम किया, मन भर गया तो लौटकर अपने खूँटे पर।–न कोई डर, न घोटाला, जब प्रेम में लगा हो शादी का ताला!
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