Jab Haar Gayi by Mannu Bhandari
Jab Haar Gayi by Mannu Bhandari

Hindi Story: जब कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ, तो सारा हॉल हँसी-कहकहों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। शायद मैं ही एक ऐसी थी, जिसका रोम-रोम क्रोध से जल रहा था। उस सम्मेलन की अन्तिम कविता थी, ‘बेटे का भविष्य।’ उसका सारांश कुछ इस प्रकार था, एक पिता अपने बेटे के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए उसके कमरे में एक अभिनेत्री की तस्वीर, एक शराब की बोतल और एक प्रति गीता की रख देता है और स्वयं छिपकर खड़ा हो जाता है। बेटा आता है और सबसे पहले अभिनेत्री की तस्वीर को उठाता है। उसकी बाँछे खिल जाती हैं। बड़ी हसरत से उसे वह सीने से लगाता है, चूमता है और रख देता है। उसके बाद शराब की बोतल से दो-चार घुँट पीता है। थोड़ी देर बाद मुँह पर अत्यंत गंभीरता के भाव लाकर, बगल में गीता दबाये बाहर निकलता है। बाप-बेटे की यह करतूत देखकर उसके भविष्य की घोषणा करता है, ‘यह साला तो आजकल का नेता बनेगा!’

कवि महोदय ने यह पंक्ति पढ़ी ही थी कि हॉल के एक कोने से दूसरे कोने तक हँसी की एक लहर दौड़ गई। पर नेता की ऐसी फजीहत देखकर मेरे तो तन-बदन में आग लग गई। साथ आये हुए मित्र ने व्यंग्य करते हुए कहा, ‘क्यों, तुम्हें तो यह कविता बिल्कुल पसंद नहीं आई होगी? तुम्हारे पापा जो एक बड़े नेता हैं!’

मैंने गुस्से में जवाब दिया, ‘पसंद! मैंने आज तक इससे भद्दी और भोंडी कविता नहीं सुनी!’
अपने मित्र के व्यंग्य की तिक्तता को मैं खूब अच्छी तरह पहचानती थी। उनका क्रोध बहुत कुछ चिलम न मिलनेवालों के आक्रोश के समान ही था। उसके पिता चुनाव में मेरे पिताजी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़े हुए थे और हार गए थे। उस तमाचे को वे अभी तक नहीं भूले थे। आज यह कविता सुनकर उन्हें दिल की जलन निकालने का अवसर मिला। उन्हें लग रहा था मानो उसके पिता का हारना भी आज सार्थक हो गया। पर मेरे मन में उस समय कुछ और ही चक्कर चल रहा था। मैं जली-भुनी जो गाड़ी में बैठी, तो सच मानिए, सारे रास्ते यही सोचती रही कि किस प्रकार इन कवि महाशय को करारा-सा जवाब दूं। मेरे पापाजी के राज में ही नेता की ऐसी छीछालेदार भी कोई चुपचाप सह लेने की बात थी भला। चाहती तो यही थी कि कविता में ही उनको जवाब दूँ, पर इस ओर कभी कदम नहीं उठाया था सो निश्चय किया कि कविता नहीं, तो कहानी ही सही। अपनी कहानी में मैंने एक ऐसे सर्वगुण-संपन्न नेता का निर्माण करने की योजना बनाई, जिसे पढ़कर कवि महाशय को अपनी हार माननी ही पड़े। भरी सभा में वो जो नेहला मार गए थे, उस पर मैं देहला, नहीं, सीधे इक्का ही फटकारना चाहती थी, जिससे बाजी हर हालत में मेरी हो रहे।

यही सब सोचते-सोचते मैं कमरे में घुसी, तो दीवार पर लगी बड़े-बड़े नेताओं की तस्वीरों पर नज़र गई। सबके प्रतिभाशाली चेहरे मुझे प्रोत्साहन देने लगे। सब नेताओं के व्यक्तिगत गुणों को एक साथ ही मैं अपने नेता में डाल देना चाहती थी, जिससे वह किसी भी गुण में कम न रहने पाये। पूरे सप्ताह तक मैं बड़े-बड़े नेताओं की जीवनियाँ पढ़ती रही और अपने नेता का ढाँचा बनाती रही। सुना था और पढ़कर भी महसूस किया कि जैसे कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, वैसे ही महान आत्माएँ गरीबों के घर ही उत्पन्न होती हैं। सो सोच-विचारकर एक शुभ मुहूर्त देखकर मैंने, सब गुणों से लैस करके अपने नेता का जन्म गाँव के एक गरीब किसान की झोपड़ी में करा दिया।

मन की आशाएँ और उमंगें जैसे बढ़ती हैं, वैसे ही मेरा नेता भी बढ़ने लगा। थोड़ा बड़ा हुआ, तो गाँव के स्कूल में ही उसकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। यद्यपि मैं इस प्रबंध से विशेष संतुष्ट नहीं थीं, पर स्वयं ही मैंने ऐसी परिस्थिति बना डाली थी कि इसके सिवाय कोई चारा नहीं था। धीरे-धीरे उसने मिडिल पास किया। यहाँ तक आते-आते उसने संसार के सभी महान व्यक्तियों की जीवनियाँ और क्रांतियों के इतिहास पढ़ डाले। देखिए, आप बीच में ही यह मत पूछ बैठिए कि आठवीं का बच्चा इन सबको कैसे समझ सकता है? यह तो एकदम अस्वाभाविक बात है। इस समय मैं आपके किसी भी प्रश्न का जवाब देने की मनःस्थिति में नहीं हूँ। आप यह न भूलें कि यह बालक एक महान भावी नेता है। हाँ, तो यह सब पढ़कर उसके सीने में बड़े-बड़े अरमान मचलने लगे, बड़े-बड़े सपने साकार होने लगे, बड़ी-बड़ी उमंगें करवटें लेने लगीं। वह जहाँ-कहीं भी अत्याचार देखता, मुट्ठियाँ भींच-भींचकर संकल्प करता, उसको दूर करने की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाता और मुझे उसकी योजनाओं में, उसके संकल्पों में अपनी सफलता हँसती-खेलती नज़र आती। एक बार जानकर ख़तरा मोल लेकर मैंने जमींदार के कारिंदों से भी उसकी मुठभेड़ करा दी, और उसकी विजय पर उससे अधिक हर्ष मुझे हुआ।

तभी अचानक एक घटना घट गई। उसके पिता की अचानक मृत्यु हो गई। दवा-इलाज के लिए घर में पैसा नहीं था, सो उसके पिता ने तड़प-तड़पकर जान दे दी और वह बेचारा कुछ भी न कर सका। पिता की इस बेबसी की मृत्यु का भारी सदमा उसको लगा। उसकी बूढ़ी माँ ने रोते-रोते प्राण तो नहीं, पर आँखों की रोशनी गंवा दी। घर में उसकी एक विधवा बुआ और एक छोटी क्षयग्रस्त बहन और थी। सबसे भरण-पोषण का भार उस पर आ पड़ा। आय का कोई साधन था नहीं। थोड़ी-बहुत ज़मीन जो थी, उसे जमींदार ने लगान-बकाया निकालकर हथिया लिया। उसके पिता की विनम्रता का लिहाज करके अभी तक चुप बैठा था। अब क्यों मानता? उसके क्रान्तिकारी बेटे से वह परिचित था। सो अवसर मिलते ही बदला ले लिया। अब मेरे भावी नेता के सामने भारी समस्या थी। वह सलाह लेने मेरे पास आया। मैंने कहा, ‘अब समय आ गया है। तुम घर-बार और रोटी की चिन्ता छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग जाओ। तुम्हें देश का नवनिर्माण करना है। शोषितों की आवाज़ को बुलंद करके देश में वर्गहीन समाज की स्थापना करनी है। तुम सबकुछ सफलतापूर्वक कर सकोगे? क्योंकि मैंने सब आवश्यक गुण भर दिये हैं।’उसने बहुत ही बुझे हुए स्वर में कहा, ‘यह तो सब ठीक है, पर मेरी अन्धी माँ और बीमार बहन का क्या होगा? मुझे देश प्यारा है, पर ये लोग भी कम प्यारे नहीं।’

मैं झल्ला उठी, ‘तुम नेता होने जा रहे हो या कोई मज़ाक है? जानते नहीं, नेता लोग कभी अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते; वे देश के, संपूर्ण राष्ट्र के बारे में सोचते हैं। तुम्हें मेरे आदेश के अनुसार चलना होगा। जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्टा हूँ, तुम्हारी विधाता!’उसने सब-कुछ अनसुना करके कहा, ‘यह सब तो ठीक है, पर मैं अपनी अन्धी माँ की दर्द-भरी आहों की उपेक्षा किसी भी मूल्य पर नहीं कर सकता। तुम मुझे कहीं नौकरी क्यों नहीं दिला देती? गुजारे का साधन हो जाने से मैं बाकी सारा समय सहर्ष देश-सेवा में लगा दूँगा। तुम्हारे सपने सच्चे कर दूँगा। पर पहले मेरे पेट का कुछ प्रबन्ध कर दो।’

मैंने सोचा, क्यों न अपने पिताजी के विभाग में इसे कहीं कोई नौकरी दिलवा दूँ। पर पिता जी उदार नीति के कारण कोई जगह खाली भी तो रहने पाये! देखा तो सब जगहें भरी हुई थीं। कहीं मेरे चचेरे भाई विराजमान थे, तो कहीं फुफेरे। मतलब यह है कि मैं उसके लिए कोई प्रबंध न कर सकी। उसका मुँह तो चीर दिया, पर उसे भरने का प्रबन्ध न कर सकी। हारकर उसने मजदूरी करना शुरू कर दिया। जमींदार की नयी हवेली बन रही थी, वह उसमें ईंटे ढोने का काम करने लगा। जैसे-जैसे वह सिर पर ईंटे उठाता, उसके अरमान नीचे को धसकते जाते। मैंने लाख बार उसे यह काम न करने के लिए कहा, पर वह अपनी माँ बहन की आड़ लेकर मुझे निरुत्तर कर देता। मुझे उस पर कम क्रोध नहीं था। फिर भी मुझे भरोसा था, क्योंकि बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं और गुणों को मैंने उसको घुट्टी में पिला दिया था। हर परिस्थिति में वे अपना रंग दिखाएँगे। यह सोचकर ही मैंने उसे उसके भाग्य पर छोड़ दिया और तटस्थ दर्शक की भांति उसकी प्रत्येक गतिविधि का निरीक्षण करने लगी।

उसकी बीमार बहन की हालत बेहद खराब हो गई। वह उसे बहुत प्यार करता था। उसने एक दिन काम से छुट्टी ली और शहर गया, उसके इलाज के प्रबंध की तलाश में। घूम-फिरकर एक बात उसकी समझ में आई कि काफी रुपया हो तो उसकी बहन बच सकती है। रास्ते-भर उसकी रुग्ण बहन के करुण चीत्कार उसके हृदय को बेधते रहे। बार-बार जैसे उसकी बहन चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, ‘भैया! मुझे बचा ला! कहीं से भी रुपये का प्रबंध करके मुझे बचा लो, भैया! मैं मरना नहीं चाहती!’ … और सामने उसके बाप की मृत्यु का दृश्य घूम गया। गुस्से से उसकी नसें तन गईं। वह गाँव आया और वहाँ के जितने भी संपन्न लोग थे, सबसे कर्ज माँगा, मिन्नतें की, हाथ जोड़े; पर निराशा के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं मिला। इस नाकामयाबी पर उसका विद्रोही मन जैसे भड़क उठा। वह दिन-भर बिना बताये, जाने क्या-क्या संकल्प करता रहा और आधी रात के करीब दिल में निहायत ही नापाक इरादा लेकर वह उठा।
मैं काँप गई। वह चोरी करने जा रहा था। मेरे बनाये नेता का ऐसा पतन! वह चोरी करे! छी:-छी:! और इसके पहले कि चोरी जैसा जघन्य कार्य करके वह अपनी नैतिकता का हनन करता, मैंने उसका ही खात्मा कर दिया। अपनी लिखी हुई कहानी के पन्नों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।