मुन्नू के जाते ही हमारा घर सूना ही नहीं हुआ, उसमें बहुत कुछ रद्दोबदल भी हो गया; और फिर मन्नू ही क्यों, धीरे-धीरे सारा सामान भी चला गया। नीचे का मकान खाली कर दिया। खाना पकाना और सोना बरसाती में। पास की छोटी-सी कोठरी साफ़ करके मुझे पढ़ने के लिए मिली।पप्पा अब कुछ-कुछ बोलने लगे थे, पर पहलेवाले पप्पा वह बिल्कुल नहीं रह गए थे। बस, सारे दिन चुपचाप लेटे रहते या कुछ पढ़ते रहते। कभी-कभी गोदी में तकिया रखकर कुछ लिखते भी। मेरा बड़ा मन होता था कि देखूँ, वह क्या लिखते हैं, पर कभी हिम्मत नहीं हुई। कितनी ही बार पढ़ा था कि दु:ख में हिम्मत रखने वाले सच्चे वीर होते हैं। हँसते-हँसते जो सारे दुःखों को झेल जाए, वही सच्चा वीर पुरुष है। मेरा मन होता, पप्पा को यह बात समझाऊँ। पर क्या पप्पा यह सब नहीं जानते? फिर? इस तरह मुँह छिपाकर तो वह पड़ा रहे जिसने सचमुच चोरी की हो। पप्पा को बाहर निकलना चाहिए, घूमना-फिरना चाहिए। इस तरह रहकर तो वह सबके बीच अपने को अपराधी ही साबित कर रहे हैं। पर उन्हें कैसे समझाती?
अपनी कोठरी में और कोई कष्ट नहीं था, पर भयंकर गर्मी के दिन और पंखा नहीं। रात तो जैसे-तैसे छत पर कट जाती, पर दोपहर में तो छत पर बने ये कमरे भट्टी की तरह जलते थे। छुट्टियों के दिन बिताए नहीं बीत रहे थे। अपनी किसी सहेली के यहाँ जाने की इच्छा नहीं होती थी। पड़ोस तक में जाना छोड़ रखा था। दुःख में कोई साथी नहीं होता। बस, एक गाँठ बाँध रखी थी कि जब तक ये बुरे ग्रह टल नहीं जाते, तब तक सभी कुछ चुपचाप सहन करना है।
जुलाई में बाबा की चिट्ठी आई। मुन्नू को छठवें में भरती करवा दिया है और वह खुश है। हम सबने भी मान लिया कि वह खुश ही होगा। ऐसा मान लेने में ही हम सबकी खुशी थी। साथ ही बाबा ने यह भी लिखा था कि शाम को उन्होंने एक दुकान में हिसाब लिखने का काम शुरू कर दिया। पच्चीस रुपए मिलेंगे, जिन्हें वह पप्पा के पास भेज देंगे। पचास रुपए उमेश चाचाजी भेजेंगे। मेरे सामने बाबा का बूढ़ा शरीर, झुकी कमर और धुंध-भरी आँखें घूम गईं। इस बुढ़ापे में वह अब फिर से नौकरी करेंगे? अम्मा ने बताया कि इन पचहत्तर रुपयों में ही उन्हें घर चलाना है।तब मुझे भी पहली बार पप्पा पर गुस्सा आया कि क्यों उन्होंने सस्पेंशन के दौरान मिलनेवाली आधी तनख्वाह लेने से इंकार कर दिया? कितना समझाया था कांत मामा ने…चाचाजी तो एक तरह से नाराज़ ही हो गए थे, पर पप्पा की एक ही ज़िद, जब तक इस आरोप से मुक्त नहीं हो जाता, ऑफिस से एक पैसा भी नहीं लूँगा। मैंने स्कूल की बस छोड़ दी। तीन मील पैदल ही जाती थी। धूप हो या बारिश, चेहरे पर शिकन नहीं लाती थी। कभी-कभी सोचती, पप्पा को सस्पेंड हुए दो साल तीन महीने हुए, इतने दिनों में आखिर कितना खर्च हुआ कि बैंक का सारा रुपया निकल गया, अम्मा के सारे गहने बिक गए…और भी पता नहीं क्या-क्या चला गया! वकील लोग शायद बहुत लुटेरे होते हैं। कभी सोचती, इससे तो पप्पा सचमुच ही ऑफ़िस का रुपया मार लेते तो अच्छा होता। कम-से-कम मुन्नू को तो अपने पास रख सकते, और एक पंखा भी रख लेते। इस उम्र में चमड़ी जैसे उबली जाती है। ईमानदारी करके ही कौन बड़ा सुख मिल रहा है!
अम्मा को पता नहीं क्या हो गया था कि भीतर-ही-भीतर सूखती जा रही थीं। कहाँ तो कुछ नहीं करती थीं और कहाँ अब सारा काम हाथ से करने लगीं। पप्पा भी उनकी मदद करते थे, उस समय मुझे बड़ा अच्छा लगता था। उन दिनों अम्मा बहुत चिड़चिड़ी हो गई थीं। एक दिन उन्होंने मुझे ज़रा-सी बात पर पीट दिया। अपनी याद में पहली बार मार खाई थी और वह भी इस उम्र में। शरीर से ज़्यादा मन आहत हुआ। चोट से ज़्यादा इस बात का दु:ख था कि पप्पा बैठे देखते रहे, पर कुछ नहीं कहा। न अम्मा को मना किया, न मुझे ही प्यार किया।
अपनी कोठरी में बैठकर में घंटों रोई थी। हे भगवान, सब दुःख दो पर मेरे पप्पा को पहले जैसा कर दो। वह पहले की ही तरह काम करेंगे तो मैं सब-कुछ सह लूँगी।
सुनवाई की पहली तारीख ही छह महीने बाद की पड़ी थी। कांत मामा ने कोशिश तो बहुत की थी कि जल्दी-जल्दी सुनवाई हो जाए और फैसला हो जाए: पर कानून कांत मामा की इच्छा से नहीं, अपनी रफ्तार से चलता है। वकीलों का सारा खर्च मामा ही कर रहे हैं, ज़रूर मामी से छिपाकर कर रहे होंगे; वरना वह तो एक पैसा भी खर्च न करने दें। पहली सुनवाई बहुत अच्छी हुई थी। सर्दी में ठिठुरते हुए जब हमने यह ख़बर सुनी थी तो गर्मी की एक लहर ऊपर से नीचे तक दौड़ गई थी।
घर की हालत बद से बदतर होती जा रही थी, ख़ास कर अम्मा की! मुझे तभी लगता था कि कोई ऐसी बीमारी इन्हें लग गई है जो भीतर-ही-भीतर इन्हें खाए जा रही है। हाइजिन में रोग और उसके लक्षण पढ़ रखे थे और मुझे अम्मा के सारे लक्षण राजयक्ष्मा के-से लगते थे। सर्दी में वह जो ठंड खा गई तो चार महीने तक खाँसती ही रहीं।। बाबा की चिट्ठी आई : ‘हिम्मत रखना बेटा, बुरे दिन आते हैं, तो सब तरफ़ से आते हैं। पर ये दिन फिरेंगे ज़रूर। भगवान के घर देर हो सकती है, अंधेर नहीं।’
दूसरी सुनवाई अप्रैल में हुई। तारीखें जल्दी मिलती ही नहीं थीं। पप्पा को छूटे साल हो गया था और अभी केवल दो सुनवाई हुई थीं। इतने-इतने दिनों बाद ही यदि सुनवाई हुई तो एक साल और लग जाएगा। मेरा मन काँप-काँप जाता था। लगता था, अब ऐसे दिन नहीं काटे जाते : ‘मुन्नू गाँव में, पप्पा बरसाती में, मैं कोठरी में और अम्मा खाट पर। कैसे मैंने मैट्रिक का इम्तेहान दिया था, मैं ही जानती हूँ। फिर भी सेकेंड डिवीजन में पास हो गई। कोई खुशी मनानेवाला नहीं था। सबके मन ऐसे मर चुके थे कि न किसी बात की खुशी होती थी, न रंज।
जुलाई में नई समस्या आई। गाँव में तो केवल मिडिल स्कूल ही था। मुन्नू का अब क्या हो? मेरा अब क्या हो? यहाँ कॉलेज में जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। मैं जानती थीं कि बच्चों को पढ़ाना तो दूर, पचहत्तर रुपए में साथ रखकर खिलाना भी मुश्किल था। बाबा ने मुन्नू को सीधे उमेश चाचा के पास भेज दिया और खबर कर दी। यहाँ की स्थिति वह जानते थे। पप्पा वह पत्र पढ़कर सिहर उठे, अम्मा बहुत रोईं : ‘मैं छोरे को बे-पढ़ा ही रख लेती, वहाँ क्यों भेज दिया? एक बार उसे मुझसे मिला तो देते। लीला का स्वभाव कौन नहीं जानता? मेरा बच्चा सहम-सहमकर मर जाएगा?’ दो दिनों तक वह रोती रहीं। पप्पा अपराधी की तरह चुप बैठे रहते। अम्मा क्यों रोती हैं इस तरह? पप्पा यदि कुछ कर सकते हैं तो क्यों नहीं करते? दो दिनों बाद वह बोली : ‘मैं सोचती हूँ, आशा को भी वहीं भेज दो। वहीं कॉलेज में भर्ती हो जाएगी।’ मैं समझ नहीं पाई कि अम्मा व्यंग्य कर रही है या….पर अगले वाक्य ने ही सारी बातें साफ़ कर दी : ‘लीला का स्वभाव तो तुम जानते ही हो। आशा मुन्नू के पास रहेगी तो उसे तसल्ली तो रहेगी। रोने को एक गोद तो रहेगी।’ और अम्मा खुद फूट-फूटकर रोने लगी थीं। ‘उमेश भैया को लिख देना, जो भी वह खर्च करें, हम पर क़र्ज़ ही समझें। मैं उनकी पाई-पाई चुका दूँगी। भगवान कभी हमारे दिन भी बदलेगा ही, नहीं तो अपने को बेचकर उनका कर्ज अदा करूंगी। पर मेरे बच्चों पर थोड़ा रहम करें। ये दुखियारे यों ही अनाथ हो रहे हैं, थोड़ा प्यार इन्हें भी दे; थोड़ा लीला को भी समझा दें।’
कांत मामा अपने किसी काम से दिल्ली आए थे। लौटते समय अलीगढ भी उतरे। अम्मा ने उन्हीं के साथ मुझे इलाहाबाद भेज दिया था। कांत मामा ने एक बार कहा ज़रूर था : ‘कलकत्ता भेज दो, वहाँ पढ़ लेगी।’ पर क्या मैं पढ़ने जा रही थी? पढ़ना तो बस यों ही था। मुझे तो मुन्नू को तसल्ली देनी थी। वह रोये उसे अपनी गोदी में रुलाना था। और उस दिन मैं सचमुच बड़ी हो गई थी-अम्मा की तरह बड़ी। पर घर छोड़ते समय सारे बड़प्पन के बावजूद फूट पड़ी थी। अम्मा की हालत देखकर घर का अधिक काम मैंने सँभाल रखा था। अब क्या होगा? इस हालत में अम्मा कैसे सब काम करेंगी? रोज़-रोज़ के बुखार ने उन्हें हड्डियों की ठठरी बना दिया था। पर अम्मा को तसल्ली देनेवाले पप्पा हैं, रोने के लिए पप्पा की गोदी है। मुन्नू तो वहाँ अकेला है। अभी मेरी सबसे ज्यादा जरूरत मुन्नू को ही है। रास्ते में कांत मामा ने मुझसे पूछा थाः ‘शारदा को रोज़ बुखार रहता है। किसी डॉक्टर को दिखाया या नहीं?’ ‘नहीं।’ और मुझे रोना आ गया। ‘रोते नहीं बेटे, अब बहुत जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।’
‘पप्पा ने तो कई बार कहा था कि दिखा दो; पर अम्मा मानती ही नहीं। कहती हैं-डॉक्टर झूठमूठ को वहम डाल देते हैं।’मामा चुप हो गए थे। मामा क्या समझते नहीं : ‘अम्मा इसलिए नहीं दिखाती हैं कि डॉक्टर और दवाई का खर्च कहाँ से आएगा? वे लोग तो टॉनिक और दूध-फल बता देंगे, आराम करने और खुश रहने को कह देंगे। बोलो, यह सब हो सकेगा पचहत्तर रुपए में? मुझसे पूछो, इन दिनों में मैंने हिसाब चलाया है। एक-एक चीज़ गिना सकती थी। पर उनसे क्या कहती? वकीलों का सारा खर्च तो वह कर ही रहे हैं; और वकीलों पर कितना खर्च होता है, क्या मैं जानती नहीं? मुन्न मुझे देखते ही चिपट पड़ा था और रो दिया था। मुझे भी रोना आ गया था। चाची ने कुछ कहा ज़रूर था; पर अपने ही रोने में हमने सुना नहीं। मुन्नू को गले लगाकर मुझे कैसा लग रहा था, मैं नहीं बता सकती। इतना ज़रूर लगा कि उसे सचमुच किसी गोदी की ज़रूरत थी-किसी सहारे की। मैं चाची से बातें कर रही थी। उन्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा था, यह साफ था; पर मैं ही कौन अपनी इच्छा से आई हूँ। मुन्नू का रंग काफी साँवला पड़ गया था। चेहरा सूखकर मुरझा गया था और आँखें बड़ी सहमी-सहमी-सी थीं। लगा, बहुत डरकर-दबकर रहता है शायद यहाँ। घर में तो कितना ऊधम करता था! इतना-सा बच्चा, कैसे उसने अपने को बदला होगा, दबाया होगा? देखा, उसका काम था सालभर के बिट्टू को खिलाना। सारे दिन वह उसे गोदी में टाँगे-टाँगे फिरता। कब वह पढ़ता होगा, कब वह होमवर्क करता होगा।रात को जब वह सोने मेरे पास आया तो धीरे से बोला : ‘दीदी, कल मुझे बुढ़िया के बाल खिलाना। टिल्लू और पम्मी रोज़ खाते हैं। चाची उन्हें पैसे देती हैं और कहती हैं, छिपकर खा लिया करो। पर वे सामने ही खाते हैं। एक दिन टिल्लू मुझे चिढ़ाकर खा रहा था, मैंने उसके बाल छीन लिए। उसने चाची से शिकायत कर दी। चाची ने मुझे बहुत मारा। चाची बहुत ज़ोर से मारती हैं।’ और वह फिर सिसकने लगा। मैंने उसे प्यार किया और कहा : ‘मैं अपने भैया को बाल खिलाऊँगी।’ पर मेरा मन भीतर तक सिसक पड़ा। हम बड़े हैं, हम सब समझते हैं और सह भी सकते हैं। पर यह बेचारा सिसक पड़ा। समझ तो गया ही होगा, पर सहे कैसे?
पहली रात को ही मैंने संकल्प किया-मैं कॉलेज नहीं जाऊँगी। घर का सारा काम मैं करूँगी, जिससे चाची को पूरा आराम मिले और उनका गुस्सा ठंडा रहे। चाची कुछ भी कहेंगी तो चूँ तक नहीं करूंगी। वह प्रसन्न रहेंगी तो मुन्नू सुरक्षित रहेगा। मुन्नू को रात में बैठकर पढ़ाया करूँगी।
मैं चाची से भी जल्दी उठकर सबके लिए चाय बना देती। फिर जल्दी से टिल्लू और पम्मी को तैयार कर देती, तब नाश्ता देकर तीनों बच्चे को स्कूल भेज देती। नाश्ते की प्लेट देखने चाची ज़रूर आतीं। शायद उन्हें यह वहम रहता था कि मैं मुन्नू को कुछ ज्यादा या अच्छा न खिला दूँ। चाचा जी तारीफ करते : ‘तुम तो बड़ी होशियार हो आशा, इतना काम कर लेती हो।’ चाची तुरंत कहतीं : ‘मैं जब इतनी बड़ी थी तो बारह जनों के कुनबे को सँभालती थी। आध-आध मन के पापड़-मँगोड़ी करती थी।’ चुप रहती थी मैं तो। दोनों समय का खाना भी मैंने अपने ही जिम्मे कर रखा था।
रात में सोने जाती तो पैर मेरे झपकते रहते थे। कभी-कभी मुन्नू को अपने पैरों पर खड़ा कर लेती थी। उससे पैरों को तो आराम मिल जाता था, पर मन? अम्मा कभी-कभी मुझसे रसोई में काम करवाती थीं तो पप्पा डाँटते थे : ‘मैं अपनी आशा को डॉक्टर बनाऊँगा, विदेश भेजूँगा, यह भटियार-खाना करवाकर क्या मुझे अपनी बिटिया की जिंदगी खराब करनी है?’ यही वाक्य हवाओं में तैरकर कमरे में घूमता रहता, गूँजता रहता। धीरे-धीरे आदत पड़ गई तो पैरों का दर्द बंद हो गया और मन भी सुन्न होता चला गया।
मैंने अम्मा को नहीं लिखा कि मैं कॉलेज में भरती नहीं हुई हूँ। लिखने के लिए चाची जी ने मुझे चार पोस्टकार्ड दिए थे और बताया था कि हर महीने चार कार्ड मिलेंगे। उनमें मैं अपने कुशल-समाचार भेज देती थी, बस।
रात-दिन काम कर-करके मैं चाची के क्रोध को सँभाले रहती। आराम पाकर मुझ पर वह कुछ-कुछ प्रसन्न भी हो गई थीं; पर उनका हाथ जब-तब उठ जाया करता था-अपने बच्चों पर भी, मुन्नू पर भी। उनके बच्चे आदी थे, सो मार खाकर भी हँसते और भाग जाते। फिर वे मार खाते तो प्यार भी पाते थे। पर मुन्नू सहम जाता था। भीतर-ही-भीतर सिसकता। बड़ी करुण नज़रों से वह मुझे देखता। पर भीतर से कटकर भी मैं ऐसे अवसरों पर कुछ नहीं बोलती। सोचती, यों मार खा-खाकर मुन्नू या तो बेहद ढीठ हो जाएगा या जड़। पप्पा और अम्मा तो कभी हाथ भी नहीं लगाते थे हमारे। अकेले में मैं उसे प्यार कर लेती। समझाती : ‘थोड़े दिनों की बात और है भैया, फिर हम अपने घर चलेंगे, अम्मा और पप्पा के पास।’ प्यार कर लेती। पता नहीं, वह समझता भी था या नहीं। पर मेरा मन सबसे ज्यादा दुखी होता जब चाची गुस्से में कहती : ‘ऑफिस के बीस हज़ार गायब करके गाड़ दिए और हमारा खून चूस रहे हैं! ये हमारे बड़े हैं। लानत है ऐसे बड़प्पन पर!’ मैं सोचती, क्या सचमुच चाचाजी यही सोचते हैं कि पप्पा ने रुपए मारे हैं? यदि आज उसके पास पैसा होता तो क्या हमें यों छोड़ देते? और अपने सारे पिछले दिन आँखों के आगे घूम जाते। कितना प्यार करते थे पप्पा… कितना! मैं चाहे कुछ भी लिखूँ, पर क्या वह जानते नहीं कि हम पर यहाँ क्या गुज़र रही है?
31 तारीख को चाचाजी ने चाची के हाथ में तनख्वाह रखी तो चाची ने कहा : ‘अब भाई साहब को लिख दो कि पचास रुपए नहीं भेज सकेंगे। इस महँगाई के ज़माने में दो को पालना ही बहुत भारी पड़ रहा है, फिर हमारे भी तो बच्चे हैं। कौन यहाँ खान गड़ी है!’ बात ठीक थी, पर मेरा मन काँप गया। चाचीजी रुपए नहीं भेजेंगे तो क्या होगा? पच्चीस रुपए महीने में क्या होगा? इतना तो कमरे का किराया ही चला जाता है।
रोती हुई अम्मा और बिसूरते हुए पप्पा मुझे सारी रात दिखाई दिए। मैं भी उसके साथ बहुत रोई।
अम्मा का कोई पत्र ही नहीं आया बहुत दिनों तक। उठते-बैठते एक ही चिंता थी मुझे-अम्मा ने पैसे की क्या व्यवस्था की होगी? कांत मामा का भी कोई पत्र नहीं आया। पता नहीं, क्या हाल है उधर का?
पूरा अगस्त बीत गया। मैं अपने चारों कार्ड डाल चुकी; पर कोई जवाब नहीं आया। क्या हो गया है अम्मा को, लिखती क्यों नहीं? सितंबर में कांत मामा का पत्र आया : ‘शारदा की तबीयत खराब थी, सो उसे यहाँ ले आया। यहाँ उसका इलाज चल रहा है। दिनेश जी ने कमरा बदल लिया है, उनका पता…है। किस्मत के अलावा क्या कहूँ कि तारीख जल्दी नहीं मिलती। अगली तारीख इसी महीने के आखिर में पड़ी है। सुनवाई पर जाऊँगा। तुम घबराना मत। भगवान सब ठीक करेंगे। गर्मियों तक कुछ-न-कुछ अवश्य हो जाएगा।’
तो पप्पा अकेले रह गए? अम्मा की गोद भी छिन गई, जिसमें वे रो सकते थे। पप्पा का यह पता? अलीगढ़ की गली-गली मुझे मालूम थी? यह तो मजदूरों की बस्ती है। अँधेरी सीलन-भरी गलियाँ…पास में बहते नाले। पप्पा का खाना कौन बनाता होगा? उन्होंने तो कभी ऐसे काम नहीं किए। कभी अँगीठी भी जलाते तो अम्मा मना कर देती थीं। तब वह यही कह देते : ‘शारदा, कौन जाने कि इस बार छूट ही जाऊँगा। सज़ा हो गई तो पता नहीं क्या-क्या करना पड़ेगा….अम्मा बीच में ही डाँट देतीं : ‘ऐसी बात भी क्यों मुँह से निकालते हो? भगवान के घर देर हो सकती है, अंधेर नहीं।’ यह वाक्य अम्मा ने बाबा से सीखा था और मंत्र की तरह गाँठ बाँध ली थी।
और मैं भगवान से यही मनाया करती कि हे भगवान, उन्हें सज़ा न हो। पप्पा की तपस्या का फल उन्हें मिले। जो कुछ वह सह रहे हैं, वह क्या तपस्या से कम है? सीलन-भरी अँधेरी कोठरी में सबसे मुँह छिपाकर रहना, बच्चे कहीं, पत्नी कहीं, अब तो रहम करना। अब उन्हें सज़ा मत देना!
कांत मामा की चिट्ठी आई कि फैसला पक्ष में ही होगा। केस की पैरवी बहुत अच्छे ढंग से हुई है। बस, फैसले की तारीख़ पड़ जाए जल्दी से।
मैं बैठी-बैठी दिन गिनती। अपील के बाद मुकदमा चलते हुए चार साल हो गए। इन चार सालों में क्या कुछ नहीं हुआ! भगवान, देर तो बहुत की, अब अंधेर मत करना! यों यह देर भी अंधेर से कम नहीं, पर और अंधेर मत करना! मुन्नू और टिल्लू अपना-अपना रिजल्ट लेकर आए। टिल्लू सब विषयों में पास था और मुन्नू एक विषय में फेल होकर प्रमोट हुआ था। चाचाजी ने टिल्लू को प्यार किया, मुन्नू पास खड़ा आँसू-भरी आँखों से टुकुर-टुकुर ताकता रहा। चाची ने कहा : ‘फेल हो गया न? पढ़ने-लिखने में मन लगाओ मुन्नू साहब, तब टिल्लू की तरह पास होओगे। सारे दिन बैठे-बैठे टसुए बहाने से पास नहीं हुआ जाता।’ आँख के आँसू गालों पर ढुलक गए। कमीज़ की बाँह से उन्हें पोंछता हुआ वह भीतर जाने लगा तो टिल्लू चिढ़ाने लगा : ‘फेलूराम …फेलूराम!’ उस दिन पहली बार मेरे लिए अपने पर बस रखना बहुत कठिन हो गया था। मन हुआ, कह दूँ-‘उसे पढ़ने के लिए समय ही कहाँ मिलता है? सारे दिन तो बिट्टू को खिलाता है। पच्चीस चक्कर बाजार के करता है।’ पर चुप!
जाते-जाते मुन्नू ने एक बार चिढ़ाते हुए टिल्लू को ज़रूर जलती आँखों से देखा था। लगा, उठाकर एक हाथ मार देगा; पर न वह लौटा, न कुछ बोला ही। कैसे हो गया है मुन्नू इतना सहनशील? चुपचाप रहने का उपदेश उसे मैं ही दिया करती थी। पर अब वह यों सह जाता है तो सबसे ज़्यादा कष्ट मुझे ही होता है। कोई उपाय भी तो नहीं था। मुन्नू की छुट्टियाँ हो गईं। सोचती थी कि शायद कांत मामा या अम्मा का कोई पत्र आएगा कि तुम लोग आ जाओ, पर किसी ने कुछ नहीं लिखा। पप्पा तो कभी कुछ लिखते ही नहीं, अम्मा कभी-कभी दो लाइनें लिख देती : ‘मैं धीरे-धीरे ठीक हो रही हूँ, तुम चिंता मत करना। लीला को आशीर्वाद, बच्चों को प्यार। चाची की मदद करना, तंग मत करना।’ मुझे हर बार लगता था, कितनी झूठी चिट्ठी लिखती है अम्मा!
पर धीरज की अवधि खिंचते-खिंचते एक साल तक पहुँच गई। पिछले मार्च सुनवाई हुई थी और अब इस साल की अप्रैल है। अब तो मुझे लगने लगा था कि जैसे जिंदगी भर हमें इसी तरह रहना है, बस, इसी तरह। अब मैं कभी कॉलेज में पढ़ने नहीं जाऊँगी। मुन्नू हर साल एक विषय में फेल होकर जैसे-तैसे प्रमोट हुआ करेगा। अम्मा शायद हमेशा बीमार रहकर मामा के यहाँ इलाज ही करवाती रहेंगी। पप्पा वैसे ही सीलन-भरी बदबूदार कोठरी में अपना खाना पकाया करेंगे…। और तभी आज पप्पा की यह चिट्ठी आई-उसके हाथ की लिखी पहली चिट्ठी। मैंने हज़ार बार उसे देखा, पढ़ा, छुआ, जैसे उस कार्ड को छूकर पप्पा की हालत का ज्ञान हो जाएगा।
सजा: मन्नू भंडारी की कहानी
