Hindi Story: पप्पा का कार्ड आया है चाचाजी के नाम : ‘फैसले की तारीख 16 अप्रैल पड़ी है और इस बार निश्चित रूप से फैसला हो जाएगा, पहले की तरह स्थगित नहीं होगा। यदि छुट्टी मिल सके और असुविधा न हो तो दो दिन के लिए आ जाना।’मेरे और मुन्नू के लिए एक लाइन तक नहीं लिखी थी। न प्यार, न आने के लिए कुछ। पूरे साल में पप्पा का यह पहला कार्ड था और हमारे विषय में कुछ नहीं लिखा, जैसे उन्हें मालूम ही नहीं हो कि हम भी यहाँ हैं। क्या पप्पा ने अपने को इतना बदल लिया है? उन्होंने क्या बदल लिया है, शायद समय ने उन्हें बदल दिया है। उन्हें ही क्या, सबको बदल दिया। मैं क्या कम बदल गई हूँ? मुन्नू क्या कम बदला है? पता नहीं, अम्मा की क्या हालत होगी! ओह, इन पाँच सालों में क्या कुछ नहीं हो गया।
16 अप्रैल, आज से पाँच दिन बाद। मैं जाऊँगी, ज़रूर जाऊँगी। कांत मामा ने तो हर सुनवाई के बाद यही लिखा है कि इस बार फैसला पक्ष में होगा। हे भगवान, ऐसा ही हो।’ पर रह-रहकर मन काँप जाता है। पहली बार भी तो सब यही कहते थे। तब मैं एकदम नासमझ नहीं थीं, फिर भी ज़्यादा नहीं समझती थी। पप्पा और अम्मा तो हमेशा मुझे बच्ची ही समझते थे, इसीलिए शायद बड़ी ही नहीं हो पाती थी। इधर एकदम कितनी बड़ी हो गई हूँ। कानून की बातें समझने लगी हूँ। सात आदमियों का दोनों समय का खाना बना लेती हूँ। खाना ही नहीं, घर का भी तो काम करने लगी हूँ। मेरे साथ स्कूल में जो लड़कियाँ पढ़ती थीं, उनसे करवा लो देखें कोई भी काम! पर वे क्यों ये सब काम करें? भगवान कभी उन्हें ऐसे बुरे दिन न दिखाए! क्या पापा सचमुच छूट जाएँगे? पिछली बार जब फैसला हुआ था तब दादी, बाबा चाचा-सब आ गए थे। सब लोग कचहरी गए, पर हमें नहीं ले गए। मुन्नू को छोड़ जाते, वह सचमुच बच्चा था; पर मैं तो बड़ी थी, नवीं का इम्तिहान दे चुकी थी। मुझे पापा के सारे केस की बातें पता थीं, फिर भी मुझे नहीं ले गए थे। मैं और मुन्नू साँस रोककर सबके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। मैं खुद बहुत घबरा रही थी, पर मुन्नू को बराबर समझाती रही थी। और कोई चाहे मुझे बड़ा न समझता, पर वह तो समझता ही था। बारह बजे दादी और अम्मा ने रोते-रोते घर में प्रवेश किया। बाबा कुर्सी पर बैठकर, हथेलियों में मुँह छिपाकर, फूट-फूटकर रोने लगे : ‘हे भगवान तेरे राज में इतना अंधेर! मेरे निर्दोष बेटे को दो साल की सजा!’ सबको रोते देख हम दोनों भी खूब रोए।