Life Story in Hindi: “ माँ ये रही रामेश्वरम की दो टिकट्स ।आप दोनों को हम सभी की तरफ़ से विवाह की पचासवीं सालगिरह पर छोटा सा गिफ़्ट “
“ रामेश्वरम …..” अचानक मिले गिफ़्ट से मैंने हैरानी से अपने बेटे वरुण को देखा
“ हाँ माँ रामेश्वरम …मैं जानता हूँ वहाँ जाना आपकी सिर्फ़ खवाईश ही नहीं अपितु आपका सपना भी है“
“ पर ये तुम्हें कैसे पता चला ….? “ रामेश्वरम का नाम सुन कुछ मन में खटक गया“ आप नहीं बताएँगी तो क्या हमें पता नहीं चलेगा माँ ।” बेटी राधिका ने उत्तर दिया
“ माँ हम जानते है आप दोनों ने अपने जीवन में हम सभी के लिए, हमारी ख़ुशियों के लिए कितना त्याग किया है । अब आप लोगों को ख़ुशियाँ देने की हमारी बारी है ।घूम कर आइए रामेश्वरम,
और फिर अब तो मौक़ा भी है दस्तूर भी …आख़िर विवाह की पचासवीं सालगिरह है ,इससे अच्छा मौक़ा और क्या होगा “ वरुण ने राधिका का साथ दिया
“ फिर भी बताओ तो सही ,आख़िर तुम दोनो को पता कैसे चला “ मैंने बच्चों को बोलते हुए नवीन की तरफ़ देखा
“ अरे पापा ने कुछ नहीं बताया ..ये तो सस्पेन्स है माँ ..सस्पेन्स ।ओफ़ ओह आप आम खाइए ना पेड़ मत गिनिए ….”
“ रामेश्वरम …हम अकेले रामेश्वरम जा कर क्या करेंगे …और फिर परिवार के बिना कैसी
सालगिरह ,अरे बच्चों ….ये उम्र परिवार के साथ बिताने की है या फिर अकेले ..इसलिए सालगिरह तो हम परिवार के साथ मनायेंगे । रामेश्वरम हम फिर कभी चले जाएँगे ।क्यूँ गायत्री … “ वरुण की बात बीच में काट कर नवीन बोल कर मेरी तरफ देखने लगे ।
“ हूँ …” मैं बस इतना सा उत्तर दिया ।
नवीन की बात सुन कर मन में कुछ दरक सा
गया ।माना सालगिरह जैसे उत्सव बच्चों और परिवार के साथ मनाना अच्छा है पर …….।
फिर कभी …फिर कभी करते—करते तो उम्र बीत गयी नवीन ।अब ज़िंदगी ने मौक़ा दिया है तो चलो ना घूमने ।तो क्या हुआ अगर हमारी उम्र हो गयी ,क्या इस उम्र में घूमना ,साथ समय बिताना गुनाह है ? परिवार के नाम पर तो सब कुछ स्वाह कर दिया …सपने ,ख्वाहिशें ,उम्र ,अपना यौवन ..सब कुछ । क्या ..कुछ पल ज़िंदगी के हम एक-दूजे के नाम नही कर सकते….बुढ़ापे में ही सही ,अगर ईश्वर ने वो पल जीने का मौक़ा दिया है तो उसे जी लेने दो नवीन ,मुझे भी तो जीवन के कुछपल हमारे लिए चुराने दो ,मना मत करो ….मुझे मेरा सपना पूरा कर लेने दो ना …क्यूँकि नवीन ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा।” नवीन की बात सुन कर मेरा अंतर्मन अपने आप
से बातें करने लगा । न जाने क्यूँ अकेले रामेश्वरम जाने की बात सुन मन में दबी उमंगे जवान होने लगी थी । बरसों बाद शबनम की बूँदे एक बार फिर से मन को भिगोने लगीं थीं ।उस वक़्त मेरे भीतर एक औरत के सपने एक माँ पर भारी पड़ रहे थे ।रामेश्वरम के नाम पर मन पुन: यौवनावस्था में प्रवेश कर गया था ।
“ माँ घर की चिंता आप मत कीजिए ।वो हम सम्भाल लेंगे ।आप बस जाने की तैयारी
कीजिए “ बहू मेघा की आवाज़ से मन ख़्यालों से बाहर आया
“ नहीं नहीं जाएँगे तो सब जाएँगे वरना कोई
नहीं । ये कोई उम्र है अकेले जाने की ,लोग क्या कहेंगे .“ बनवाटी लहजे में बोल कर मैंने नवीन की ताल से ताल मिला दी,पर भीतर मन में अकेले जाने की इच्छा और प्रबल हो गयी ।क्या उम्रदराज़ लोगों को अपनी मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी जीने का कोई हक़ नहीं ? अपने सपनों में रंग भरने का कोई हक़ नहीं ..? मुख के निकल रहे और अंतर्मन से निकल रहे मेरे शब्दों बिलकुल भिन्न थे ।
अभी कुछ दिन पहले बच्चों के साथ बैठ कर ‘ ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ फ़िल्म देखते -देखते मुझे भी ज़िंदगी जीने का , अपने पंख फैला कर उड़ने का ,घूमने फिरने का ,सपने पूरे करने का मन
करने लगा था। बुढ़ापे में अठखेलियाँ …की सोच और लोक -लिहाज़ ने फिर मन के कदम बाँध दिए
पर अचानक बच्चों के इस गिफ़्ट से उमंगे फिर उड़ान भरने लगी थीं ।
बहुत बहसबाज़ी के बाद अंतत: हमारा अकेले जाना निश्चित हुआ ।मुझे तो जैसे मन की मुराद मिल गयी थी ।
रामेश्वरम जाने का मेरा वर्षों पुराना सपना सच हो रहा था ये सोच मेरी आँखें नम हो रहीं थीं ।
देवभूमि रामेश्वरम पहुँचते ही मेरा रोम -रोम प्रफुल्लित हो गया। कितनी पवित्र है यहाँ की फ़िज़ा ,कितना सुकून है हवाओं में ,ये वहाँ की धरती पर क़दम रखते ही महसूस हो रहा था। ख़ूबसूरत मनोरम वातावरण ..एकदम सरल ,हरे भरे नारियल के पेड़ निश्छल हवा …. किसी अन्य लोक में होने की अनुभूति करवा रहे थे। होटल में हमारा कमरा सागर तट पर था । बाहर बरामदे में बैठ कर सागर को देखना …कितना सुखद था ।लहरों की करकल और दूर दूर तक सागर का फैला आँचल…बचपन से जिस कल्पना लोक को मैंने अपने हृदय में सजाया था ,आज वो साक्षात मेरे समक्ष था। अनेकों अनेक लोककथाएँ जुड़ी हैं देवभूमि रामेश्वरम के साथ ,जिसे अम्मा -बाबा बचपन में खूब सुनाते थे ।बस तभी से हृदय में रामेश्वरम देखने का सपना सहेजा हुआ था। नहीं जानती थी इस इस जीवनकाल में वो सपना भी पूरा होगा ।
सुबह अपने नित्य नियमानुसार नवीन टहलने चले गए चले ,और मैं चाय के कप साथ उगते सूरज और सागर की ख़ूबसूरती में खो गयी ।सागर के गर्भ से उगता सूरज और चारों ओर छाई उसकी लालिमा जैसे किसी कवि की कल्पना का वर्णनप्रतीत हो रहा था । चंचल लहरों का संगीत बेहद कर्णप्रिय लग रहा था ।
जैसे—जैसे सूरज प्रकृति को अपने आग़ोश में समेट रहा था ,वैसे वैसे तट पर लोगों का मजमा लगने लगा था ।इनमे ज़्यादातर प्रेमी युगल थे जो सागर किनारे दुनिया से बेख़बर एक दूसरे में खोए अपने प्रेम का रसपान कर रहे थे । कोई हाथों में हाथ डाले घूम रहा था तो कोई आपस में कंधे से कंधे सटा गुफ़्तगू कर रहा था ।कितने प्रेमी युगल तो मस्ती में लहरों के साथ अठखेलियाँ कर रहे थे ।
प्रेम के ये दृश्य देख एक तरफ़ मुझे गुदगुदाहट हो रही थी दूसरी तरह मुझे कहीं एक ख़ालीपन का एहसास भी हो रहा था ।आज मेरे भीतर वो सोलह साल की अल्हड़ उम्र वाली लड़की का मन हिचकोले लेने लगा था ।प्रेम के जो एहसास इतने साल मेरे भीतर थे ,वे बाहर आने को व्याकुल होने लगे ।हर लड़की की तरह सपने तो मेरे भी थे पर सबके सपने पूरे करते-करते वे कहीं खो गए थे ।पचास साल बीत गए थे हमारे विवाह को । भीतर की ख़लिश ,प्रेम की चाहत आँखे नम करने लगी । धीरे-धीरे अतीत की मंजूषा खुलने लगी थी ।
अल्हड़ सी सोलह वर्ष की थी मैं जब मेरा नवीन से विवाह हुआ । उस ज़माने में लड़के -लड़की को विवाह से पहले एक दूसरे को जानने ,देखने और समझने की प्रथा नहीं थी ।उस वक़्त दाम्पत्य प्रेम का आधार पति का
घर -परिवार और समर्पण होता था ।
नवीन और मैं ,हम दोनों विपरीत स्वभाव के थे । मैं चंचल ,मस्त ,अल्हड़ स्वभाव की और नवीन अत्यंत गम्भीर ।हर लड़की की तरह मेरे भीतर प्रेम की उमंगे गुदगुदाती थीं ,और इन्हीं उमंगों के साथ मैंने नवीन के जीवन में प्रवेश किया ,पर नवीन के गम्भीर स्वभाव ने उन उमंगों को दबा दिया ।उस जमाने में प्रेम की अपनी अलग परिभाषा थी। पति के परिवार और उसके कर्तव्यों का निर्वाह ही पति-पत्नी के बीच प्रेम होता था।
अत्यंत गम्भीर स्वभाव के नवीन मुझसे भी अपने हृदय की बात यदा-कदा ही करते थे, प्रेम और उसके चुलबुलेपन का स्थान तो हमारे जीवन में था ही नहीं। वे अपने सभी भाई -बहनों में सबसे बड़े थे और बाबू जी के आकस्मिक समय से पहले मृत्यु के कारण पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी का दायत्वि उनके कंधों पर था । माँ की देखभाल ,भाई -बहनों की पढ़ाई -लिखाई ,फिर योग्य साथी तलाश कर उनका विवाह ..सभी कुछ करना था ।मैंने अपने अर्धांगनी होने का फ़र्ज़ पूरी निष्ठा से निभाया ।
कभी भी किसी को शिकायत का मौक़ा ही नहीं दिया ।इन्हीं कर्तव्यपरायणता के बीच मेरे और नवीन की बगिया में दो ख़ूबसूरत फूल खिलें -वरुण और राधिका ।क़ुदरत ने स्त्री को असंख्य गणों के साथ रचा है दूसरों की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी ढूँढना ..स्त्री का सबसे ख़ास गुण है ,मैं भी अपने परिवार की ख़ुशी में ख़ुश थी ।मेरी अपनी ख़ुशी ,अपनी ज़िंदगी ,सपने, ख्वाहिशें सब कर्तव्य की बलि चढ़ गए थे । पति के साथ अकेले घूमने जाना ,तन्हाइयों में बातें करना ,विवाहित जीवन के वो गुदगुदाते पल जीना …सब कुछ परिवार पर न्योछावर होता गया । समय अपने गति से बीत रहा था । धीरे -धीरे सभी भाई -बहनों का विवाह कर नवीन कर्तव्यनिर्वृत हो गए थे। इन्हीं सब के बीच कब वरुण और राधिका भी बड़े हो गए थे। पता ही नहीं चला । उचित समय पर दोनों का विवाह भी हो गया था और वे भी अपनी -अपनी गृहस्थी में मशगूल हो गए थे।
मैं अपने अतीत में विचरण कर रही थी की
मोगरे के फूलों की भीनी ख़ुशबू मुझे अतीत
से बाहर खींच लायी ।
नवीन मेरे बालों में मोगरे के फूलों का गजरा लगा रहे थे । उनका स्पर्श मुझे अंदर तक भीगो गया था ।मेरा तन सिहर गया था। हृदय में बरसों से जमी सिल्लियाँ पिघल रहीं थीं। प्रेम का ख़ालीपन नवीन के स्पर्श से भर रहा था ।गाल शर्म से लाल हो गए थे …पर आँखें भीग रही थी ।
“ चलो गायत्री ,हम भी ऐसे ही घूमते हैं , इन युगलों की तरह “ नवीन बोले
“ ऐसे ….” मैंने उन युगलों की तरफ़ देख कर बोला
“ हाँ ..तो क्या हुआ ,हम ऐसे नहीं घूम सकते
क्या? तो क्या हुआ हमारी उम्र हो गयी तो । बुढ़ापे में ऐसे घूमते देख लोग हँसेंगे तो हंसने दो ,जिसको जो कहना है कहने दो। वो कहते है ना ..कुछ तो लोग कहेंगे ..लोगों का काम है कहना। बूढ़े लोगों को अपने सपने पूरे करने का अधिकार नहींहै क्या ? बुढ़ापे में साथी का साथ कितना ज़रूरी होता है ।लोगों को क्या पता की हमने ज़िंदगी में कितना त्याग किया है,क्या खोया है ।
हमने सारा जीवन ,सारा यौवन , उम्र हमने अपने परिवार और उनकी ख़ुशियों पर न्योछावर कर दीं ।तुम्हारे साथ सपने तो मैंने भी देखे थे गायत्री ,किंतु फ़र्ज़ और कर्तव्य को पूरा करने में वो खो गए थे। हमें भी अपनी ज़िंदगी जीने का ,अपने सपने पूरे करने का हक़ है और अगर उसे पूरा करने के लिए हमारे हिस्से अगर बुढ़ापा आया है तो यही सही । बुढ़ापे में साथी का साथ कितना ज़रूरी है ..तो चलो यहीं से शुरुआत कर लेते हैं ,जी लेते हैं अपनी ज़िंदगी ।बच्चे अपने—अपने जीवन में व्यस्त हैं। एक -दूसरे के लिए हम हैं ,एक दूसरे के साथ के लिए , सुख-दुःख के हम है ,जहाँ अभी भी अधिकार जीवित है ।
इसलिए ज़्यादा सोचो मत ..चलो गायत्री… चलते है …क्यूँकि ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा “ कह कर नवीन ने मेरा हाथ थाम लिया ।
यह भी देखे-मिलारेपा की आज्ञाकारिता
