lekhak ki maut
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

कभी न कभी यह होना ही था। लोगों ने आपस में तय किया और सारे आईने तोड़ डालें। ध्यान रहे, यह ऐसा समय है जो छोटी-छोटी बातों से बड़ी-बड़ी बातों की तरफ बढ़ रहा है। लेखकों को लघुकथा से दीर्घकथा की तरफ बढ़ना चाहिए। कवियों को टुकड़ा-टुकड़ा काव्य जोड़ने के बजाए खंडकाव्य लिखना चाहिए परंतु आईने ही तोड़ डालने से उनका निरूपाय हो गया।

यह होना ही था। आईनों का निर्माण ही ऐसा बेशुमार हो गया कि उनके खिलाफ ऐसी प्रतिक्रिया कभी न कभी होनी ही थी। आईनों के निर्माण का दौर देश के इतिहास में छोटी-छोटी बातों का दौर है। अत्यंत रमणीय या रोमांटिक पीरियड नाम से साहित्य ने उसकी सुधि ली है लेकिन आईने इतनी बड़ी संख्या में बनने लगे कि लोगों की आजादी खतरे में पड़ गई। बार-बार ऐसा होने लगा कि हम बड़ी तल्लीनता से किसी आईने के सामने खड़े हैं और उसी समय पीछे से कोई आदमी उसके सामने के आईने में झांक रहा है और आगे-पीछे से उसका अक्स हमारे आईने में घुस रहा है। केवल पीछे ही नहीं, बल्कि दाँए-बाँए के आईनों में झांक रहे लोग भी हमारी तल्लीनता को भंग करते हैं। बाद में तो, न केवल पड़ोसी, बल्कि सीधे, आड़े-तिरछे, वक्राकार सभी ओर से आईने में झांकते लोग दिखाई देने लगे। आईना-फैक्टी के मालिकों ने फर्ज़ ही नहीं, छत भी आइने के बना डाले। आखिरकार मामला इतना बढ़ गया कि आईने में देखने की सार्थक क्रिया लोगों को निरर्थक लगने लगी और उन्होंने खुद आगे बढ़कर आईने तोड़ डाले। लोग ऐसे परेशान और क्रुद्ध हो गए थे कि कहीं भी देखने की उनकी इच्छा नहीं हो रही थी। उन्होंने सबसे पहले लेखकों की दुकानें बंद की। अनेकों ने आगे बढ़कर दुकानों के पटरे बंद किए। कुछ नामचीन लेखकों के मॉल थे। वहां दाखिल होने पर ऐसा जान पड़ता था मानो शीशमहल में आए हों। कई रंग-बिरंगे दीये, झूमर, छवियों को प्रतिबिंबित करनेवाली कलात्मक वस्तुएं वगैरह की एक दमकती दुनिया वहां साकार हो गई थी। लोगों ने इन मॉलों में आग लगा दी और सभी को वहां से खदेड़ दिया।

एक लेखक अकेला था। उसकी न बाहर कोई दुकान थी और न ही मॉल में। वह दिन भर घूम-फिरकर आने के बाद अपने घर में ही बैठकर लिखता। सुना है, उसकी कलम की स्याही में पारा मिला हुआ था। उसने इस आईने-तोड़ आंदोलन को रोकने की भरसक कोशिश की। बीच रास्ते में खड़ा होकर वह जोर-जोर से समझाने लगा लेकिन यह उसका पागलपन था, जिसका नतीजा तुरंत उसे भुगतना पड़ा। लोगों ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले और भरे चौक में उसे फेंक दिया।

सारे आईने तोड़ डालने के बाद लोग खामोश हो गए। अब वे एक-दूसरे का मुँह भी नहीं देखना चाहते थे लेकिन बाद में इन खामोश लोगों में अपने ही चेहरे देखने की इच्छा जागने लगी परंतु अब अपना चेहरा देखने के मात्र दो ही विकल्प बचे हुए थे। एक था दूसरे की आँखों में देखना और दूसरा पानी में। अनेकों की आँखें सुर्ख, लाल या सफेद पड़ चुकी थीं। कइयों की आँखों की पुतलियां स्थिर नहीं हो पा रही थीं। कइयों की आँखों पर झपकियां थीं। कइयों की पलकों के बाल झड़कर आँखों में घुस गए थे, जिससे उन्हें खुजली हो रही थी।

फिर सभी ने पानी की जगह; नदियों, कुओं, नालों और तालाबों की तरफ रुख किया। आजकल अनेक गिरोह जगह-जगह झुक-झुककर पानी में झांकते दिखते हैं लेकिन जो भी खुद को देखना चाहता है, उसे अपना अक्स ढूंढने में परेशानी आ रही है।

जहां के कुएँ, तालाब, नदियां सूख चुके हैं, ऐसे अकाल पीड़ित इलाके के लोग क्या करेंगे? उद्योग-कारखानों के कारण जिनके शहरों में नाले गंदले हो चुके हैं, वे लोग क्या करेंगे? अतिवर्षा के इलाके के बाढ-पीडित लोग क्या करेंगे? ऐसे कई सवाल खड़े हो गए, जिनके जवाब अभी तक नहीं मिले।

उपकथा

उपर्युक्त कथा की एक उपकथा है। दरअसल, ऐसी उपकथाएं असंख्य हैं, जिन्हें परस्पर जोड़ने से कोई वृहत कथा रची जा सकती है; लेकिन असल सवाल यह है कि जब सारे लेखक पलायन कर गए हैं, तो इसे लिखेगा कौन! मैं तो एक अदना-सा लेखक हूं और कूल्हे से पैर लगा, कर भागने की नौबत मुझ पर कभी भी आ सकती है इसीलिए चलते-चलते संक्षेप में यह कथा दर्ज कर रहा हूं।

आगे कहानी यह है कि जिस लेखक को टुकड़े-टुकड़े करके भरे चौक में फेंक दिया था, उसके प्राण काफी देर तक छटपटाते रहे। भीड़ के चले जाने के बाद कुछ क्रुद्ध लेखक वहां इकट्ठा हुए और कहने लगे कि यह मरेगा नहीं दुबारा जिंदा होगा और लिखेगा क्योंकि लेखक भी कहीं मरता है!

और कैसा आश्चर्य! लेखक जो सात टुकड़े किए गए थे, वे सारे टुकड़े दुबारा जिंदा हुए। आज के युग में इसे एक महान चमत्कार ही कहना होगा। इसे देखकर लेखक कज़्तार्थ हुए और गर्दन हिलाते हुए अपनी-अपनी राहों से चले गए। अब उस लेखक के टुकड़ों से पुनर्जीवित हुए सात लेखक खड़े हो गए लेकिन वे ज्यादा देर तक खड़े नहीं हो पा रहे थे क्योंकि उनकी हड्डियां नर्म-मुलायम और लचीली थीं। वे बोल भी नहीं पा रहे थे। एक दूसरे को पहचान भी नहीं रहे थे फिर कुछ देर बाद वे रेंगते हुए अलग-अलग सात राहों पर चले गए।

इसका वीडियो क्लिप मेरे पास है। उसे वायरल किया जाए तो हुड. दंग मचेगा लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इससे फायदा किसका होगा?

जलना

आपने सुना होगा कि परसो एक लेखक ने खुदकुशी की। वह मेरा दोस्त था। बेचारा जलकर मर गया। मतलब, उसने खुद को आग लगा ली। आपको याद होगा कि पुराने जमाने में लोग अग्निदिव्य किया करते थे खुद को निर्दोष साबित करने के लिए। मेरे मित्र को ऐसा कुछ नहीं करना था। मृत्यु से पहले उसने चिट्ठी लिखकर रखी थी और उसमें साफ-साफ लिखा था कि वह अपनी मर्जी से मर रहा है और उसकी मौत के लिए किसी को भी जिम्मेदार न ठहराया जाए। इसके अलावा उसने अपने अंतिम क्रियाकर्म के लिए जरूरी पैसे भी एक लिफाफे में डालकर बिस्तर पर तकिए के नीचे रखे थे और इसे भी उसने चिट्ठी में दर्ज किया था।

दरअसल, यह लेखक बहुत ज्यादा खुश नहीं था, पर खास दुखी भी नहीं था। वह हमारे बीच रहता था। हँसता था, बोलता था और कई बार हमारे बीच होता भी नहीं था। कई बार वह अपनी ही धुन में अकेला घूमता नजर आता। न कोई उसका दुलारा था और न वह किसी का दुलारा था, फिर भी जब भी वह घूमने निकलता, तब उसके आगे-पीछे पांच-छह आवारा कुत्ते हमेशा घूमते हुए नजर आते। इन आवारा कुत्तों को वह बिस्कुट खिलाया करता। बदले में वे उसे चाटने का प्रयास करते और वह भी अपना तलुवा, कलाई उनके सामने धर देता।

जिस दिन लेखक मर गया, उससे पहले की रात वह हमारी महफिल में शरीक था, जहां गपशप और पीना-पिलाना हुआ था, लेकिन दूसरे ही दिन तड़के उसने खुद को जला लिया, इसलिए हमें यह बहुत भयानक लगा था। नींद पूरी हो जाने पर हमेशा की तरह वह उठा और इत्मीनान से बाथरूम गया। उस दिन वह केरोसिन से नहाया और इत्मीनान से जलती हुई तिली अपने पूरे बदन पर फेरी। चमड़ी धू-धू जलने लगी लेकिन उसने जरा भी चूं तक नहीं की। वह जल रहा था। धुआँ खिड़कियों की दरारों से बाहर निकलने लगा और बाहर इमारत से सटे सोए कुत्ते जाग गए। पता नहीं, उन्हें लेखक की चमड़ी की गंध आई या क्या हुआ, पर उन्होंने भौंक-भौंककर ऐसा हो-हल्ला मचाया कि पूरी इमारत जाग गई। आग के संदेह में सभी दौड़ पड़े। उन्होंने लेखक के कमरे का दरवाजा तोड़ डाला। भीतर घुसकर बाथरूम का दरवाजा उखाड डाला और अधजले लेखक को बाहर निकाल लाए। उस पर पानी की बाल्टियां उडेलीं। उसकी देह को चादर में लपेटा। एंबुलेंस को बुलाया और उसे अस्पताल ले गए। वहां अनेक डॉक्टरों ने उसकी जान बचाने का भरसक कोशिश की, लेकिन वह झुलस चुका था कि आखिरकार दोपहर में चल ही बसा।

उस शाम हमारी महफिल सजी थी। मैं अपने डॉक्टर से पूछ रहा था, ‘झुलसने के बाद कितनी यातनाएं होती हैं’?

डॉक्टर बोला, ‘चमड़ी जलने के बाद आग के हड्डियों तक पहुंचने तक दर्द होता है, लेकिन उसके बाद कुछ भी महसूस नहीं होता लेकिन अधूरा जलने से असह्य छटपटाहट होती है।

मतलब, कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे बचाने वालों ने उसकी छटपटा. हट को बढ़ा दिया? शांति से धैर्य से मौत का मकाबला करने वाले मनष्य को बचाने की बेवकूफ कोशिश कर इन लोगों ने उसकी पीड़ा को बढ़ा दिया और अपनी इस कोशिश की कथा को मिर्च-मसाला लगाकर बयान कर अपनी पीठ ठोंक ली। जिन्होंने जिंदगी भर इस लेखक के बिस्कुट खाए थे, वे कुत्ते भी इस आखिरी पल में बेईमानी पर उतर आए। दरअसल, हम सभी बेअक्ल हैं। जब मैं यह कह रहा था, तभी मेरे गिलास में पैग उड़ेलते हुए डॉक्टर बोले ‘यू आर राईट!’

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इस बात से क्या मतलब निकाले; ले. कन लेखक होने के नाते हर बात से कुछ मतलब निकालने का जो रहेमानी कीड़ा मुझमें है, उसका क्या करें?

दिल्लगी

‘लेखक मर चुका है’, यह उसने लिखा, तभी लोगों को उसकी मौत का पता चला।

प्रकाष्ठा

बरसाती रात, बिजली गायब, ऐसी सड़क पर वह घने अँधेरे में अकेला जा रहा था। बेतहाशा तूफानी हवा के साथ धुआंधार बारिश के बौछारों की सट-सट् चेहरे पर, बदन पर बौछार से वह सुन्न हो गया था। उसे अहसास भी नहीं था कि वह एक हाइवे पर चल रहा है। बीच-बीच में Vऽऽ- ऽऽ आवाज करती और उजाले का रेला फेंकती गाड़ियों की मौज. दगी भी उसे महसूस नहीं हो रही थी। मन के तहखाने में असंख्य कल्पनाएं कुलबुलाती पड़ी थीं। ऊपर उठने के लिए उन्हें उजाला ही नहीं मिल रहा था। अखंड बेचैन दशा में वह उस असीम अँधेरे में भीतर-भीतर धंसता चला जा रहा था कि अचानक दियों के उजालों का तेज रेला उससे टकराया। उस दिव्य तेज का वह रेला उसकी आँखों से ऐसा आर-पार हो गया कि उसका पूरा अंतरंग निखर उठा। जिस साक्षात्कारी पल की वह प्रतीक्षा कर रहा था, वह क्षण अकस्मात आकर उससे टकराया; लेकिन इसके बाद वह नहीं रहा। एक भारी ट्रक उसे लाँघकर घरघराता हुआ आगे निकल गया।

लेखक बचाओ

आखिरकार, सरकार को एहसास हुआ कि लेखक का जिंदा रहना जरूरी है, उनका मरना ठीक नहीं। यह प्रजाति खत्म हो गई तो संस्कृति के विकास क्रम को बाधा आएगी। इस समस्या के निवारण के लिए एक वृहत आपात बैठक बुलाई गई, जिसमें मंत्रीगण, लोकप्रतिनिधि, सरकारी अधि कारी पुलिस, विजेष्ठा सुरक्षा दल, आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ, भोजन विशेषज्ञ, मनोचिकित्सक, वकील, न्यायमूर्ति, इंजीनियर, तकनीकि विशेषज्ञ, साधु, महंत, ज्योतिषी, व्यापारी, उद्योजक वगैरह कई मान्यवरों का समावेश था। बैठक में असंख्य सूचनाओं, उपसूचनाओं, प्रस्तावों, योजनाओं की बौछार हुई, जिन्हें यहाँ दर्ज करना संभव नहीं। परंतु जो अंतिम मसौदा बनाया गया, उसकी मुख्य बातें बताना आवज़्यक है।

उदाहरणार्थ, लेखकों को धीरज बंधानेवाली, उन्हें प्रोत्साहित करनेवाली तख्तियां जगह-जगह लगाई जाएं। तख्तियों की रचना ऐसी हो कि जिसमें प्रोत्साहन देनेवाले लोग कौन हैं, कितने बड़े हैं और उनके मन में लेखकों के प्रति कितनी आस्था है, यह साफ-साफ उजागर हो। अपने लेखन से विवाद अथवा गलतफहमी उत्पन्न होने का आदेश होते ही लेखक पहले ही पुलिस में खबर करें, जिससे तुरंत उनकी सुरक्षा का प्रबंध किया जा सके। इसके लिए पुलिस महकमे में अलग सेल बनाकर लेखकों की सुरक्षा के लिए सिपाही तैनात किए जाएंगे, जो ज़िकायत दर्ज होने के बाद आधे घंटे के भीतर लेखक की दहलीज पर उपस्थित होंगे। हथियारबंद सिपाही प्रतिछाया की तरह लेखक के साथ रहेंगे और उसकी हर बात को स्वयं जांचेंगे। उसकी गतिविधियों पर नजर रखेंगे और आवश्यक होने पर हस्तक्षेप भी करेंगे। उदाहरणार्थ, लेखक को आए पत्रा वे खुद पढ़ेंगे और यह तसल्ली होने के बाद ही लेखक हो सौपेंगे कि लेखक को कहीं धमकाया तो नहीं गया है। लेखक जहां जाएगा, सिपाही उससे पूर्व वहां पहुंचेंगे और वहां की तलाशी लेंगे। सभी लेखकों के घरों के दरवाजों और खिड़कियों में जालियां लगाई जाएंगी।

लेखक सुरक्षा के लिए चलाए जा रहे इस महाअभियान में लेखक भी अपने आचरण से सहयोग दें। उदाहरणार्थ, वे सदा प्रसन्न रहें। साफ और सौम्य रंग के कपड़े पहनें। नियमित नाखून और बालों की देखभाल करें और चेहरा हमेशा मुस्कुराता रखें। बेवजह उत्तेजना बढ़ाने वाली तामसी पदार्थों का सेवन न करें। लेखकों के लिए बनाई गई सात्विक भोजन की सूची के ही व्यंजन खाएं क्योंकि यह सर्वश्रुत है कि सात्विक भोजन से विचारों में भी सात्विकता आती है। इससे अभिव्यक्ति में नरमी आती है। लेखक-सभ्यता के संवाहक होते हैं। अतः उन्हें यह एहसास होना चाहिए कि इस सभ्यता को समाज में रिसाने का अभी से प्रारंभ होना चाहिए। दरअसल, लेखक समाज के आदर्श हैं। समाज लेखक को प्रेम देता है, उसका आदर करता है, इसलिए उसे समाज का लिहाज करना चाहिए। लिहाज करना सभ्यता का अंग है। डर भी मानवीय उत्क्रांति का सबसे उपयोगी गुणधर्म है। डर के कारण ही मानवीय समाज का विकास होता गया और उसने सुरक्षा की नई-नई व्यवस्थाएं ईजाद की। समाज में लेखक के वजूद की समस्या उग्र हो रही है। स्वाभाविक है कि जहां लेखक के वजूद की समस्या उग्र हो रही है. वहां डर उन्हें नष्ट होने से बचा सकता है।

शरीर में डर की मात्रा को बढ़ाने के लिए विशिष्ट संप्रेरक तैयार किए गए हैं। लेखक चुपचाप उनका टीका लगा लें। लेखक उन्हें दिए जाने वाले सरकारी पहचान पत्र जी-जान से संभालकर रखें और ऐसे पहचान पत्र धारकों के लिए बनाई गई रिआयत योजना, पुरस्कार योजना आदि का लाभ उठाएं। लेखक उदात्त विचार करें। दिव्य सपने देखें। वे समाज की महान विभूतियों की तलाश कर उनके जिंदा रहते ही उनके चरित्र लिखें। जो विभूतियां लेखकों को ढूंढ़ती हुई उनके पास पहुंचेंगी, उनका सम्मान करें। ‘प्यार दो, प्यार लो; प्यार से प्यार बढ़ता है’ जैसे सूत्रों को ध्यान में रखकर अपनी रुचि का परिष्कार करें फिर भी यदि सामाजिक बातों से चित्त में विचलन आता हो तो, ध्यान धारण करें। अमंगल विचार मन में आते हों तो उपवास करें।

टंटा-बखेड़ा न करें। हमेशा संतुष्ट रहें। लेखक स्वप्नलोक में रहते हैं। उन्हें कल्पना का वरदान प्राप्त होता है। इस वरदान से लाभ उठाते हुए वे यथार्थ को अनदेखा करें और अपने अंत:चक्षुओं को भीतर की दिज़ा में मोड़ दें और सभी के लिए आदर्शवत् लगने वाले काल्पनिक मनोराज्य का निर्माण करें। हमारी परंपरा में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसमें लेखक एक जनम में कई जनम लेता है। इससे साफ हो जाता है कि लेखकगण स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताललोक-तीनों लोकों का भ्रमण कर सकते हैं। वे यही करें। राजा-रानी, परी अप्सरा वगैरह की दिव्यता, श्रृंगार की कहानियां बनाकर उनके भव्योदात्त त्याग पर सर्गों की रचना करें। (ध्यान रखें, श्रृंगारिक कहानियों के इलाके में लेखिकाओं का प्रवेश निषिद्ध है) इसके लिए बार-बार निद्रादेवी की आगोश में प्रविष्ट होकर अपना कल्पना का साम्राज्य जागृत करें। लेखक कलियुग का मोह त्यागकर द्वापर-त्रेता-सत्युग में जाएं। प्रभु का गुणगान करें।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’