अहं नामक व्यक्ति को बहुत गुस्सा आता था। वह जरा-जरा सी बात पर क्रोधित हो जाता था। वह उच्च शिक्षित और उच्च पद पर आसीन था। उसके गुस्से को देखकर एक सज्जन ने उसे सुदर्शन नामक ऋषि के आश्रम में जाने को कहा। अहं ने उस सज्जन की यह बात सुनते ही उसे गुस्से से घूरा और बोला- “मैं क्या पागल हूँ, जो सुदर्शन ऋषि के आश्रम जाऊं। मैं तो श्रेष्ठ हूँ।
मेरे आगे कोई कुछ नहीं है।” उसकी इस बात को सुनकर सज्जन वहाँ से चला गया। धीरे-धीरे अहं से सब दूर होते गए। अहं को भी इस बात का अहसास हो गया था। एक दिन वह सुदर्शन ऋषि के आश्रम पहुँचा। अपना परिचय ऐसे दिया मानो वह कोई राजा हो। सुदर्शन ऋषि ने अहं के बारे में सुन रखा था। उन्होंने उसके क्रोध को दूर करने की मन में ठान ली। वह जानबूझकर बोले, “कहो नौजवान कैसे हो? तुम्हें देखकर तो प्रतीत होता है कि तुममें दुर्गुण ही दुर्गण भरे हुए हैं।” अहं तो आगबबूला हो गया। आंखें तरेर कर और मुट्टियां भींच कर दांत पीसते हुए वह सुदर्शन ऋषि को उल्टी-सीधी बातें सुनाने लगा।
उसका शोरगुल सुनकर आसपास के लोग इकट्टा हो गए। चिल्ला-चिल्ला कर जब अहं थक गया तो चुपचाप नीचे बैठ गया। बेवजह क्रोध में बोलकर उसे सिरदर्द हो गया और गला भी सूखने लगा। उसकी ऐसी स्थित देखकर सुदर्शन ऋषि बोले, “कहो नौजवान क्रोध ने तुम्हारे सिवाय किसी का अहित किया है? सभी दुर्गुण पहले स्वयं को विनाश के कगार पर पहुँचाते हैं। तुम्हारे क्रोध ने तुमको सबसे दूर कर दिया जबकि तुम सबसे ज्यादा ज्ञानी और शिक्षित व्यक्ति हो।” ऋषि की सारी बातें अहं ने सुनी और उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने उसी दिन से अपने व्यक्तित्व में से क्रोध को दूर करने का निश्चय कर लिया।
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