Spiritual Thoughts: विचारपूर्वक की गई शारीरिक अनैतिकता तथा विषय भोग हमारी शक्ति का उतना ह्रास नहीं करते जितना मानसिक अनैतिकता और विषयों का चिंतन करता है।
हम देख चुके हैं कि जब तक व्यक्ति में ‘वासनाएं’ विद्यमान हैं वह बिना कर्म किए एक क्षण भी नहीं रह सकता, प्रकृति उसे प्रेरित करेगी और उससे बरबस कर्म करा लेगी। अत: मनुष्य होने के नाते अभी वर्तमान परिस्थितियों में हमें अकर्मण्य रहने का विकल्प नहीं प्राप्त है। हमें कर्म करना होगा। हमारे पास चयन करने की केवल इतनी छूट है कि हम कर्म कैसे करें। हम चाहे अपनी अवनति और अपने आसपास के जगत को हानि पहुंचाने के लिए कर्म करें, चाहे अपने कर्मों से अपने को धन्य बनावें और अपने निकट के लोगों के मुख पर मुस्कान की एक किरण लाने के लिए कर्म करें।
अकर्मण्य और मूर्ख व्यक्ति के लिए कम से कम काम और अधिक से अधिक विषय सुखों का चिंतन आकर्षक दिखाई देता है। इस प्रकार की दूषित प्रवृत्ति राष्ट्रीय स्तर पर घातक सिद्ध हो सकती है और राष्ट को पतन के गर्त में डाल सकती है। समाज के सदस्य सदा कार्य करने के लिए कमर बांध कर तैयार रहें, प्रयास करें, संघर्ष करें तभी सफलता मिल सकती है, संपन्नता आ सकती है और प्रगति हो सकती है।
इसलिए हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि हमारे कार्य करने की सर्वोत्तम विधि क्या हो सकती है। आदर्श जीवन व्यतीत करने की पद्धति को स्पष्ट करते हुए भगवान कृष्ण ने सच्चे कार्य-कर्ता और मिथ्याचारी का अन्तर बताते हुए कहा है- ‘जो इंद्रियों को रोक कर मन से उनके विषयों का चिंतन करता रहता है वह भ्रांति में पड़ा मूर्ख मिथ्याचारी है। (गीता 3.6) भगवान कृष्ण सभी समय के महान विचारकों द्वारा लिए गए निर्णयों को प्रतिध्वनित करते हैं। विचारपूर्वक की गई शारीरिक अनैतिकता तथा विषय भोग हमारी शक्ति का उतना ह्रास नहीं करते जितना मानसिक अनैतिकता और विषयों का चिंतन करता है। मनुष्य अपने को नैतिक, ईमानदार और सच्चा घोषित कर सकता है, किन्तु यदि वह अपने मन में अनैतिक विचार, बेईमानी की प्रवृत्ति, झूठे दिखावे का भाव पालता रहता है तो उसके व्यक्तित्व की क्रियाशीलता नष्ट हो जाती है और जल्दी ही, सदा सफल रहने वाला व्यक्ति भी अपनी शक्ति खोकर दुर्बल, निष्क्रिय और असफल हो जाता है। इसका कारण केवल उसकी आन्तरिक शक्तियों का विखण्डन है। इसके विरुद्ध भगवान कृष्ण उस बुद्धिमान व्यक्ति का स्वरूप चित्रित करते हैं जो जीवन के उच्च मूल्यों के हेतु जीता है, ‘जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है। (गीता 3.7) इन्द्रियां केवल मन द्वारा ही नियंत्रित की जा सकती हैं। जो मन इन्द्रियों के साथ बाह्य जगत की ओर जाता है वही प्रत्यक्षीकरण और विचार की शक्ति बन जाता है। हमारी वासनाएं ही निश्चित करती हैं कि हम प्रत्यक्ष में आने वाली वस्तुओं से तादात्म्य करें या नहीं। वस्तु जगत में हमारे ऊपर प्रभाव डालने की सामर्थ्य नहीं है। वस्तुत: ‘विषयों के प्रति हमारा राग ही वस्तु में ‘आकर्षित करने की शक्ति के रूप में प्रकट होता है। किसी दुकान के शो-केस में टंगे स्त्रियों के वस्त्र किसी पुरुष को मोहित नहीं कर सकते। किसी स्त्री को भी पुरुष की कमीज या टाई मोहित नहीं करेगी। किसी वस्तु के प्रति आकृष्ट होना ही हमारी मानसिक प्रतिक्रिया है।
वह संयमी व्यक्ति जिसने अपने मन से अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है संसार की अनासक्त भाव से सेवा करता है, तो इसका अर्थ यही होता है कि वह ‘अहंकार और अहंकार केन्द्रित कामनाएं त्याग कर संसार की सेवा करता है। ऐसा व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि उसके लिए कार्य-क्षेत्र का अर्थ वह मंच है जहां वह अपनी पुरानी वासनाओं का क्षय करता है किन्तु नई ‘वासनाएं अर्जित नहीं करता।
अहं और अहं-केन्द्रित कामनाएं हमारे अन्दर वासनाएं उत्पन्न करती हैं। जब हम बिना आसक्ति के अर्थात् अहं और अहं-केन्द्रित कामनाएं त्याग कर कर्म करते हैं तो संचित वासनाएं नष्ट होती हैं और नई वासनाओं का सृजन नहीं होता। वासनाओं का क्षय हृदय में शांति और विश्राम लाता है। शांत मन अधिक रचनात्मक ही नहीं बल्कि भौतिक जगत में अधिक सफलता लाने वाला भी होता है। वह हमारे लिए एक ऐसी सवारी भी सिद्ध होती है जो हमें पूर्ण-चेतना के व्यापक जगत में अर्थात् उत्कृष्ट चेतना के स्तर पर पहुंचा सकता है।