Spiritual Thoughts: विज्ञान ज्ञान की वह शाखा है जो कार्य-कारण के सिद्धांतों के आधार पर तथ्यों की विवेचना कर सत्य की खोज करती है और दर्शन ज्ञान की वह ज्योति है जो कार्य-कारण के भी परे जाकर सार को खोजती है। तो क्या ये दोनों विपरीत ध्रुवों की भांति कभी नहीं मिल सकते और इनमें कोई मतैक्य (समानता) नहीं हो सकता? सतही तौर पर देखें तो ऐसा ही लगता है, क्योंकि जहां विज्ञान बिना तर्क व प्रयोग आधारित प्रमाण के एक कदम चलने को भी तैयार नहीं होता, वहीं दर्शन में अधिकांश निष्कर्ष अवधारणाओं पर आधारित प्रतीत होते हैं, जिनमें तर्क को संभवतया इतना महत्त्व नहीं दिया जाता परन्तु हमें लगता है कि यदि छिछले को छोड़ थोड़ा गहरे पानी पैठकर देखें तो पाएंगे कि ये दोनों एक ही दिशा की ओर इंगित करते हैं, कम से कम हिन्दू दर्शन और विज्ञान के विषय में तो नि:संदेह ऐसा कह सकते हैं कि यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं प्रतिद्वंदी नहीं।
परन्तु यहां हमारा इरादा पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो, परंपरा आधारित सामान्य कर्मकांडों (जो अधिकांशतया स्थानीय वातावरण के अनुसार तात्कालिक परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में प्रारंभ होकर पहले रीति-रिवाजों के रूप में स्थापित हो जाते हैं और कालांतर में धार्मिक मान्यताओं का अभिन्न अंग बन जाते हैं) को येण-केण-प्रकारेण विज्ञान की कसौटी पर कसकर दिखाने को कटिबद्ध होकर अपरिपक्व तर्क प्रस्तुत करना नहीं, बल्कि हमारे मनीषियों द्वारा पुरातन काल में, जब आधुनिक विज्ञान अपनी शैशवावस्था में भी नहीं पहुंच पाया था, घन-घोर वनों में स्थित आश्रमों में रहकर दीर्घ-काल तक सतत चिंतन-मनन कर प्रतिपादित किये गए ऐसे गूढ़ सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास करना है, जो विज्ञान द्वारा अपनी तर्क शक्ति से बहुत बाद में सामने लाए जा सके, वह भी आंशिक रूप में।
यूं तो हिन्दू दर्शन को मुख्यत: 6 शाखाओं में विभाजित किया गया है (जिस कारण इसे षड-दर्शन भी कहते हैं), यथा सांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वैदिक तथा योग, परन्तु यहां इनकी अवधारणाओं पर प्रथक-प्रथक विचार न कर इनमें प्रतिपादित मूल सिद्धांतों, 108 उपनिषदों, श्रीमद्भागवतगीता व हमारे अन्य पुरातन ग्रंथों में समाहित ज्ञान के अमूल्य भण्डार, जो श्रुति-स्मृति (श्रवण कर स्मरण रखने) के माध्यम से हम तक पहुंच सके, के आधार पर वैज्ञानिक सिद्धान्तों से तुलना कर सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत करना है। आइए देखें, हम किस निष्कर्ष पर पहुंचतेे हैं –
सृष्टि का आरम्भ,विकास व अंत
महाविस्फोट के सिद्धांत (क्चद्बद्द क्चड्डठ्ठद्द ञ्जद्धद्गशह्म्4) के प्रतिपादक जॉर्ज लेमैत्रे व इसके समर्थक, प्रसिद्ध खगोलविद स्टीवन हाकिंग, के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में शून्य की स्थिति थी, जब एक बिंदु में समाहित अपरिमित शक्ति अकस्मात् एक महाविस्फोट के माध्यम से प्रस्ऌफुटित होकर चारों ओर फैल गई। इसके फलस्वरूप यह ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया, जिसका निरंतर विस्तार होता गया, जो आज भी जारी है। परन्तु एक निश्चित सीमा पर पहुंच कर एक दिन यह विस्तार रुक जाएगा और फिर उसी गति से संकुचन की उल्टी प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी, जो प्रलय अर्थात महाविनाश पर जाकर समाप्त होगी। उस स्थिति में पहुंचकर ब्रह्मïाण्ड की समस्त ऊर्जा वापस उसी सूक्ष्म बिन्दु में पूर्ववत समाहित हो जाएगी। सृष्टि के उद्भव, विकास व विनाश की यह प्रक्रिया इसी क्रम में सतत रूप से चलती रहती है।
अब देखिए, हजारों वर्ष पूर्व, इस विषय की व्याख्या करते हुए श्रीमद्भगवतगीता के अष्टम अध्याय, श्लोक-18 में भगवान श्रीकृष्ण क्या कहते हैं –
अव्यक्तादव्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे। रार्त्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥
अर्थात सम्पूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से अर्थात ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेश काल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लीन हो जाते हैं।
अब यदि उक्त दोनों मतों का एक साथ अध्ययन किया जाए तो पाएंगे कि दोनों में आश्चर्यजनक रूप से एकरूपता है। जिसे भगवद्गीता में ब्रह्मा का ‘सूक्ष्म शरीरÓ कहा गया है, उसे विज्ञान समस्त ऊर्जा का मूल स्रोत एक ‘बिंदु कहता है, इसी प्रकार सृष्टि के प्रारंभ को ‘महाविस्फोट’ व प्रलय को ‘महाविनाश’ कहा गया है। अत: इस आधारभूत तथा गंभीर प्रश्न पर आधुनिक विज्ञान व दर्शन का एकमत होना आश्चर्यचकित कर देता है।
भौतिक पदार्थों का मूल स्वरूप
वैज्ञानिक दृष्टि से सभी भौतिक पदार्थों का निर्माण एक ही मूल तत्त्व से होता है, परन्तु किसी पदार्थ के निर्माण में प्रयुक्त अणुओं की संख्या व उनका संयोजन जिस प्रकार से होता है, उसी के आधार पर उस पदार्थ का गुण-धर्म व प्रकृति निश्चित हो जाती है। उदाहरण के लिए लोहे व लकड़ी के मूल पदार्थ में कोई अंतर नहीं होता, केवल इन पदार्थों के निर्माण के समय प्रयुक्त अणुओं की संख्या व उनके संयोजन-क्रम में अंतर के कारण एक ही पदार्थ भिन्न रूप धारण कर हमें क्रमश: लोहे व लकड़ी के रूप में नजर आता है।
इसी प्रकार ऊष्मप्रवैगिकी का प्रथम नियम (स्नद्बह्म्ह्यह्ल रुड्ड2 शद्घ ञ्जद्धद्गह्म्द्वशस्र4ठ्ठड्डद्वद्बष्ह्य3) कहता है कि ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है, न ही उसे नष्ट किया जा सकता है। इसका केवल रूप-परिवर्तन किया जा सकता है। अत: प्रत्येक स्थिति में इस ब्रह्माण्ड की कुल ऊर्जा की मात्रा सदैव एक समान ही रहती है।
उधर इस विषय पर दर्शन शास्त्र कहते हैं कि संसार में जो कुछ भी है, वह उस एक ईश्वर का ही प्रतिरूप है, परन्तु माया के प्रभाव से उनका अस्तित्व अलग-अलग दृष्टिगोचर होता है। साथ ही ईश्वर रूपी उस परम तत्त्व का न तो कभी सृजन होता है, न विनाश और न ही वृद्धि, या फिर ह्रïास।
अत: स्पष्ट है कि इस विषय पर भी विज्ञान व हिन्दू दर्शन एकमत हैं।
कर्म फल का सिद्धांत
न्यूटन द्वारा प्रतिपादित गति का तीसरा नियम कहता है कि प्रत्येक क्रिया की उतने ही अनुपात में प्रतिक्रिया होती है। इसका विपरीत निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक प्रतिक्रिया के पीछे कोई क्रिया होती है। भौतिक-विज्ञान के इसी सिद्धांत को यदि कर्म-फल की दार्शनिक अवधारणा की दृष्टि से परखें तो प्रत्येक कर्म का उसी के अनुपात में फल मिलना निश्चित हुआ और प्रत्येक फल के पीछे हमारा कोई न कोई कर्म ही होता है, जैसा कि हमारे आदि दर्शन ग्रंथों में विवेचन किया गया है। अत: कर्म-फल का दार्शनिक सिद्धांत भी पूर्णतया विज्ञान-सम्मत है।
ब्रह्माण्ड में सब कुछ सापेक्ष है
आइन्स्टीन का सापेक्षतावाद का सामान्य सिद्धांत कहता है कि इस ब्रह्मïाण्ड में सब कुछ सापेक्ष है। कोई भी वस्तु या घटना तत्सम्बंधित समय व स्थान के सन्दर्भ में ही परिभाषित की जा सकती है, निरपेक्ष रूप से उसे विवेचित नहीं किया जा सकता।
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो भी सृष्टि में ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी निरपेक्ष नहीं माना जाता। उदाहरण के तौर पर पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार सभी जीव मृत्यु के पश्चात जन्म लेते हैं और फिर पुन: मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इस क्रम में कोई व्यक्ति जो किसी जन्म में हमारा पिता था, इस जन्म में पुत्र हो सकता है, जो इस जन्म में शत्रु है, अगले जन्म में परम मित्र हो सकता है। अत: हम दो जीवों के बीच के सम्बन्ध को बिना उनके जन्म का सन्दर्भ लिए स्थायी रूप से वर्णित नहीं कर सकते।
यही बात अन्य स्थितियों में भी लागू होती है। जैसे हम कोई वस्तु बाजार से खरीद कर लाते हैं, फिर कोई पूछे कि यह किसकी है तो हम निश्चित रूप से कहेंगे की हमारी है। परन्तु यदि यही प्रश्न हमसे बीते कल के परिपेक्ष्य में पूछा जाता, जब यह वस्तु दूकानदार के पास थी, परसों के लिए होता जब यह वस्तु कारखाने में बन रही थी या आने वाले कल के लिए होता, जब हो सकता है कि हम उसे किसी और को बेच दें, तो क्या यह उत्तर इन परिस्थितियों में भी सही होता? नहीं, क्योंकि यह वस्तु आज हमारी है, यह तो ठीक है, परन्तु कल दुकानदार की थी, परसों निर्माता के पास थी और आने वाले कल में किसकी होगी, कौन जानें! अत: इसका स्वामित्व समय के साथ सापेक्ष हुआ, जो उससे जोड़े बिना सही रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता। अत: सापेक्षता के सिद्धांत पर भी विज्ञान व दर्शन एक मत हैं।
इस प्रकार उक्त दृष्टान्तों से प्रतीत होता है कि विज्ञान भी दर्शन का ही एक अंग है, यद्यपि तर्क की अवधारणा पर आधारित होने के कारण इसकी अपनी सीमाएं हैं, जबकि विशुद्ध ज्ञान पर अवलंबित होने के कारण दर्शन दृग्गत (जहां तक दृष्टि जा सकती है) के पार जाकर अवलोकन की क्षमता रखता है।
ज्ञान को हम दो भागों में विभक्त करते हैं। एक है विज्ञान और दूसरा दर्शनशास्त्र। अमूमन विज्ञान और दर्शनशास्त्र पृथक माने जाते हैं। किन्तु कई विषयों पर दोनों में पूरकता भी नजर आती है। दर्शन और विज्ञान के इस संबंध पर आइए विस्तार से चर्चा करें।
विज्ञान भी दर्शन का ही एक अंग है, यद्यपि तर्क पर आधारित होने के कारण इसकी अपनी सीमाएं हैं, जबकि ज्ञान पर अवलंबित होने के कारण दर्शन दृग्गत के पार जाकर अवलोकन की क्षमता रखता है।