Childhood Story: जैसे ही मुझे ऑफिस से छः दिनों तक ठंड वाली छुट्टी मिली,मैं उसी दिन शाम को ट्रेन पकड़ कर लखनऊ से फूलपुर अपने घर चला आया.दूसरे दिन नहा–धोकर नाश्ता करके मैं गफूर चचा के बरगद के पेड़ की दाहिनी तरफ उनके पतंग वाली लकड़ी की गुमटी के पास पहुंचा तो उसे बंद देख मैने सोचा, कि पता नही आज गफूर चचा के पतंग वाली ये गुमटी बंद क्यूं हैं? जबकि ये मौसम तो पतंग खरीदने और उड़ाने का सबसे मुफीद मौसम हैं.
दरअसल हमारे बचपन से ही बच्चो या बड़ो को जब भी पतंग खरीदने और उड़ाने की इच्छा होती थी तो वे सभी पतंग,परेती,मंझा आदि सारा सामान गफूर चचा की इस लकड़ी वाली गुमटी के दुकान से ही खरीदा करते थे.वैसे भी उन दिनों हमारे पूरे शहर में गफूर चचा और उनके पतंग की यह गुमटी वाली दुकान बहुत मशहूर थी. लोग-बाग दूर- दूर से इनके यहां पतंग खरीदने के लिए आया करते थे. दरअसल इसका एक कारण यह भी था कि वे पतंग बेचने के अलावा पतंग के एक मजे हुए जानकार भी थे. वे पतंग खरीदने वाले अपने ग्राहक से यह पूछ लेते थे कि,– आप इसे केवल उड़ाने के लिए खरीद रहे हैं या फिर लड़ाने के लिए फिर ग्राहक जैसा जवाब देता उसे वे उसी तरह की पतंग पकड़ाते थे.
हालांकि उस समय हमारे शहर की नदी के इस तरफ और उस तरफ दिन-दिन भर पतंग उड़ाने और लड़ाने की पेचबाज़ी का खेल चलता रहता था और यह खेल तब तलक चलता रहता था जब तलक की पूरी तरह से लोगों को दिखाई पड़ना बंद नही हो जाता था और इतना ही नही उन दिनों पतंगबाजी देखने वालों की भीड़ भी उड़ाने और लड़ाने वालों से तिगुनी हुआ करती थी और उन सभी पतंगों में अकेले पचास परसेंट पतंग तो केवल गफूर चचा के इस लकड़ी वाली गुमटी से ही खरीदी होती थी.लेकिन फिर धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आया जब आधुनिकता ने हमारे शहर की इस शौक को छिनना और उसे निगलना शुरू कर दिया. फिर मुझे भी लखनऊ में नौकरी मिल गई मैंने नौकरी मिलने की खुशी में गफूर चचा का भी मुंह मीठा कराया था.
उन्होंने मुझे घर के किसी बडे़ बुजुर्ग की तरह अपना आशीर्वाद दिया था .फिर लखनऊ से आठ महिने बाद जब मेरा घर आना हुआ तो गफूर चचा की पतंग वाली लकड़ी की गुमटी को बंद देखा तो मन बड़ा उदास सा हो गया. फिर मैंने वही बगल में बरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर आपस में बाते कर रहे लोगो से पूछा कि आखिर आज गफूर चचा ने अपने पतंग की ये गुमटी बंद क्यो कर रखी हैं? तो उन्होंने सबसे पहले मुझे ऊपर से लेकर नीचे तक बहुत ध्यान से देखा तो थोड़ा सा उन्होंने मुझे पहचाना. अरे! तुम भी तो उन्हीं से पतंग खरीदा करते थे. हां! हां! दरअसल बेटा गफूर चचा की तबियत बहुत ही खराब हैं. शायद! वे अब चंद दिनों के ही मेहमान हैं . मेरे मूंह से ओह! निकला और मैं फिर गफूर चचा के घर की तरफ चल पड़ा.
मैं जैसे ही उनके घर पहुंचा तो उनके घर के बाहर बहुत सारे लोगों की भीड़ लगी हुई थी. मेरा मन किसी अनहोनी आशंका से भर उठा. मैंने उस भीड़ में खड़े लोगों से पूछा कि,– क्या हुआ चचा? तो उन्हीं में से कुछ लोगों ने बताया कि गफूर चचा का अभी-अभी इंतकाल हो गया हैं बेटा! मैं तुरंत ही उस भीड़ में से थोड़ी सी जगह बना गफूर चचा को आखिरी मर्तबा देखने की नियत से झुका तो मुझे उनकी खुली हुई आंखे देखकर ऐसा लगा कि जैसे,– वे अब भी अपनी लकड़ी की गुमटी में बैठे इधर-उधर कोई अच्छी सी पतंग ढूंढ रहे हो.तभी मेरी आंख भर आई और मुझसे फिर गफूर चचा के घर और नही रुका गया हा रास्ते में ऐसा जरुर लग रहा था कि जैसे मेरे पीछे कुछ लोग पतंग कट जाने की खुशी में चिल्ला रहे हो की वाह! कटे!
