किनारा-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Kinara
Kinara

Kinara: तुम यहाँ?”

“बहन के पास आई थी पर तुम यहाँ कैसे?”

“मैं पिछले पाँच सालों से मुम्बई में ही हूँ। दीदी यहाँ कब से हैं?”

“पिछले हफ्ते ही चेन्नई से ट्रांसफर हुआ है।”

कब के बिछड़े हुए दोनों इस अपार्टमेंट के सुपरमार्केट में आ मिलेंगे ऐसा किसने सोचा था। तीन बहनों में सबसे खूबसूरत थी सलोनी मगर अपनी ही खुबसूरती से पूरी तरह अंजान थी। उसे यह बात पता कैसे चलती। खुद के चेहरे को निहारने की फुर्सत कहाँ थी उसे। बड़ी पापा की मुँह लगी तो छोटी मम्मी की दुलारी ,और वह बेचारी जिम्मेदारियों की मारी,जब देखो काम में उलझी रहती।

ऊँची उजली काया और कमर तक घुंघराले काले केश,ध्यान से देखने पर यूनानी मूर्ति सी दिखाई देती। हाँ!,मूर्ति ही तो थी वह। कोई कितना भी बोले, पलट कर जवाब कहां देती थी। अपने, अपनों से प्रगाढ़ स्नेह था उसका। उसकी यही अदा तो सागर को दीवाना बनाती थीं। उसने अपनी संगिनी के लिए जो भी सपने देखे थे उन सभी गुणों की स्वामिनी सलोनी जब भी सामने से गुजरती,वह सिवाय ठंडी आह लेने के कुछ नहीं कर पाता। कभी-कभी घर की नजदीकियां भी अभिशाप बन जाती है। दीवार से भी बचना पड़ता है। उनके कान जो होते हैं। शायद कुछ दूरी होती तो पीछा करता। फिर कभी चंद बातें भी हो जातीं मगर एक ही अपार्टमेन्ट में रहते हुए पड़ोसन से इश्क हुआ था और वह भी उठती-गिरती निगाहों वाला। नजरें ही दिल का हाल बयां करती मगर मिलती, खिलती,लजाती आँखें ऐसे रूसवा होंगी ये कहां पता था।

उस रोज पड़ोसी निखिल के रिसेप्शन की पार्टी थी तब मौके का फायदा उठाकर दिल की बात कहने की सोची पर जैैसे ही सलोनी सामने आई उसकी घिग्घी बंध गई। सफेद सलवार सूट में सादगी से बाँधी गई चोटी में वह सबसे अलग दिख रही थी और सबसे अनूठी भी। आज सागर की गहरी आँखों का सामना वह भी नहीं कर पा रही थी। अपलक निहारती उसकी नजरें सलोनी का चैन लूट रहीं थीं।

“नहीं! मैं ऐसा नहीं कर सकती। पहले ही बड़ी बहन के प्रेम विवाह करने की जिद्द से घरवाले परेशान हैं। उनकी परेशानियाँ और नहीं बढा सकती। फिर दोनों अलग जाति व परिवेश वाले लोग हैं। कहाँ मैं लहसुन-प्याज से भी परहेज करने वाली और सागर ठहरा माँस -मदिरा प्रेमी, पूरी उम्र के रिश्ते ऐसे में नहीं टिकते हैं।”

सीधी- सादी सलोनी मोहब्बत के पाठ से अंजान थी।उसने यही सब सोच कर अपने-आप पर पहरा लगा लिया था। जिस रास्ते जाना नहीं उधर का रूख ही क्यों करना। अब उसे देखते ही खिड़की बंद कर देती। रास्ते में दिखता तो राह बदल लेती। उस जैसी लड़की के लिए अपने मन को मारना कहाँ मुश्किल था। 

एकतरफा प्यार आखिर कबतक टिकता। अब नजरों की भाषा बदल गयी थी। सागर का अभिमान आहत हुआ था। उसकी हरकतों से नाराजगी बयां होती थी। नौकरी लगते ही मुम्बई चला आया। 

तब के बिछड़े हुए आज ही मिले दोनों। कुछ भी नहीं बदला था। सागर ने आँखों को काले चश्मे मे छुपा लिया था। सलोनी के केश आधे रह गये तो लंबाई भी आधी करा ली। 

“यहाँ अकेले रहते हो?”

“मम्मी-पापा भी हैं। रविवार को घर आ जाओ।”

“मैं किंडल ज्वाॅय ले लूँ।” मिली उछलती हुई सामने आई तो सागर चौंका।

“हाँ-हाँ! इधर आओ! पहचानो इन्हें?”

दीदी की बेटी ‘मिली’ से मिलवाया तो हिंदी में बात करती देख समझ गई कि कोई ननिहाम का ही बंदा होगा। चेन्नई में मौसी सभी से अंग्रेजी में बात करती थीं।

“ये राँची वाले मामा हैं ना!” 

अपने लिए यह संबोधन सुनते ही सागर का चेहरा फक्क पड़ गया। आव देखा न ताव और सीधा सवाल दाग दिया, “बेटी को अकेली छोड़ दिया, गिर जाती तो…और तुम्हारे पति नहीं दिख रहे …?”

उसके अकस्मात सवाल से उसकी मन: स्थिति समझ में आ रही थी। अब सलोनी भी आदतन मस्ती के मूड में आ गई।

“राहुल सॉफ्टवेयर इंजिनयर है और तुम तो जानते ही होगे की सॉफ्टवेयर वालों को छुट्टी नहीं मिलती है। मैं तो हर जगह अकेली ही आना – जाना करती हूं!”

सलोनी के मुँह से यह सब सुनते ही जैसे उसके चेहरे की रंगत ही बदल गयी। कुछ ही देर पहले कैसे सौम्य भाव थे जो अब अनमनस्क हो चले। थोड़ी ही देर पहले कितना करीब महसूस कर रहा था और सहसा दूर भी हो गया। आव देखा ना ताव अपना सामान उठाया और बिना कुछ बोले तेजी से निकल गया। 

“तुम आज भी नहीं बदले. ..न सिंदूर देखा ….न मंगलसूत्र ढूँढा। बस बच्ची को देख कर अपने मन में तय कर लिया कि शादी हो गई होगी।” सलोनी मन ही मन बोली। 

एक बार फिर से दिल टूटा था उसका। फिर से खुद को संभाल लिया। बीते वर्षों की सारी बातें आँखों में नाच गईं। माना उसने स्वयं को संयमित किया था। घर की परिस्थितियों से घबड़ाकर अपनी राहें बदलीं थीं फिर भी सागर चाहता तो उसे मनाकर वापस ला सकता था। ‘ना’ को ‘हाँ’ में तब्दील करने की कोशिश कर सकता था। राहें बदलीं थीं घर तो नहीं! लेकिन वह उसके पीछे हटते ही मुड़ गया था। निगाहें जो इन्हें मिलाने का जरिया थीं। उनके बीच की वह कड़ी टूट गई थी। अब उनमें गुस्से के सिवा कुछ नहीं दिखता था। वहीं कहीं टूट कर बिखर गई थी सलोनी।


आजतक उसे जिस बात का पछतावा होता आया था

आज वह भी जाता रहा। समय ने उसे बिलकुल न बदला था। अब भी वैसे का वैसा ही है। अच्छा ही किया जो उससे दूरियां बना लीं। ऐसा व्यक्ति साथी तो हो सकता है पर जीवनसाथी नहीं। उस जैसी धीरा-गंभीरा को तो सहज पुरुष चाहिए जो उसकी भावनाओं को समझे न कि अपना ही दंभ दिखाए। उसकी प्रेम कहानी का हीरो समझदार व संतुलित होना चाहिए। 

जिससे दो कदम का फासला तक न तय किया गया। उससे किनारा करते हुए आज जरा भी वक़्त न लगा। जान गई थी कि कुछ रिश्ते नदी के किनारों जैसे होते हैं जो साथ -साथ चलते जरूर हैं पर कभी मिल नहीं पाते। इस छोटी सी मुलाक़ात ने विरह वेदना को कम कर दिया। अब उसके मन में सागर से अलग होने का न तो कोई अफ़सोस था और न हीं पछतावा!