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"इंद्रधनुषी प्यार"-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Indradhanusi Rang

इंद्रधनुषी प्यार-“अम्मा-बाबा की तरह मत लड़ो”,किसी भी पति-पत्नी में मन-मुटाव या
तू-तू,मै-मैं होती तो परिवार के लोग यही ताना मारते। मतलब,झगड़ा और
तू-तू,मैं-मैं के पर्याय बन चुके थे अम्मा-बाबा ।
बनते भी क्यूँ नहीं?अम्मा अगर पूरब थीं तो बाबा पश्चिम। अम्मा को अगर ठंड
लगती तो बाबा को गर्मी। अम्मा को दरवाजा-खिड़की बंदकर सोना पसंद था तो
बाबा को खोलकर। बाबा को टीवी देखना पसंद था पर अम्मा को नहीं। बाबा
सीरीयल,फिल्म,राजनीति सबमें दिलचस्पी रखते तो अम्मा को इन सबसे कोई
सरोकार नहीं था। बाबा रात में भी मोबाईल पर सबका डीपी,स्टेट्स देखते और
रिप्लाई भी करते जो अम्मा को नागवार गुजरता और सोते-सोते भी लड़कर दोनों
छत्तीस का आँकड़ा बिठाकर ही सोते।
 बाबा की कोई भी बात अम्मा एकबार में नहीं मानती और अम्मा की बातों को भी
बाबा का जल्दी समर्थन नहीं मिलता।
 लेकिन सदैव लड़ते-झगड़ते रहने,और एक-दूसरे के विपरीत स्वभाव के बावजूद
अम्मा बाबा का पूरा ख्याल रखतीं और बाबा की जुबान पर भी-“सुन रही हो,कहाँ
गई”शब्द हमेशा टंगे रहते ।बाबा को कब चाय की जरूरत है,कब नाश्ते की और कब
खाने की,अम्मा घड़ी की सुई की तरह उस समय उठकर बैठ जातीं और किचेन में
अंदर-बाहर करने लगतीं,तब बहुऐं समझ जाती कि बाबा का टाईम हो गया है।
फिर भी,चौबीस घंटों में बीस घंटा अम्मा बाबा एक-दूसरे से मुँह फुलाए ही
रहते। यही वजह थी कि अम्मा-बाबा पति-पत्नी के झगड़े का पर्याय बन चुके थे।
 देखते-ही-देखते एक दिन अम्मा गुजर गईं। सबने सोचा,और शायद बाबा ने भी कि
अब उनकी जिन्दगी काफी शांति,चैन व सुकून से गुजरेगी। अब चाहें जितनी देर
टीवी देखें ,कोई टोकनेवाला नहीं,चाहें जितनी देर मोबाईल चलाऐं,क़ोई मना
करनेवाला नहीं।दरवाजा चाहें बंद करके सोऐं या खोलकर कोई परेशानी
नहीं।अम्मा नहीं रहीं,कोई लड़नेवाला नहीं रहा,अब शांति ही शांति है।
  लेकिन इतनी शांति बाबा को हजम नहीं हो पा रही थी। वे दिनभर टीवी,मोबाईल
और बच्चों में अपना मन लगाने की कोशिश करते लेकिन उनके मन को कहीं वह
खुशी,वह शांति नहीं मिल रही थी जो पहले थी। दबे स्वर में,गाहे-ब-गाहे
उनके मुँह से निकलने लगा-“वह लड़ती थी तो मेरा जीवन गुलजार था। वह चली
गई,मेरे जीवन को खामोश कर वीरान कर गई। कोई मेरी बातों को काटने वाला
नहीं रहा,लड़नेवाला नहीं रहा।”और इतनी आजादी,इतनी शांति,इतनी खामोशी और
अथाह रिक्तिता बाबा झेल नहीं पाऐं। दो महीने बाद ही दोपहर में ठीक उसी
समय बाबा भी चल बसे,जब अम्मा का देहांत हुआ था।

 सोचने को विवश हूँ,कि प्यार शायद इंद्रधनुषी होता है,जिसमें सात नहीं
बल्कि हजारों रंग होते है।उन्हीं रंगों में से एक अम्मा बाबा के प्यार का
भी रंग था।जो शायद हमें दिखता कुछ और था और था कुछ और।
 हाथों में हाथ डालें घूमना,पिक्चर जाना,साथ रहना और सबसे बड़ी बात
एक-दूसरे की हाँ में हाँ मिलाना ही प्यार नहीं है। एक-दूसरे की बात काटकर
,एक-दूसरे से लड़ने में भी प्यार होता है ।और वास्तविक प्यार शायद आत्मा
से ही होता है, चिकनी चुपड़ी बातों और व्यवहार से नहीं। तभी तो बाबा……
आज परिवार के लोगों के नजरिए बदल चुके हैं। नम आँखों से सबकी जुबां से एक
ही बात निकल रही है-“प्यार हो तो अम्मा-बाबा की तरहा। एक-दूसरे के बिना
वे जी नहीं सकते थे और जी नहीं पाए ।”

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