एक सिपाही संत दादू से बहुत प्रभावित था… उन्हें गुरु बनाने की इच्छा से वह उनकी खोज में निकल पड़ा। थोड़ी दूर चलने के बाद उसे केवल धोती पहने एक सिपाही की बात की अनसुनी कर दी।
भला सिपाही यह कैसे सहन करता? आव देखा न ताव उसने। उस व्यक्ति को भला-बुरा कहा और एक लात मारी और आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर सिपाही को एक और आदमी मिला। सिपाही ने पूछा क्या आप संत दादू के आश्रम का पता बता सकते हो? उस व्यक्ति ने कहा भला उन्हें कौन नहीं जानता? बस थोड़ी ही दूरी पर उनका आश्रम है। मैं भी वहीं जा रहा हूँ।
चलिए आप भी मेरे साथ ही चलें। दोनों बातें करते-करते आश्रम पहुँचे। उस व्यक्ति ने बताया कि यहीं संत दादू रहते हैं। इतने में सामने से वही व्यक्ति आता दिखाई दिया जिसे सिपाही ने भला-बुरा कहा था और लात भी मारी थी। साथ वाले व्यक्ति ने उस सामने से आते व्यक्ति को प्रणाम किया और सिपाही का परिचय कराया। सिपाही पानी-पानी हो गया। जिस मामूली आदमी को उसने अपमानित किया, उन्हीं के चरणों में गिरकर माफी माँगने लगा।
सिपाही का उतरा चेहरा देख संत हंसते हुए बोले कि भाई इसमें इतना बुरा मानने की क्या बात है? कोई मिट्टी का घड़ा खरीदता है तो ठोंक-बजाकर देख लेता है। फिर तुम तो मुझे गुरु बनाने आए थे। इसलिए कहा गया है कि पहले तौलो फिर बोलो। यदि अपने गुस्से पर नियंत्रण न रख सके तो आप किसी के भी प्रिय नहीं बन सकते।
ये कहानी ‘ अनमोल प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं–Anmol Prerak Prasang(अनमोल प्रेरक प्रसंग)
