chidiya channamma aur rani
chidiya channamma aur rani

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित एक गाँव जिसे आज गब्बूर नाम से जाना जाता है। वहाँ पर बहुत समय पहले एक चिड़िया, चिड़ा और उनके दो बच्चे थे। इनका परिवार बड़े मजे के साथ अपनी जिन्दगी के पलों को खुशी-खुशी जी रहा था। अचानक इस परिवार को किसी घनेरी अंधेरी काली छाया ने घेर लिया। एक दिन उनके घर को आग लग गयी। सब बाहर निकल आये, पर एक बच्चा भीतर ही अटक गया। अपने बच्चे और घर को आग की लपटों से बचाने के लिए चिड़िया और उसका बड़ा बच्चा जी जान से कोशिश कर रहे थे किन्तु चिड़ा उनकी इस कोशिश में हाथ न बटाकर इन दोनों को जलते घर और बच्चे को छोड़ भाग चलने की बात कर रहा था किन्तु चिड़िया के मातृहृदय ने अपने पति के इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा- “हमने इस घर को बनाने में कडी मेहनत की है, इन आग की लपटों में हमारे कलेजा का टुकडा भी अटक गया है, ऐसी मुसीबत की घडियाँ हमारा इम्तिहान लेने के लिए ही आती हैं। ऐसे संदर्भ में उसे पीट दिखाकर भाग जाना हमारी कायरता होगी। आपसे हाथ जोडकर विनती करती हूँ कि चलिए हम तीनों मिलकर हमारे इस घर व बच्चे को बचाने की कोशिश करेंगे”।

चिड़ा इन मुसीबतों की घड़ियों को टक्कर न दे सका और वह अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ वहाँ से बिन बताये ही चल दिया। चिड़िया और उसके बड़े बेटे ने जी-जान से कोशिश कर अपने घर और बच्चे को बचाने में सफल हो गये। इस घटना के सात-आठ साल के पश्चात व चिड़ा फिर एक दिन चिड़िया के घर आया। उसके इस सात-आठ साल की गैर मौजूदगी में इन माँ-बेटों ने कैसे दिन बिताये होंगे, इसका एहसास तक उसे न था। उसके आने पर पति-पत्नी के बीच सहज ही कुछ अनबन बन जाती और चिड़ा अपने बच्चों को साथ ले जाने की बात करता है किन्तु चिड़िया अपने बच्चों को देने से इनकार करती है। बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि दोनों उस राज्य के राजा के दरबार में न्याय के लिए चले आते हैं। दोनों अपनी-अपनी आपबीती राजा के समक्ष बयान करते हैं। राजा दोनों का बयान सुनने के पश्चात अपना निर्णय सुनाता है- “आप दोनों का बयान सुनने के पश्चात इस नतीजे पर पहुंचकर मैं यह आदेश देता हूँ कि ‘चिड़ा का यह हक बनता है कि वह बीज ले ले और छिलका फेंक दें”। राजा के आदेश के अनुसार चिड़ा ने बीज यानी अपने बच्चों को साथ ले लिया और जो छिलका (पत्नी) उसे उसके हाल पर छोड़कर चला गया। इधर चिड़िया का अपने बच्चों के विरह में दिन-रात खाना-पिना न के बराबर रहा। आखिरकार उसने उन्हीं की याद में अपनी अंतिम साँसे ली।

उसी शहर के एक मिस्त्री को शादी के 10-12 सालों तक कोई संतान नहीं थी। इसी बीच उसी मिस्त्री (मल्लप्पा) के घर एक कन्या ने जन्म लिया। इसी खुशी के मारे मिस्त्री ने पूरे गाँव वालों को खाने का न्योता दिया। उसके घर में खुशियों का ठिकाना न था। कन्या बहुत ही सुन्दर थी। कन्या का नामकरण कर दिया ‘चन्नम्मा’। धीरे-धीरे चन्नम्मा बडी होने लगी। अब तो वह सारे मुहल्ले में सबकी प्यारी बन गयी थी। देखते-ही-देखते वह पाँच साल की हो गयी। मिस्त्री ने अपनी चन्नम्मा को गाँव के ही एक आश्रम में विद्यार्जन के लिए भेज दिया। चन्नम्मा वहीं अपने गुरु द्वारा सिखाये जाने वाले संगीत एवं जीवन के पाठ को बडी लगन से पढ़ती, संगीत साधना के साथ-ही-साथ घुडसवारी में भी तेज होने लगी। घुड़सवारी में निपुण हुई चन्नम्मा को इस बात का एहसास भी हो गया था कि राजा के दरबार में केवल घोडियाँ ही हैं, घोड़ा नहीं है। मौके की तलाश में रही चन्नम्मा को अब अच्छा बहाना मिल गया था।

उसने अपने पिता से हठ किया कि मुझे घोड़ा चाहिए। मिस्त्री अपनी बेटी चन्नम्मा की हर ख्वाईशें पूरी करता आया था। बहुत दिनों बाद बेटी के रुप में लक्ष्मी ने मेरे घर जन्म लिया है, इसी खुशी में उसने चन्नम्मा को किसी बात की कमी खटकने नहीं दी। बेटी को समझाया किन्तु वह अपने हठ पर अड़ी रही। पिता ने एक अच्छे किस्म का घोड़ा खरीदकर अपनी बेटी को दे दिया। चन्नम्मा रोज सुबह उस राजा के महल के सामने से घोड़े के नालों की ऊँची आवाज में खट-खट करते जाते-आते देख, एक दिन राजा अपने सैनिकों से पूछ ही बैठा। अरे! वह जो लड़की रोज घोड़ा लेकर पाठशाला जाती-आती है वह कौन है? किसकी लड़की है? सैनिकों ने उस राजा को सब हकीकत बताई। राजा ने एक दिन उस मिस्त्री के घर संदेश भेजा कि-‘राजा को आपका घोड़ा बहुत पसंद आया है और उन्होंने कुछ दिनों के लिए आपके घोड़े को रजवाड़े में लाकर बांधने को कहा है। मिस्त्री परेशान होकर चिंतित बैठा था, उतने में चन्नम्मा आयी और उसने कारण पूछा तो पिता ने बताया कि- ‘महाराज को तुम्हारा घोड़ा पसंद है और कुछ दिनों के लिए रजवाड़े में बांधने को कहा है।’ चन्नम्मा खुश हुई और उसने कहा बस्स! इतनी-सी बात पर आप चिंतित हैं। आपको हाँ कह देना था। लेकिन चन्नम्मा तुम्हारी घुड़सवारी का क्या होगा? पिताजी आप मेरी परवाह मत कीजिए, कुछ दिनों की ही तो बात है. कछ दिन होते ही हम अपना घोड़ा वापस लेकर आयेंगे। और घोड़ा राजा के सिपाहियों द्वारा भेज दिया गया।

चन्नम्मा पैदल ही आश्रम जाती-आती रही। ऐसे ही चन्नम्मा को बिना घुड़सवारी के एक साल बीत गया। चन्नम्मा ने अपने पिता से घोड़ा वापस लेकर आने की बात की और दोनों घोड़ा लेने राजा के पास चले गए। देखते हैं कि इस एक घोड़े के कारण और भी कुछ चार-पाँच घोड़ों का जन्म हुआ है। राजा के सामने जाकर दोनों बाप-बेटियों ने बडी विनयता से प्रणाम किया। मिस्त्री ने राजा से कहा- “क्षमा चाहता हूँ महाराज, हमारा घोड़ा आपके यहाँ ले आकर तकरीबन एक साल हो गया. अब चन्नम्मा को भी जाने-आने के लिए तकलीफ हो रही है और वह घोड़ा चाहती है”। राजा ने अपने सिपाहियों को बुलाकर घोड़ा देने के लिए कहा। सिपाहियों ने बंधा घोड़ा छोडकर उन्हें दे दिया। मिस्त्री अपना घोड़ा लेकर चल दिया किन्तु चन्नम्मा ने अपने पिता को रोका और कहा- “पिताजी अपने इस घोड़े के कारण जन्म लिए उन सभी बछड़ों (घोड़े के बच्चे) को भी साथ ले लो। मिस्त्री आश्चर्य से अपनी बेटी की ओर देखने लगा। बेटी ने कहा- पिताजी आप ले लो। राजा ने क्रोध में आकर कहा- “ऐ लड़की! क्या कह रही हो? तुम्हारा घोड़ा तुम ले जाओ, बछड़ों को क्यों लेकर चलने को कह रही हो, वो हमारे हैं”। आपके कैसे हो सकते हैं? चन्नम्मा ने कहा- बछड़े तो बाप के ही होते हैं? ऐ मिस्त्री! समझाओ अपनी बेटी को क्या बक रही है? बछड़े बाप के कैसे हो सकते हैं? चन्नम्मा ने कहा- राजन याद कीजिए वो दिन जब आज से बीस साल पहले तुम्हारे दरबार में न्याय की गुहार लगाये एक चिड़िया और चिड़ा अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर आये थे और आपने न्याय दिया था? राजा मुँह पर उंगली रख याद करने लगा। राजा ने जानकर भी अनजान बनते हुए कहा- “मुझे याद नहीं क्या न्याय किया था”? क्यों इतनी जल्दी भूल गये महाराज, आह! वो वाक्य! जो आज भी मेरी कानों में बिजली की कड़कड़ाहट की तरह गूंजते हैं, ‘बीज ले लो और छिलका फेंक दो’। मैं वही चिड़िया हूँ। राजा को सौ कोड़े लगने का आभास हुआ, किन्तु निरुपाय होकर चुप हो गया। मिस्त्री घोड़े के बच्चों को साथ लेकर घर आया।

इधर राजा को उस मिस्त्री की बेटी पर बहुत गुस्सा आ रहा था। अपने सिपाहियों के सामने उसकी बडी बेइज्जती हो गयी थी। बदले की भावना ने उसके दिन और रात को एक कर दिया था। एक दिन अपने सिपाहियों से कहा- “अरे! ओ चंगु-मंगु उस मिस्त्री के घर जाओ और उससे कहना कि उल्टा सेर सर दस सेर गेहूँ दें। राजा की अज्ञानुसार सिपाही मिस्त्री के घर आये और उससे उल्टे सेर दस सेर गेहूँ देने को कहा। मिस्त्री डर-सा गया। उल्टे सेर कैसे गेहूँ भरा जा सकता है? वह चिंता में मग्न था। सिपाहियों से कहा मैं अपनी बेटी के आने पर गिनकर दस सेर गेहूँ लेकर आऊँगा। ठीक है कह सिपाही चले गये। बेटी आश्रम से घर आई तो देखा कि पिता चिंतामग्न बैठे हैं। पूछा, पिताजी आप किस चिंता में डूबे हो? पिताजी ने बेटी को सब हकीकत बताई। बेटी ने कहा पिताजी बस्स! इतनी-सी बात। ठीक है हम उल्टे सेर दस सेर गेहूँ उन्हें दे देंगे।

कैसे देंगे चन्नम्मा? तुम चिंता न करो मैं सब ठीक कर लूँगी। उसने दस सेर गेहूँ सिपाहियों के सामने उलटा सेर पकड थैले में लेकर राजा के घर आयी और कहा- हम उल्टे सेर दस सेर गेहूँ लाये हैं सो गिनकर ले लो। सिपाही एक थैला लाये और उसमें गेहूँ डालने लगे किन्तु चन्नम्मा ने उन्हें उलटा थैला पकडकर गेहूँ लेने को कहा तो सैनिक हंस पडे, उल्टा थैला पकड कैसे गेहूँ भरे जा सकते हैं? उन्होंने राजा को इस बात की जानकारी दी तो राजा ने भी वही कहा ‘उल्टा थैला पकडकर गेहूँ कैसे भरा जा सकता है’? तब चन्नम्मा ने जवाब दिया, जब उल्टा सेर पकडकर दस सेर गेहूँ तौले जा सकते हैं तो उल्टा थैला पकडकर भरा क्यों नहीं जा सकता। राजा को अपनी ही गलती के चलते पश्चताप हुआ और वे चुप हो गये। फिर चन्नम्मा के प्रति बदले की भावना उसके मन में घर कर गई। इस घटना को हुए तीन महीने बीत चुके थे कि फिर से राजा ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि- “जाओ और उस मिस्त्री के पास जाओ और सांड का दो शेर दूध लाने को कहो”। सिपाही गये और मिस्त्री को राजा का फरमान सुनाया। मिस्त्री डर के मारे काँपने लगा। सांड का दूध भला कहाँ से लायेंगे। बेटी ने पिता को परेशान देख पूछा- क्यों क्या हो गया पिताजी? आप परेशान क्यों दिखाई दे रहे हो? बात क्या है? पिता ने राजा के आदेश को सुनाया। चन्नम्मा ने कहा बस्स! इतनी-सी बात, ठीक है कह देना था। मिस्त्री आश्चर्य भाव से बेटी को देखने लगा। अगले दिन चन्नम्मा ने एक धोती ले ली और उसमें लाल रंग भरकर उसे राजा के दरबार के मुख्य द्वार से होकर ले जा रही थी तो राजा के सिपाहियों ने उसे रोका, पूछा क्या है ये? चन्नम्मा ने कहा, मेरे पिता रजस्वला हो गये हैं। इसलिए इसे लेकर जा रही हूँ। सिपाही हंस दिये। उन्होंने कहा लड़के कभी रजस्वला होते हैं क्या? हमने तो केवल लड़कियों के बारे में ऐसा सुना था। सिपाही ने हंसते हुए जाकर राजा को इस बात की जानकारी दी। राजा भी हंसते हुए आया और कहा ये लड़की पागल हो गयी है क्या? पुरुष कभी रजस्वला होते हैं क्या? राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए चन्नम्मा ने कहा “महाराज जब सांड को दूध आ सकता है तो पुरुष रजस्वला क्यों नहीं हो सकते?” राजा को बात मालूम हो गयी और अपने दांतों तले होंठ दबाकर चुपचाप वहाँ से निकल पड़े। मिस्त्री की ये लड़की बड़ी चालाक है। इसे कैसे भी हो पाठ सिखाना ही होगा, हर बार मेरा ही अपमान करती जा रही है। वक्त आने दो, इसे ऐसी सजा दूंगा कि जिन्दगी भर याद रखेगी।

चार-पाँच महीने बीत चुके थे। राजा को अपने अपमान का बदला लेना था। उसने ऐसे ही एक दिन अपने सिपाहियों को बुलाया और कहा अरे! जाओ और उस मिस्त्री से कहो कि राजा ने बुलाया है। मिस्त्री डरते-डरते राजा के पास आया और हाथ जोड़े खड़ा रहा। राजा ने कहा- मिस्त्री मुझे पता है तुम और तुम्हारी बेटी बहुत होशियार हो इसीलिए मैं तुमसे एक मदद चाहता हूँ। बोलिए महाराज क्या आज्ञा है? करना कुछ नहीं है 20 दिन की मुहलत ले लो और मुझे इस देश में राज्यवार पुरुष कितने हैं, इसकी जानकारी दे दो। मिस्त्री के हाथ-पैर काँपने लगे। 20 दिन में देश में पुरुष कितने हैं कैसे पता लगाऊँ। काम नहीं किया तो पेट कैसे भरेगा। घर का क्या होगा? इसकी चिंता उसे खाये जा रही थी। घर में बीवी और बेटी छोडकर 20 दिन चले जाने की सोच उनकी आँखों में आँसू भर आये।

दो दिन से उन्होंने न कुछ खाया और न पिया। पिताजी की यह दशा देख चन्नम्मा को बड़ा दुःख हुआ। उसने पूछा- पिताजी आपको हो क्या गया है, दो दिन से न ठीक से खाते हो न पीते हो, ऐसी क्या बला आन पड़ी है जो इतने चिंतित हो? अंत में अपनी बेटी चन्नम्मा को राजा के आदेश के बारे में बताते हैं। क्या पिताजी, आप भी इतनी-सी बात को लेकर परेशान हो रहे हो। आपका यह काम मैं चुटकी मारते ही कर दूँगी, आप चिंता मत कीजिए, खाना खाकर रघुनाथ चाचा के यहाँ जो काम बाकी है उसे पूरा कर लो। ये काम मुझ पर छोड़ दो। पर तुम कैसे करोगी चन्नम्मा? ये राजा हमारे पीछे हाथ धोकर क्यों पडे हैं पता नहीं। बेटी ने धैर्य बंधाया। ठीक बीस दिन बाद बेटी ने मिस्त्री से कहा- आज को ठीक 20 दिन पूरे हए। हम कल राजदरबार जायेंगे। मिस्त्री घबराये हुए थे। उन्होंने कहा- “पर चन्नम्मा हमने तो कितने पुरुष हैं यह गिना ही नहीं तो उत्तर क्या देंगे”। पिताजी आप चुप रहियेगा मैं जवाब दूंगी। आप चिंता न करे। मिस्त्री को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अगले दिन दोनों राजदरबार चले गये। राजा ने पूछा- क्या हुआ बाप-बेटी दोनों ने मिलकर गिनती कर ली? चन्नम्मा ने कहा इतने से काम के लिए दोनों की क्या जरुरत है, मैं अकेली ही गिन आयी हूँ। अच्छा तो बताओ, इस देश में राज्यवार कितने पुरुष हैं। चन्नम्मा ने जवाब दिया- “जितनी स्त्रियाँ हैं उतने ही पुरुष हैं”। राजा उत्तर सुनकर चौंक गया। हाँ! ऐसे कैसे हो सकता है? ऐसा ही है, हमने कुल-मिलाकर 18 दिन तक लगातार गिनती की है अगर आपको हमपर भरोसा नहीं है तो आप खद ही गिनती कर लीजिए। राजा और दरबार में उपस्थित लोग निरुत्तर होकर देखते ही रह गये। फिर से राजा ने हार मान ली।

राजा को इस बात एहसास हो गया था कि यह लड़की बहुत चालाक है। इससे किसी दूसरे तरीके से बदला लेना चाहिए। कुछ दिन बीत गये। एक दिन राजा ने अपने सिपाहियों से कहा- मिस्त्री को बुलाकर ले आओ। सिपाही मिस्त्री को बुला लाये। राजा ने मिस्त्री की बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखा। मिस्त्री नीची गरदन कर कुछ न बोल सका और बस इतना ही कहा कि मैं चन्नम्मा से पूछ कर बता दूंगा। राजा के दरबार से मुँह लटकाये मिस्त्री घर आया। काम के लिए जाने का उसका मन न था। तेज बखार चढ आयी थी। वैद्य के यहाँ गये। उसने कहा- आपके पिताजी को किसी न किसी बात का सदमा लगा है। वे मानसिक रुप से तनावग्रस्त हैं इसीलिए उन्हें तेज बुखार है। चन्नम्मा ने पिताजी से पूछा- क्या बात है पिताजी? किस बात को लेकर आप चिंतित हैं. मझे भी तो बताओ. तम्हें मेरी कसम। बेटी को जी-जान से प्रेम करने वाले मिस्त्री ने बेटी के कसम के वास्ते से कहा-चन्नम्मा मैं कैसे कहूँ? घबराओ नहीं पिताजी बोलो क्या बात है? पिता ने कलेजे पर पत्थर रख राजा का प्रस्ताव बेटी के सामने रखा। चन्नम्मा- बस्स! इतनी-सी बात पिताजी, इसमें घबराने की क्या जरुरत है। आपको हाँ कह देना था। लेकिन चन्नम्मा, चन्नम्मा वगैरह कुछ नहीं पिताजी, उनसे कह दो कि मैं शादी के लिए तैयार हूँ। पिताजी महाराज के पास गये और उनसे कहा- महाराज मेरी बेटी आप से विवाह करने के लिए तैयार है। राजा खुश हुआ। शादी की तैयारियाँ होने लगी। कुछ ही दिनों में बड़ी धूम-धाम के साथ शादी हो गयी।

शादी के अगले दिन ही राजा ने चन्नम्मा को अपने उस नदी के बीच बनाये हुए मकान में रहने को भेज दिया। चन्नम्मा को वहाँ रहते लगभग एक साल हो गया था, किन्तु महाराज एक दिन भी उसके यहाँ नहीं आया था। मिस्त्री को भी अपनी बेटी के साथ राजा द्वारा धोखाधड़ी करने की बात का पता चल गया था। राजा बहुत खुश था। बड़े होशियार बन रहे थे बाप-बेटी, अब कहाँ गयी होशियारी। मुझसे पंगा लेकर उस लड़की ने बड़ी भूल की। अब भुगते। चन्नम्मा के लिए घर भी ऐसी जगह बनाया गया, आस-पड़ोस में भी कोई नहीं था।

अचानक एक दिन उस नदी के पार स्थित एक छोटा-सा गाँव था जहाँ के लोग उसी नदी के रास्ते होकर जा रहे थे। उनमें से कुछ लोगों को जोर से प्यास लगी हुई थी तो उन्होंने देखा कि नदी के बीच एक घर है। क्यों न वहाँ जाकर पानी पियें और कुछ देर के लिए रुके। इसी उद्देश्य से वे लोग चन्नम्मा के घर गये। चन्नम्मा ने उनका हृदय से स्वागत कर उन्हें पानी पिलाया। पानी पीकर तृप्त हुए वे लोग कुछ समय के लिए वहीं विश्रांती की अनुमति पाकर विश्राम करने लगे। उनमें से एक वयोवृद्ध स्त्री थी जो चन्नम्मा के साथ बैठी बातें कर रही थी और पूछ रही थी- तुम इतनी सुन्दर हो और ऐसी वीरान जगह कैसे रहती हो? चन्नम्मा ने सब हकीकत उस माता समान वयोवृद्धा के सामने बयान की। उसे चन्नम्मा पर दया आयी। उस स्त्री ने बताया कि हम भी तुम्हारे पति के यहाँ ही नृत्य-गान के लिए जा रहे हैं। उनके यहाँ कोई महोत्सव है और हमें बुलाया गया है। चन्नम्मा ने उस माता समान वृद्धा के सामने विनती की, अगर आप मेरी मदद करेंगी तो मैं भी आपके साथ उस महोत्सव में भाग लेने आ सकती हूँ। मैं गा तो सकती हूँ, पर नृत्य थोडा-बहुत आता है, आप मुझे नृत्य सीखा दोगी तो मैं भी आपके मंडली की सदस्य बनकर आऊँगी। वृद्धा उसकी मधुर आवाज से खुश हो गयी और कहा- चन्नम्मा तुम्हारी आवाज तो बहुत सुरीली है। मैं तुम्हें नृत्य सिखाऊंगी। नृत्य मंडली की सहायता से केवल दो-तीन दिन में ही चन्नम्मा ने अच्छी-खासी तैयारी कर ली।

उसी मंडली के साथ चन्नम्मा भी उन्हीं के भेष में निकल पड़ी। रास्ता दूर था, दो-तीन दिन तो पहले ही देर हो चुकी थी तो वे बिना रुके तेजी से कदम बढाने लगे। तीसरे दिन वे राजदरबार पहुंच गये। राजा के सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार उनके रहने का इंतजाम किया। दो दिन बाद महोत्सव था (जो उस साम्राज्य के कुलदेवता के नाम पर हर साल किया जाता था।) सब तैयारियाँ जोर-शोर से हो रही थीं। ये तैयारियाँ पीछले 15 दिन से चल रही थीं। आखिरकार तैयारियां पूरी हो गयी। महोत्सव के पहले दिन महल में नृत्य-गान का आयोजन किया गया था। उसी के उपलक्ष्य में रात में मांस-मदिरा आदि की धूम थी। नृत्य का आरंभ हुआ और इस नृत्य की पहली कडी में ही चन्नम्मा का नृत्य था। चन्नम्मा का पहनावा एवं उसके श्रृंगार के चलते राजा उसे पहचान न सका। उसने ऐसा नृत्य प्रस्तुत किया कि राजा देखते ही रह गया। आज तक उसने ऐसा नृत्य कभी नहीं देखा था। वह मंत्रमुग्ध हो गया। नृत्य की समाप्ति पर राजा ने इस नृत्य मंडली की मुखिया उस वयोवृद्धा को बुलाकर चन्नम्मा के विषय में पूछा और रुपयों का लालच दिखाते हुए कहता है, मुझे वह लडकी बहुत पसंद है, बोलो उसकी क्या कीमत है, जो माँगो वो देने के लिए तैयार हूँ। वयोवृद्धा ने कहा- पूछकर बताती हूँ, कह वह वहाँ से चल देती है। और सब विस्तार से चन्नम्मा को बतलाती है और कहती है कि- राजा तुम्हारे साथ पान खाना चाहता है। चन्नम्मा बडी खुश हुई क्योंकि सालों से वह इन्हीं दिनों की राह देख रही थी। वह राजी हो गयी। इस महोत्सव के चलते वे लगभग 20-25 दिन इसी महल में रहे। राजा को चन्नम्मा के साथ रातें गुजारना बड़ा अच्छा लगा। जब भी राजा उसके शयनकक्ष में आता तो चन्नम्मा दीया बुझा देती थी ताकि अपना राज खुल न सके। राजा ने उन्हें जाते समय बहुत कुछ मूल्यवान वस्तुएँ, रुपये देकर विदा किया। नृत्य मंडली बड़ी खुश थी क्योंकि जिन्दगी में पहली बार उन्हें इतना रुपया, मान-सम्मान एवं मूल्यवान वस्तुएँ मिल गयी थीं।

चन्नम्मा ने उस वयोवृद्धा से निवेदन किया कि जब भी मुझे आपकी जरुरत पडेगी मैं आपको बुला लूंगी कृपया आप बुरा न मानें। माता समान वृद्धा ने कहा, तुम तो मेरी बेटी समान हो, जब भी बुलाओ मैं सेवा में हाजिर हो जाऊंगी।

इस तरह कुछ समय बीत गया। अब वह सात महीने की गर्भवती थी। उसने उस वयोवृद्धा को बुलावा देकर भेज दिया। वह आयी। चन्नम्मा गर्भवती है इस बात की जानकारी जब राजा के कानों पड़ी तो वह आगबबूला हो गया और कुलटा, चरित्रहीन, दुष्टा आदि न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप कहने लगा। मिस्त्री को बुलाकर उसने उसकी बेटी की करतूतों पर उंगली उठाते हुए उसको सबकी नजरों में नीचा दिखाने की कोशिश की। वह अपने कुछ सिपाहियों को साथ लेकर चन्नम्मा की ओर चल दिया। उसे वहाँ से उठा लाकर अगले दिन सभा बुलाई। सभी दरबारी और लोग आ गये। राजा ने उसके चरित्र पर उंगली उठाकर उसकी सभी नैतिकताओं के चौखटों को तोड़ने की कोशिश की। उसपर अनेक कलंकित आरोप लगाये। सब चुपचाप सुनने के पश्चात चन्नम्मा ने बीच में ही राजा को रोकते हुए कहा-बस्स! अब बहुत हो चुका, इन कानों ने बहुत कुछ सुन लिया, अब सुना नहीं जाता। मुझ पर झूठा इल्जाम लगाने से पहले आप अपने नैतिक चौखटों में कितना बंधे हुए हैं, इसपर तनिक सोचा होता तो उचित था। आपने जो भी आरोप मुझपर लगाये हैं वे सब झूठ हैं।

सभा में उपस्थित सभी गुरुवृंद, महापुरुष, माता-बहनों एवं अन्य मान्यवरों को प्रणाम करती हूँ। महाराज आपको याद होगा कि कुछ समय पहले आपके यहाँ महोत्सव हुआ था और जिसमें नृत्य के लिए आपने नदी पार स्थित गाँव की मंडली को आमंत्रित किया था। राजा ने हाँ में जवाब दिया। आपको याद होगा कि उस नृत्य मंडली द्वारा महोत्सव के पहले दिन नाच-गाना हुआ था और उसमें गाते हुए नृत्य करने वाली सुन्दरी पर आप मोहित होकर उसपर दिल हार चुके थे, इतना ही नहीं बल्कि आपने उसके साथ रात में पान खाने का सौदा भी किया था। राजा को अब गुस्सा आया और उसी गुस्से में कहाउससे तुम्हारा क्या लेना-देना है, ये मेरा व्यक्तिगत विषय है। लेना-देना है महाराज इसीलिए तो मैं कह रही हूँ। तुम्हारा क्या मतलब है? यही कि तुम जिस नृत्यवाली पर फिदा होकर रोज उसके साथ अंधेरी रात में पान खाते थे, वह दूसरी कोई और नहीं बल्कि मैं ही थी। अब तो राजा के पैरों तले की जमीन खिसक गयी। वह मुँह छुपाने के लायक नहीं रहा। अपने किए पर खुद लज्जित हो रहा था। सभा में उपस्थित सब लोग आश्चर्यचकित हो गये।

अंत में राजा चन्नम्मा के ज्ञान, चतुरता, होशियारी, धैर्य एवं सहनशीलता के आगे घुटने टेककर अपनी गलती स्वीकार करता है और बड़े मान-सम्मान के साथ उसका स्वागत कर उसे अपनी छोटी रानी होने का गौरव समर्पित करता है।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’