Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है क्षीरसागर में त्रिकूट नामक एक श्रेष्ठ पर्वत स्थित था । स्वर्ण, रजत और लौह से निर्मित उसके तीन शिखर थे । उसकी वैभवता और ऐश्वर्य को देखकर अनेक देवगण वहाँ निवास करते थे । त्रिकूट पर्वत की तलहटी में वरुण देव का ऋतुमान नामक एक सुंदर उद्यान था । वह उद्यान सुंदर फूलों और फलों से सदा भरा रहता था । उस उद्यान में एक सुंदर सरोवर भी था । सुंदर कमल पुष्प और उस पर मँडराते भँवरे सरोवर की सुंदरता को द्विगुणित कर देते थे । उस पर्वत के वन में गजेन्द्र नामक एक हाथी निवास करता था । वह हाथियों के झुंड का सरदार था । उसकी विशालकाय आकृति देखकर सिंह, बाघ, गैंडे, जैसे हिंसक पशु भी भयभीत होकर छिप जाते थे ।
एक दिन भ्रमण करते हुए गजेन्द्र को वह सुंदर सरोवर दिखाई दिया । गर्मी की अधिकता के कारण वह पहले से ही व्याकुल था, अतः सरोवर को देख उसके मुख पर प्रसन्नता छा गई । वह सरोवर के जल में स्नान करने लगा । हाथियों को जल अति प्रिय होता है, इसलिए गजेन्द्र उन्मत्त होकर जल में क्रीडाएँ करने लगा । उसके इस कार्य से एक ग्राह (मगरमच्छ) ने क्रोधित होकर उसका पैर पकड़ लिया ।
इस प्रकार अचानक हुए हमले से गजेन्द्र बौखला उठा, फिर वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर स्वयं को छुड़वाने की चेष्टा करने लगा । किंतु वह ग्राह परम शक्तिशाली था, वह गजेन्द्र को जल के भीतर खींचने लगा । अपने स्वामी को जल में फँसा देख अन्य हाथी भयंकर चिंघाड़ करते हुए उसे निकालने का प्रयास करने लगे । लेकिन अपने प्रयास में वे सफल नहीं हुए । गजेन्द्र और ग्राह पूरी शक्ति से एक-दूसरे को खींच रहे थे । कभी गजेन्द्र ग्राह को बाहर खींच लाता, तो कभी ग्राह गजेन्द्र को जल के भीतर ले जाता । इस प्रकार वे एक हजार वर्षों तक रस्साकशी करते रहे । अंत में बल समाप्त होने पर गजेन्द्र का शरीर शिथिल पड़ गया । इधर ग्राह तो जलचर था । जल में रहकर उसकी शक्ति क्षीण होने का कोई प्रश्न नहीं था । वह बड़े उत्साह और बल से उसे जल में खींचने लगा ।
प्राण संकट में देख गजेन्द्र सोचने लगा – ‘यह ग्राहरूपी काल लगता है, जो मेरे प्राण हरना चाहता है । यह बड़ा बलि है और सर्प की भांति मुझे निगलना चाहता है । अतः मुझे संसार के एकमात्र आश्रय भगवान् श्रीहरि की शरण लेनी चाहिए । जो प्राणी भगवान् विष्णु की शरण में जाता है, वे अवश्य उसकी रक्षा करते हैं । उनके भय से मृत्यु भी भयभीत हो जाती है ।’
यह सोचकर वह श्रीहरि के स्वरूप का चिंतन कर उनसे रक्षा की प्रार्थना करने लगा । गजेन्द्र ने भक्तिपूर्वक श्रीहरि की आराधना की थी, अतः भगवान् श्रीहरि गरुड़ पर आरूढ़ होकर रश्चण वहाँ प्रकट हो गए । गजेन्द्र ने अपनी सूंड़ से एक कमल-पुष्प उठाकर उनके चरणों में अर्पित किया । भक्त की भेंट से प्रसन्न होकर श्रीहरि ने गजेन्द्र को ग्राह सहित जल से बाहर निकाल दिया । फिर उन्होंने अपने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया । इन्द्रादि देवगण उनकी स्तुति करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे ।
भगवान् श्रीहरि के स्पर्श से ग्राह और गजेन्द्र पशु-रूप त्याग कर दिव्य स्वरूपों में प्रकट हो गए । वे सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित थे । उनके सुंदर और कांतिमय मुख सूर्य के समान प्रकाशित हो रहे थे । उनका यह दिव्य रूप देखकर देवगण आश्चर्यचकित हो उठे ।
तब देवराज इन्द्र भगवान् श्रीहरि से बोले – “प्रभु ! आपकी यह कैसी माया है? अभी कुछ क्षण पूर्व तक ये दोनों ग्राह और गजेन्द्र के रूप में एक-दूसरे को समाप्त करने को उद्यत थे और अब दिव्य रूप धारण कर त्रिकूट पर्वत को आलोकित कर रहे हैं । दयानिधान ! कृपया बताएँ, वास्तव में ये कौन हैं और इन्हें ये योनियाँ किस प्रकार प्राप्त हुई थीं?”
भगवान् श्रीहरि इन्द्र की जिज्ञासा शांत करते हुए बोले – “देवेन्द्र ! तुमने जिस ग्राह को देखा था, पूर्वजन्म में वह ‘हूहू’ नाम का एक गंधर्व था । वह बहुत चंचल और धृष्ट था और ऋषि-मुनियों को प्रताड़ित करता रहता था । एक बार देवल नामक एक ऋषि सरोवर में स्नान कर रहे थे । उसी समय भ्रमण करते हुए वह वहाँ आ गया । जब उसने देवल ऋषि को स्नान करते देखा तो उन्हें भयभीत करने के उद्देश्य से ग्राह का वेश बना लिया और उन्हें तंग करने लगा । देवल ऋषि परम तपस्वी और ज्ञानी थे । वे क्षणभर में जान गए कि यह हूहू गंधर्व है । उन्होंने क्रोधित होकर उसे ग्राह बनकर इस सरोवर में पड़ा रहने का शाप दे दिया । शाप से भयभीत होकर इसने मुनि से क्षमा-याचना की । तब देवल मुनि ने इसे वरदान दिया कि शीघ्र ही मेरे द्वारा इसका उद्धार होगा । आज यह शाप से मुक्त होकर पुन: अपने वास्तविक स्वरूप में आ गया है ।”
तत्पश्चात् श्रीहरि गजेन्द्र की कथा सुनाते हुए बोले – “देवेन्द्र ! पूर्वजन्म में गजेन्द्र द्रविड़ देश का पाण्ड्य वंशी राजा इन्द्रद्युम्न था । मेरी भक्ति में लीन होकर एक दिन इसने राजपाट और समस्त ऐश्वर्यों को त्याग दिया और मलय पर्वत पर जाकर कठोर तप करने लगा । एक बार यह मन को एकाग्र कर, मेरे विराट् स्वरूप का चिंतन कर रहा था । तभी दैववश महर्षि अगस्त्य अपने शिष्यगण के साथ वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने इसकी कुटिया के पास आकर इसे पुकारा । किंतु यह तो मोह माया से विरक्त होकर अपना ध्यान मेरे चरणों में लगा चुका था भला इसे उनकी बात कहाँ से सुनाई देती । अगस्त्य मुनि ने देखा कि यह अतिथि-सेवा न कर उनका तिरस्कार कर रहा है तो उन्होंने क्रुद्ध होकर इसे हाथी की योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया । इसने उसे मेरा आशीर्वाद समझकर सहर्ष स्वीकार कर लिया । गज योनि में भी यह सतत् मेरा स्मरण करता रहा और आज अपने शाप से मुक्त हो गया ।”
भगवान् श्रीहरि की बात सुनकर सभी देवगण उनकी जय-जयकार कर उठे । तत्पश्चात् भगवान् श्रीहरि की परिक्रमा कर हूहू गंधर्व अपने लोक लौट गया । जबकि दिव्य रूपधारी गजेन्द्र को श्रीहरि ने अपना पार्षद बना लिया । इस प्रकार भगवान् के स्मरण मात्र से ही उसे उनका परम धाम प्राप्त हो गया ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
