Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है-ऋतवाक् नामक एक बड़े धार्मिक मुनि थे । उनके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ । जब से पुत्र उत्पन्न हुआ, ऋतवाक् तथा उनकी पत्नी की धर्म-कर्म में अरुचि हो गई, वे रोग और शोक से चिंतित रहने लगे । क्रोध और लोभ उन्हें घेरे रहते थे । उनका पुत्र थोड़ा बड़ा हुआ तो बड़ा उद्दण्ड हो गया । ऋषि-मुनियों को परेशान करना उसका स्वभाव बन गया । अंत में ऋतवाक् मुनि, महर्षि गर्ग की शरण में गए ।
तब महर्षि गर्ग बोले – “मुनिवर ! पुत्र के दुश्चरित्र होने में न आप कारण हैं और न ही माता । रेवती नक्षत्र का अंतिम चरण ‘गण्डान्त’ होता है । वही निन्दित वेला आपके इस पुत्र के जन्म के समय बीत रही थी । इसलिए आपको दु:खी करना इसका स्वभाव बन गया । दूसरा कोई भी कारण नहीं है ।”
महर्षि गर्ग की बात सुनकर ऋतवाक् मुनि क्रोधित होकर बोले – “मुनिवर! मेरा एक ही पुत्र है । रेवती नक्षत्र के अंतिम भाग में उत्पन्न होने के कारण उसमें भी दुष्टता और नीचता के गुण आ गए । यह सब रेवती नक्षत्र के कारण हुआ है । अतः मैं रेवती नक्षत्र को आकाश से गिर जाने का शाप देता हूँ ।”
मुनि के शाप से रेवती नक्षत्र उसी क्षण आकाश से टूटकर कुमुद गिरि पर आ पड़ा । रेवती के गिरने से वह पर्वत ‘रैवतक’ नाम से प्रसिद्ध हो गया । रेवती नक्षत्र की कांति एक सरोवर में बदल गई । उस सरोवर में से एक दिव्य कन्या का जन्म हुआ । वह कन्या कमल-पुष्प पर लेटी हुई रो रही थी । निकट ही प्रमुच नामक एक परम तपस्वी मुनि का आश्रम था । कन्या को रोते देख उनका मन द्रवित हो गया और वे उसे अपने आश्रम में ले आए । उन्होंने उसका नाम रेवती रख दिया और पुत्री की भाति उसे पालने लगे ।
जब रेवती युवा हुई तो प्रमुच मुनि को उसके विवाह की चिंता सताने लगी । एक दिन दुर्गम नामक एक राजा-प्रमुच मुनि के आश्रम में पहुँचा । उसके पिता का नाम विक्रमशील और माता का नाम कालिन्दी था । रेवती को देख दुर्गम के मन में प्रेम का भाव उत्पन्न हो गया और उसने मुनि के समक्ष रेवती से विवाह करने की इच्छा प्रकट की । प्रमुच मुनि सहर्ष तैयार हो गए, किंतु रेवती ने मुनि पिता से प्रार्थना की कि उनका विवाह रेवती नक्षत्र में ही सम्पन्न करें, अन्यथा वह विवाह सफल नहीं होगा । तब महर्षि प्रमुच ने अपने तपोबल से रेवती नक्षत्र को पुन: आकाश में स्थापित कर दिया । इसके बाद रेवती और दुर्गम का विवाह सम्पन्न हो गया । तत्पश्चात् प्रमुच मुनि ने दुर्गम से वर माँगने को कहा ।
तब दुर्गम बोला – “मुनिवर! मेरा जन्म स्वयंभू मनु के वंश में हुआ है । अतः मैं एक ऐसा पराक्रमी पुत्र चाहता हूँ, जो इस मन्वंतर का स्वामी हो ।” प्रमुच मुनि ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे इच्छित वर प्रदान कर दिया ।
कुछ दिनों के बाद रेवती ने रैवत नामक एक पराक्रमी पुत्र को जन्म दिया, जो आगे चलकर पाँचवें मनु पद पर सुशोभित हुआ । पाँचवें मन्वंतर में विभु नामक इन्द्र थे । उर्ध्वबाहु, सोमनंदन, हिरण्यरोमा, अत्रिकुमार, सत्यनेय, देवबाहु, वेदशिरा तथा यदुध्र – ये सप्तर्षि थे । इस मन्वंतर में श्रीविष्णु ने शुभ्र नामक ऋषि की पत्नी विकुण्ठा के गर्भ से वैकुण्ठ नाम से अवतरित होकर वैकुण्ठ-लोक की रचना की ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
