‘देखो रूप बिटिया, मैंने तुम्हारे लिए एक अच्छे से मास्टरजी की व्यवस्था कर दी है, वे कल से ही तुम्हें पढ़ाने आएँगे। आजकल यों भी स्कूलों में क्या होता-जाता है, सिवाय ऊधम धाड़े के। घर में ही मन लगाकर पढ़ोगी तो दो घंटे में ही चार घंटे की पढ़ाई कर लोगी। और फिर हमारी रूप बिटिया बुद्धिमान भी तो बहुत है, दो साल में बस मैट्रिक हो जाएगी। क्यों, ठीक है ना?’

रूप को लगा कि उसकी सारी दृढ़ता, सारा संकल्प बहा चला जा रहा है। उसके मुँह से केवल इतना ही निकला-‘जी ठीक है।’ और वह लौट आई। कमरे में आकर वह बहुत रोई, अपने को बहुत कोसा क्यों नहीं मैंने साफ-साफ कह दिया, क्यों मान गई मैं पिताजी की बात। पर उसके मन की बात उसके मन में ही घुटकर रह गई, उसे कोई जान भी नहीं पाया। दूसरे दिन से ही मास्टरजी पढ़ाने के लिए आने लगे और वह पढ़ने लगी।

आज से तीन साल पहले रूप बड़ी ज़िद्दी, बड़ी हठीली लड़की थी। तीन साल पहले अचानक हार्ट-फेल हो जाने के कारण उसके सिर से माँ का साया सदा के लिए उठ गया था। साल-भर बीतते-न-बीतते उसके पिताजी ने उसके लिए नई माँ की व्यवस्था तो कर दी, पर उसका मुरझाया मन फिर से हरा न हो सका। अपनी माँ के असीम प्यार में रहने के बाद जब एकाएक उसे नई माँ के कठोर नियंत्रण में रहना पड़ा तो वह इतनी डर गई, इतनी सहम गई कि उसका सारा उल्लास, सारी चंचलता, सारे हौसले मर गए। दस वर्ष की नन्ही रूप जैसे प्रौढ़ हो गई हो। पर इस प्रौढ़ता में भी कभी-कभी उसका बचपना झाँक जाता था, कभी-कभी ज़िद पकड़कर बैठ जाने की उसकी इच्छा होती थी, लेकिन…

दूसरे दिन से मास्टर जी आने लगे और वह पढ़ने भी लगी, पर थोड़े ही दिनों में रमेश बाबू ने इस बात को अच्छी तरह महसूस कर दिया कि रूप का स्कूल छुड़वाकर उन्होंने भारी भूल की। धीरे-धीरे घर का सारा काम एक के बाद एक तारा देवी के कंधों से सरककर रूप पर आता गया और वह भी बिना विरोध किए चुपचाप सब-कुछ ओढ़ती चली गई। चंद दिनों में ही वह विद्यार्थी से गृहस्थिन बन गई। संध्या को ऑफ़िस से लौटकर जब वे रूप का क्लांत चेहरा देखते तो उनका मन मसोस उठता। बहुत सोच-विचार कर उन्होंने आख़िर एक दिन तारादेवी से कहा-

‘मास्टरजी कह रहे थे कि रूप की पढ़ाई ठीक से नहीं हो रही है।’

‘अरे तो पढ़ाई भी कोई रोटी है कि गटागट खा ली। मैं तो पहले ही कहूँ थी कि लड़कियों की बुद्धि घर सँभालने की होती है? तुम ज़बरदस्ती ही किताबों से मगज़मारी करवाओगे तो और क्या होगा?’

‘जब किसी बात को पूरी तरह समझती नहीं तो यों टाँग मत अड़ाया करो!’

स्वर में क्रोध का पुट स्पष्ट-‘मैं सोचता हूँ, रूप को उसके मामा के यहाँ भेज दूँ। वे तो बेचारे पहले भी बहुत कह गए थे। बस मैं ही नहीं माना। अब सोचता हूँ भेजना ही ठीक होगा। उसके कोई संतान भी नहीं है, दूसरे वहाँ लड़कियों की शिक्षा की अलग व्यवस्था भी है। शहरी जीवन में रहेगी तो कुछ बनेगी…नहीं-नहीं उसे अब भेजना ही होगा, ऐसे चलेगा नहीं।’

कोई और समय होता तो तारादेवी शायद इस प्रस्ताव को कभी नहीं मानतीं, पर आज रमेशबाबू का रुख कुछ ऐसा था कि विरोध करने का साहस नहीं हुआ। केवल इतना ही कहा-‘तुम जानो और तुम्हारा काम जाने।’ और वे चली गईं।

जब रूप ने देखा कि मामा के यहाँ भेजा जा रहा है तो उसका मन विद्रोह कर उठा-‘मैं नहीं जाऊँगी मामा-वामा के यहाँ। अपना घर क्यों छोडूँ, स्कूल भी छुड़वा दिया, इतना काम भी करती हूँ, फिर भी ये लोग मुझे अपने घर नहीं रखना चाहते। इस बार मैं साफ़-साफ़ कह दूंगी कि मैं कहीं भी नहीं जाऊँगी।’ जाने क्यों इस बात से उसे लगा मानो पिताजी उसे घर से निकालना चाहते हैं और यही भावना उसके मन को कचोट रही थी। ‘मैं इतनी पराई हो गई, इतनी बुरी हो गई कि घर में भी नहीं रखा जा सकता। ऐसा ही है तो मुझे मार डालो, पर मैं जाऊँगी नहीं!’ और वह शाम तक रोती रही। शाम को पिताजी के आते ही वह साहस बटोरकर उधर चली। जैसे ही दरवाज़े के निकट पहुँची उसने सुना, नई माँ पिताजी से कहा रही थीं-‘तुम्हारे ही भेज़ँ-भेज़ँ करने से क्या होता है, तुम्हारी लाड़ली तो सवेरे से आँसू ढुलका रही है।’

पिताजी बोले-‘कौन, रूप बेटी! अरे वह बड़ी समझदार लड़की है, मेरा कहना वह कभी टाल सकती है!’ रूप को लगा जैसे उसका सारा विरोध, सारा क्रोध बह गया है। वह जितने जोश के साथ इधर आई थी, उतने ही शिथिल कदमों से लौट गई।

मामा के बारे में रूप ने सुना तो बहुत था, होश सँभालने के बाद उन्हें कभी देखा नहीं था। जब वह वहाँ पहुँची तो मामा-मामी के असीम प्यार ने दो दिन में ही जैसे उसे नया जीवन दे दिया। मामा तो बहुत देर तक उसके सिर पर हाथ फेरते रहे और उनकी आँखों से आँसू बहते रहे। मामा को यों रोते देख रूप भी बहुत फूट-फूटकर रोई। मामा-मामी के अतिरिक्त उस घर का तीसरा सदस्य था ललित। बचपन से ही डॉक्टर साहब ने इसे पाला था, और आज तो वह एक प्रकार से उनका पुत्र ही बन गया था। डॉक्टर साहब तो अपने काम में ही बड़े व्यस्त रहते थे सो उन्होंने रूप की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था का सारा भार ललित पर डाल दिया। शुरू में रूप को ललित के सामने बड़ी झिझक लगती थी। लड़कों के साथ बात करने की उसे आदत जो नहीं थी, पर उस घर का वातावरण ही इतना उन्मुक्त, इतना स्वच्छंद था कि अधिक दिनों तक संकोच और झिझक टिक नहीं सकी।

मैट्रिक की परीक्षा देकर भी रूप घर नहीं गई। सारी छुट्टियाँ वहीं बिता दीं। आज उसका रिजल्ट निकलनेवाला है। ललित रिज़ल्ट देखने गया हुआ है और उसे लग रहा है जैसे समय ही नहीं गुज़र रहा है। पास तो वह ज़रूर ही हो जाएगी, डिवीज़न भी अच्छा ही मिलेगा, फिर भी जब तक रिज़ल्ट न आ जाए, मन में खटका था तभी दूर से ललित आता दिखाई दिया, वह दौड़कर फाटक पर पहुँची। ललित ने कहा-‘मैं कहता हूँ, बोर्डवाले फोर्थ-डिवीज़न की भी व्यवस्था कर देते तो उनका क्या बिगड़ जाता!’

‘क्यों, क्या हुआ?’ रूप ने कुछ बुझे-से स्वर में पूछा। पर उसे अपनी असफलता पर विश्वास नहीं हो रहा था।

‘होगा क्या, फर्स्ट से लेकर थर्ड डिवीज़न तक की सारी लिस्ट टटोल मारी, कहीं आप साहब का नाम ही नहीं!’

‘चलो हटो, झूठे कहीं के, ऐसा हो ही नहीं सकता!’

‘नहीं साहब, ऐसा कैसे हो सकता है, रूप रानी तो पास होने का पट्टा लिखाकर आई हैं खुदा के घर से। देख रही हो चाची इसका मुगालता! खोपड़ी में गोबर और सपने देखेंगी, फर्स्ट डिवीज़न के।’

‘मेहनत तो बहुत की थी बेचारी ने।’ मामी ने कुछ निराश स्वर में कहा।

‘अरे तो इसमें घबराने की क्या बात है? कौन बोर्ड टूटा जाता है या रूप ही मरी जा रही है। आते साल फिर बैठ लेगी। अच्छा है, एक-एक क्लास में दो-तीन साल रहेगी तो जड़ें मजबूत हो जाएँगी।’

‘मैं मान ही नहीं सकती कि मैं फेल हो गई, तुम झूठे ही चिढ़ा रहे हो…मुझे अपनी आँखों से दिखाकर लाओ तो मानूँ।’

‘नहीं मानती तो जाकर देख आ। यहाँ तेरे नौकर लगे हैं ना, जो दस-दस बार चक्कर खाते फिरें।’

तभी डॉक्टर साहब की कार आती दिखाई पड़ी। गाड़ी से उतरते ही उन्होंने पूछा, ‘क्या रहा रूप तुम्हारा रिज़ल्ट?’

रूप रोनी-रोनी-सी हो रही थी, मामी कुछ बोलने ही जा रही थी कि ललित बोल पड़ा, ‘जी फ़र्स्ट डिवीज़न में पास हो गई है।’ डॉक्टर साहब के सामने मज़ाक करने का उसका भी साहस नहीं था। सुनते ही रूप ने आँखों-ही-आखों में उसको डाँटा। मामी बोल पड़ी, ‘कैसा है रे तू भी, जबसे बेचारी को छेड़ रहा था।’ डॉक्टर साहब रूप को खूब शाबासी देकर, उसकी पीठ थपथपाकर अंदर चले गए। जाते ही रूप ने ललित को लपेटना शुरू किया…

‘बड़े आए फोर्थ डिवीज़न वाले! अपने जैसा कूढ़मगज ही सबको समझ रखा है ना!’

‘अच्छा! अच्छा!! अब इतरा रही है! यह तो गनीमत समझ की खून-पसीना एक करके तेरे ऊसर दिमाग में भी थोड़ी अक्ल पैदा कर दी, वरना लुढ़कती ही नज़र आती।’ तभी डॉक्टर साहब का बुलावा आया और दोनों अंदर गए।

आज रूप कॉलेज में फार्म भरने जानेवाली थी। सवेरे से ही ललित उसे समझा रहा है कि कौनसे विषय लेना उसके लिए ठीक रहेगा, पर रूप है कि मानती ही नहीं। ललित झल्ला पड़ा, ‘समझती कुछ है नहीं, किसी से सुन लिया और अपनी-अपनी लगाए जा रही है।’

रूप भी बिगड़ पड़ी-‘जाओ, नहीं समझते हैं तो नहीं सही, पर तुम्हारे विषय कभी नहीं लेंगे, कोई तुम्हारे गुलाम हैं जो हर बात तुम्हारी ही मानें।’

पर जब रूप ने फ़ार्म भरा तो सब वही विषय भरे, जो ललित ने बताए थे। ललित को जब यह मालूम पड़ा तो जाने कैसा-कैसा लगा उसे। उसने कहा-‘क्यों री रूप! तू अपनी बात पर टिकती क्यों नहीं। विरोध तो बड़े जोर-शोर से करेगी, दुनिया भर की अकड़ दिखाएगी, पर करेगी वही जो दूसरे चाहते हैं।’

‘क्या करूँ, फिर तुम्हीं कहते कि बड़ी ज़िद्दी लड़की है।’

ललित को रूप की यह कमज़ोरी अच्छी भी लगती थी, बुरी भी लगती थी।

आज कॉलेज खुलनेवाला था। रूप सवेरे से ही कॉलेज जाने की तैयारी कर रही थी। उसने जिंदगी में पहली बार दो चोटियाँ की, उल्टे पल्ले से साड़ी पहिनी, पर्स लिया। जैसे ललित की दृष्टि रूप के इस नए रूप पर पड़ी, वह बड़े जोर से हँस पड़ा-‘अय हाय! गाँव की छोरी और पूरब की चाल!’

‘अच्छा जाओ, हम तो गाँव के ही सही, तुम तो जैसे सीधे विलायत से ही चले आ रहे हो ना!’

रूप की दोनों चोटियाँ पकड़कर घसीटता हुआ ललित भीतर ले गया-‘अरे चाची! देखो तो ज़रा अपनी रूप बिटिया का नखरा तो देखो, कॉलेज जा रही है कॉलेज!’

‘हाय रे मार डाला, सारे बाल नोचकर रख दिए।’

‘क्या कर रहा है रे ललित! इतना बड़ा हो गया, अभी तक बचपना नहीं गया।’ चाची ने स्नेह से डाँटते हुए कहा।

‘अरे चाची, ज़रा रूप की तारीफ़ तो कर दो, बेचारी यह तो न समझे कि इतना सजना-सँवरना बेकार चला गया।’

‘हाँ, तो अच्छी तो लग रही है।’

‘अच्छी! कमाल कर दिया चाची तुमने तो! अरे अच्छी क्या इंद्र के अखाड़े की अप्सरा लग रही है अप्सरा!’

इस विशेषण को सुनकर रूप को गुस्से में भी हँसी आ गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे ललित को मज़ा चखाए। और जब कुछ नहीं सूझा तो उसने उठकर एक लोटा पानी ही उसके ऊपर डाल दिया और खिलखिलाकर हँस पड़ी ‘लो और चिढ़ाओ।’ इस हरकत के लिए ललित तैयार नहीं था। ज्यों ही रूप को पकड़ने के लिए दौड़ा, चाची ने पकड़ लिया-‘इतने बड़े-बड़े हो गए पर ज़रा भी शऊर नहीं। सवेरा हुआ नहीं कि लड़ाई शुरू हो गई। अब कोई तुम छोटे-छोटे बच्चे हो भला!

‘अपनी उस लाडली को तो कुछ कहती नहीं, सिर पर चढ़ाकर बिगाड़ रखा है बुरी तरह। सारे कपड़े बिगाड़ दिए, बदतमीज़ कहीं की।’ और झल्लाया हुआ वह ऊपर कपड़े बदलने चला गया। रूप दूर खड़ी-खड़ी हँस रही थी।

उस दिन चाची किसी से मिलने गई थी और रूप चुपचाप अपने कमरे में बैठी किताब के पन्ने उलट रही थी। तभी ललित ने आकर कहा-‘ऐ रूप! जल्दी से तैयार हो जा, मैं सिनेमा के टिकिट लाया हूँ, बड़ी अच्छी फ़िल्म है।’

‘मुझे नहीं जाना सिनेमा।’ किताब पर से आँख उठाए बिना ही रूप ने उत्तर दिया।

‘क्यों?’

‘यह भी कोई ज़रूरी है कि तुम्हारे हर क्यों और क्या का जवाब ही दिया जाए। बस कह दिया नहीं जाना तो नहीं जाना।’

‘ठीक है, नहीं जाना तो मत जाओ, यहाँ रौब किस पर लगा रही हो। तुम्हारा टिकिट वापस कर देंगे।’ और झल्लाया हुआ ललित ऊपर चला गया। थोड़ी देर में वह तैयार होकर नीचे उतरा और जैसे दरवाजे के पास पहुँचा तो देखा रूप तैयार खड़ी है। वह कुछ नहीं बोला, दोनों चुपचाप चलने लगे। आधा रास्ता पार करने के बाद ललित पूछ ही बैठा-

‘इतना मिजाज़ क्यों गरम हो रहा था तेरा?’ पर जैसे ही उसने रूप की ओर देखा, उसकी छलछलाई आँखें देखकर वह सहम गया। रास्ते में अधिक छेड़ना उचित न समझ वह चुप हो गया। हॉल में पहुँचे और अँधेरा हुआ कि बहुत ही मुलायम स्वर में ललित ने पूछा-‘क्या बात है?’

‘पिताजी की चिट्ठी आई है-लिखा है, एक सप्ताह के लिए चली आओ। तुम्हीं बताओ-अभी जाकर क्या करूँगी भला। जाने मेरा मन कैसा कैसा हो रहा है?

तभी खेल शुरू हो गया। उस समय तो ललित ने बड़ी लापरवाही से कह दिया-‘चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा।’ लेकिन खेल ख़त्म हुआ तो हॉल से बाहर निकलते ही ललित ने पूछा-

‘हाँ, तो क्या लिखा है पिता जी ने?’

‘और तो कुछ नहीं, बस आने के लिए ही लिखा है।’

‘तो तू साफ़ लिख दे कि अभी नहीं आ सकती। कॉलेज की पढ़ाई है कि कोई तमाशा।’

‘हाय राम, पिताजी को टूटता जवाब कैसे लिख दूँ?’

‘हाँ..! पिताजी को टूटता जवाब कैसे लिख दे, टूटता जवाब देने के लिए तो हम हैं। कुछ भी कहो, और फट से ‘नहीं करेंगे’ सुन लो।’

‘तुम्हारा क्या?’

‘हाँ साब! हमारा क्या, हम कोई आदमी थोड़े ही हैं। पर सच रूप, तुझ पर बड़ा गुस्सा आता है। तू इतनी डरपोक क्यों है? घरवालों के सामने तेरी जान निकलती है। देखती नहीं, आजकल की लड़कियाँ कितनी बेधड़क, कितनी निर्भीक होती हैं। दो साल हो गए तुझे यहाँ रहते, पर रही देहातिन-की-देहातिन। मना कर देगी तो पिताजी यही तो सोचेंगे कि लड़की बड़ी ढीठ हो गई है। सोच लेने दे।’

‘तुम जानते नहीं ललित, वह मेरे लिए क्या सोचते हैं। ऐसा जवाब दूंगी तो उनको बड़ा धक्का लगेगा।’

‘बस, यही तो तेरी कमज़ोरी है। घरवाले ज़रा-सा कह दें, हमारी रूप बिटिया जैसा है कोई दुनिया में, और फिर रूप बिटिया से चाहे कुएँ में कुदवा लो तो कूद जाएगी। मैं कहता हूँ, अपनी यह आदत छोड़ और ज़रा हिम्मत से काम लेना सीख।’

‘मुझसे तो नहीं लिखा जाएगा, पर मैं जाऊँगी भी नहीं।’ और उसका गला भर्रा आया।

‘अच्छा, तो अब रो मत। मैं चाचाजी से कहकर चिट्ठी लिखवा दूंगा।’ और सचमुच ही ललित ने रूप के पिताजी को पत्र लिखवा दिया और बात टल गई।

उस दिन संध्या को खूब झमककर पानी बरस रहा था। चाची पकौड़ी बना रही थीं, और रूप और ललित वहीं बैठकर खा रहे थे। ललित एकटक रूप के चेहरे को देख रहा था। ललित को यों घूरते देख रूप बोल पड़ी-‘यों घूर घूरकर क्या देख रहे हो मेरी तरफ़, कभी देखा नहीं है क्या?’

ललित ने कहा-‘सोचता हूँ चाची! जिसने इसका नाम रूप रखा होगा वह नामकरण-विद्या में काफ़ी अनाड़ी रहा होगा। इन देवीजी का नाम रूप हो, इससे बढ़कर नाम की और क्या विडंबना हो सकती है भला?’

चट से बोली रूप- ‘मैं भी सोचती हूँ चाची! इनका नाम ललित किसने रख दिया भला! लालित्य तो इनकी खोपड़ी के ऊपर से ही निकल गया है।’

‘अच्छा तो आपके भी पर निकल रहे हैं। देख रही हो चाची! कैसी जीभ चलने लगी है। वह दिन भूल गई, जब छुई-मुई-सी देहातिन के वेष में यहाँ आई थी।’

‘भूलेंगे क्यों, याद है, पर अपनी तो कहो। क्यों मामी, कैसा हुलिया था इनका, जब तुम इन्हें अनाथाश्रम से लाई थीं? शायद मुँह की मक्खियाँ…? वह वाक्य पूरा भी नहीं कर सकी थी कि ललित प्लेट और प्याला छोड़कर तमककर ऊपर चला गया।

घबराकर चाची बोलीं-‘यह तूने क्या कह डाला पगली! तू जानती नहीं, इस बात से वह कितना दुखी हो जाता है। कितने ही सालों तक तो वह इस घर को किसी तरह भी अपना मानने को तैयार नहीं था, यह तो पिछले पाँच-छह वर्षों से ही हमारा बनकर रह रहा है। अब तू ही उसे मनाकर ला, जाते ही माफी मांग लेना।’ और उन्होंने चट कढ़ाई उतार दी!

महज़ मज़ाक में रूप यह सब-कुछ कह गई थी। ऐसा परिणाम होगा यह तो सोचा भी नहीं था। ललित के दुख की बात सुनते ही उसका मन भर आया। वह धीरे-धीरे ललित के कमरे की ओर चली। दरवाज़े पर पहुँचकर देखा, ललित मेज़ पर दोनों हाथों के बीच सिर डाले बैठा है। धीरे-धीरे उसके पास पहुँची। बहुत ही मुलायम स्वर में बोली-‘ललित!’

ललित चुप!

‘मुझसे बहुत नाराज़ हो ललित?’

ललित चुप!

‘तुम्हारे दिल को चोट पहुँचाने का मेरा ज़रा भी इरादा नहीं था, सच मानना। मैंने यों ही मज़ाक में कह दिया था।’

ललित चुप!

‘आगे से ऐसा कभी नहीं होगा ललित! इस बार माफ़ कर दो!’

ललित चुप!

‘एक बार भी माफ नहीं कर सकते ललित…तो मैं जाऊँ?’ और एक गरम बूंद ललित के हाथ पर चू पड़ी। लेकिन जाने कैसा पागलपन-सा सवार हो गया था ललित पर कि उस ओर बिना ध्यान दिए ही झटके से सिर उठाकर वह चीख उठा—‘जा, जा, चली जा! किसने रोक रखा है तुझे यहाँ पर! तू तो सनाथ है, क्यों माफ़ी माँगने आई है एक अनाथ लड़के से।’ और तडाक् से एक पूरे हाथ का चाँटा रूप के गाल पर जमा दिया। दो-तीन क्षण तक कमरे में सन्नाटा छा गया। जब ललित ने बहुत ही मुलायम स्वर में पूछा-‘बहुत चोट आ गई रूप? तू इस समय क्यों आई? क्यों आई तू इस समय यहाँ?’ और उसकी अपनी आँखें भी डबडबा आईं। रूप की आँखों से आँसू बहते रहे और ललित उसकी पीठ थपथपाता रहा, आँसू पोंछता रहा-पर बोला कोई कुछ भी नहीं।

तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में दोनों एक-दूसरे के कितने निकट आ गए थे, इस बात का अहसास ही उन्हें उस दिन हुआ, जब ललित के विदेश जाने की बात निश्चित हो गई। बड़े जोश के साथ सारा घर तैयारी में जुट गया। रूप तो सारा काम इस प्रकार कर रही थी मानो वह भी साथ जा रही हो। सारी तैयारी हो गई। जाने के जब केवल तीन दिन रह गए तो साँझ को ललित रूप के पास पहुँचा। आज उसका मन बड़ा उदास हो रहा था…

‘बोलो!’

‘आज मन बड़ा भारी-भारी हो रहा है। सोचता हूँ, तीन दिन बाद ही मैं यहाँ से चला जाऊँगा और यहाँ का सब-कुछ पीछे छूट जाएगा।’ कुछ रुककर वह फिर से बोला-‘इन तीन सालों में तेरे साथ रहते-रहते जिस चीज़ को महसूस नहीं कर पाया, आज इस विदाई बेला में जैसे वही पूरे वेग से मुझे मथे डाल रही है। पता नहीं, तू भी ऐसा महसूस करती है या नहीं, पर सच रूप! मेरा तो रोम-रोम आज तेरे वियोग की कल्पना से ही दुखी हो रहा है।’

‘मुझे तुमने क्या पत्थर समझ रख है ललित! जानते नहीं, किस प्रकार मैं अपने को पत्थर बनाए बैठी हूँ, नहीं तो तुम डाँटने लगोगे कि कैसी कमज़ोर लड़की है। अब तुम यों कमज़ोरी दिखाओगे तो मैं क्या करूँगी ललित? और उसकी आँखें छलछला आईं। ललित कुछ देर उसकी ओर देखता रहा, फिर बोला-‘देख, मैं तुझे अपनी रूप सौंपकर जा रहा हूँ, इस विश्वास के साथ कि लौटूँगा तो मुझे इसी हालत में लौटा देगी। ऐसा न हो कि मैं लोटूँ और देखें कि तूने रूप को किसी और के घर का श्रृंगार बना दिया है। तू बड़ी कमज़ोर है, इसी से मन डरता है। बोल रूप! मेरी धरोहर को रख सकेगी ना?’

‘सब बातें क्या मुँह से कहनी होती हैं ललित! इतना विश्वास रखो, जान रहते तो तुम्हारी सौंपी हुई धरोहर को किसी को हाथ नहीं लगाने दूंगी।’

‘जानता हूँ, जानता हूँ, रूप, कि तू मेरी है। दुनिया की कोई ताकत तुझे मुझसे नहीं छीन सकती। पर फिर भी कहे जाता हूँ, यदि कुछ भी ऐसा-वैसा हो गया तो दुनिया के किसी भी कोने से तुझे भगा लाऊँगा, उस समय मुझे कोई नहीं रोक सकेगा।’

ऐसी नौबत ही नहीं आएगी।’ तभी चाची ने दोनों को चाय के लिए बुलाया और दोनों उठकर चले गए।

ललित चला गया। चाची और रूप खूब रोईं, कुछ दिनों तक घर में भयानक सन्नाटा छाया रहा, फिर धीरे-धीरे सब-कुछ वैसे ही चलने लगा। जिस दिन ललित का पहला पत्र आया, पचासों बार उसे पढ़ा गया, जितने लोग आए सबसे कहा गया। फिर धीरे-धीरे पत्रों की बात भी पुरानी पड़ गई। रूप ने अपना सारा ध्यान किताबों में लगा दिया इस बार भी उसे फ़र्स्ट डिवीज़न में पास होना ही था। ललित के पत्रों में भी तो बराबर यही लिखा रहता था कि खूब पढ़ना, खूब मेहनत करना। रूप को उन पत्रों से बड़ा बल मिलता, बड़ी प्रेरणा मिलती। पर प्रिय ललित, कभी सोचा भी नहीं था कि परसों ही पत्र लिखने के बाद आज फिर आधी रात के भयानक सन्नाटे में तुम्हें पत्र लिखने बैठना पड़ेगा। यह भी नहीं जानती कि जो कुछ लिखना है वह कैसे लिखूँ? बस इतना समझ लो ललित कि इतने विश्वास के साथ अपनी जिस धरोहर को मेरे पास छोड़ गए थे, मेरे देखते-देखते उसे सब लोग छीन रहे हैं और मैं कुछ नहीं कर पा रही हूँ! तुम तो मेरी सारी दृढ़ता, सारे साहस को लेकर कोसों-कोसों दूर बैठे हो, अब किसका सहारा लेकर घरवालों का विरोध करूँ? तुम्हारे बिना कितनी बेबस, कितनी असहाय मैं अपने को महसूस कर रही हूँ, तुम सोच नहीं सकते! तुम्हीं बताओ ललित, अब क्या होगा?

नहीं जानती, पिताजी ने कौनसे जन्म का बदला निकाला है! एक बार मुझसे पूछ तो लिया होता। उस हालत में मैं साफ-साफ कह देती, पर किसी ने मुझसे पूछने की ज़रूरत ही नहीं समझी, और शादी की तारीख तक निश्चित कर दी। मेरी इच्छाओं की, मेरे अरमानों की कोई परवाह तक नहीं की। इतनी साध से सपनों का सुनहला संसार सँजोया था, वह क्या यों ही बिखरकर चूर-चूर हो जाएगा? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होने दूंगी, तुम कोई रास्ता बताओ, नहीं तो सच कहती हूँ मर जाऊँगी, मैं आत्महत्या कर लूँगी। अपने जीते-जी इस अन्याय को नहीं होने दूंगी। जिंदगी-भर घुट-घुटकर मरने से फाँसी का फंदा कहीं अच्छा है। बस एक ही गम मन को कचोटे डाल रहा है…तुम्हें पाने की कितनी साध थी मन में, पर मन का चाहा क्या कभी पूरा होता है? अगले जन्म में विश्वास नहीं करती, पर यदि होता तो यही प्रार्थना कि इस जन्म की अधूरी साध को पूरी कर देना ईश्वर!

ललित! या तो समय रहते मुझे इस अन्याय से बचा लेना या फिर जो कुछ भी कर गुज़रूँ उसके लिए क्षमा कर देना!

अच्छा विदा…कौन जाने यही मेरी अंतिम विदा हो।

तुम्हारी ही तुमने तो पत्र लिखने में बहुत देर कर दी ललित! बहुत देर कर दी। तुम्हारा पत्र मुझे उस समय मिला, जब अग्नि को साक्षी देकर मैं सदा के लिए पराई हो चुकी थी। चार दिन पहले यह पत्र मिला होता तो सोचती हूँ शायद इसी का सहारा लेकर कुछ कर सकती। पर आज तो इसका शब्द-शब्द मेरे हृदय को मथे डाल रहा है।

कितने जोश के साथ मैंने लिखा था कि यदि मैं कुछ भी नहीं कर सकी तो आत्महत्या कर लूँगी। मैं मर जाऊँगी, पर मैं मर भी न सकी। तुम भी सोचते होगे कितनी ज़ाहिल लड़की है, पर नहीं जानती कि सब-कुछ लुट जाने पर भी किसका मोह प्राणों को यों अटकाए है। शायद मन के किसी अज्ञात कोने में तुमसे दंड पाने की लालसा छिपी बैठी है, जिसने मुझे मरने भी नहीं दिया। तुम्हारे साथ इतना बड़ा विश्वासघात करके, बिना तुमसे उचित दंड पाए यदि मर भी जाती तो विश्वासघात की यह भावना निरंतर मेरी आत्मा को सालती न रहती, अब तो जब तक तुम लौटकर नहीं आ जाते और मुझ जैसी ज़ाहिल लड़की को जी भरकर इस कुकर्म की सज़ा नहीं दे लेते, तब तक मैं तुम्हारा आसरा देखती बैठी रहूँगी! यों तो विधाता ने ही मेरे लिए दंड सँजोया है, वह संसार के भयंकर-से-भयंकर दंड से भी कड़ा है, पर विधाता से भी बड़ी अपराधिनी तो मैं तुम्हारी हूँ, सो जब तक तुम्हारे हाथों दंड नहीं पा लेती, मानो मरने का अधिकार भी मुझे नहीं है।

मैं तो अपनी कमज़ोरी का फल भोगूँगी ही, पर इस सारी बात से अकारण ही तुम्हें इतना दुखी होना पड़ा, यह सब सोच-सोचकर ही मन बिंधा जा रहा है। शायद अपात्र को प्यार करने से दुख ही उठाना पड़ता है। अब मुझे भूल जाओ ललित! स्वप्न में भी मेरा ख्याल मत करना। जितनी उमंग और जितने उत्साह के साथ तुम्हारे प्यार को सहेजा, उसी उत्साह के साथ, मन को ज़रा भी मलिन बनाए बिना मैं तुम्हारी उपेक्षा और भर्त्सना को भी अपने आँचल में समेट लूँगी, इतना विश्वास रखना। मुझ जैसे अनेक रूप तुम्हें मिल जाएँगी।

अब और कुछ नहीं लिखूँगी ललित! अब लिखने को शेष रह ही क्या गया है भला? इस पत्र का उत्तर मत देना और यों भी कभी मुझे पत्र मत लिखना। अपने जीवन के पिछले पृष्ठों से रूप का नाम धो-पोंछकर बिल्कुल साफ कर देना, जिससे मेरी अपवित्र छाया भी तुम्हारे सुनहले भविष्य को धूमिल न बना सके।

इसी अनुरोध के साथ ललित, पूछती हूँ, मना करने पर भी तुमने पत्र क्यों लिखा? मेरे इतने अनुरोध को भी रख सके! जानते हो, मैं तो यों ही बहुत कमज़ोर हूँ, फिर, क्यों मेरी मिट्टी बिगाड़ने पर तुले हो? तुम भी औरों के साथ मिलकर यों सताने लगोगे तो किसका आसरा लेकर जिंदा रहूँगी, यह तो सोचा होता।

इतने ढेर सारे प्रश्न तुमने पूछ डाले, पर पूछती हूँ, क्या करोगे यह सब जानकर? जिस लड़की ने तुम्हारे जीवन की सारी खुशियों को यों अकारण ही बर्बाद कर डाला, आज भी उसके दुख-सुख की चिंता से तुम त्रस्त हो। यह सब लिखने के बजाए यदि तुमने खूब भर्त्सना की होती, खूब फटकारा होता तो मन की व्यथा कुछ तो घटती, पर तुम्हारा यह स्नेह मुझसे सहा नहीं जा रहा ललित!

इन मेहँदी लगे हाथों से कैसे अपनी बर्बादी की कथा लिखूँ। बस यही समझ लो ये बहुत अच्छे हैं, और मैं सुखी हूँ। एक छोटा-सा शहर है। और ये इसके नामी वकील हैं। काम में बहुत व्यस्त रहते हैं, यों भी काफ़ी साधु प्रकृति के पुरुष हैं। परिवार का कोई झंझट नहीं, घर में अकेली ही हूँ। साधनों का कोई अभाव नहीं, पर जिसकी सब साध ही मर गई हो, वह क्या करे इन साधनों को लेकर? मेरे लिए बहुत-सी पुस्तकें मँगा दी गई हैं, जिससे इस बड़े घर में अकेली रहकर भी मेरा मन लगा रहे, पर कैसे बताऊँ उन्हें कि जिसका मन ही मर गया, उसके मन लगने न लगने का प्रश्न ही कहाँ उठता है भला!

बस और जो है सब ठीक ही है। जिंदगी को घसीट रही हूँ या जिंदगी मुझे घसीट रही है। कुछ भी समझ लेना, एक ही बात है।

अब भूलकर भी मुझे पत्र मत लिखना। हाथ जोड़कर मैं तुमसे यही प्रार्थना करती हूँ।

उस दिन वकील साहब काम से ज़रा जल्दी ही लौट आए। रूप अपने कमरे में खड़ी शून्य दृष्टि से बाहर कुछ देख रही थी। उसकी आँखें लाल हो रही थीं, मानो अभी-अभी रोकर चुप हुई हो। वकील ने रूप को इस हालत में देखा तो बहुत मुलायम स्वर में बोले-‘तुम्हारा मन शायद यहाँ लगता नहीं, बिल्कुल अकेली जो पड़ गई हो। न हो तो तुम चौधरी साहब की पत्नी के यहाँ चली जाया करो, बड़ी मिलनसार स्त्री हैं, वे तुम्हारा परिचय और लोगों से करवा देंगी। क्या करूँ, मुझे तो ज़रा भी समय ही नहीं मिलता कि तुम्हें घूमाने-फिराने ही ले जाया करूँ।’

‘जी नहीं, मेरा तो मन खूब लग जाता है, फिर ये किताबें तो हैं।’

‘देख रहा हूँ, इधर तुम दुबली भी हो रही हो, अपनी चिंता अपने-आप ही रखा करो, समझी?’

‘आप व्यर्थ ही चिंता कर रहे हैं, मैं बिल्कुल अच्छी हूँ।’

‘अच्छा देखो, आज शायद मुझे लौटने में कुछ देर हो जाए तो तुम मेरे लिए बैठी न रहना, खा-पी लेना। इंतज़ार करने की ज़रा-भी ज़रूरत नहीं है। क्या करूँ, काम को जितना हलका करने की सोचता हूँ, उतना ही बढ़ता जाता है।’

यह सोचकर कि वकील साहब देर से लौटेंगे, रूप बिना खाए ही पुस्तक पढ़ने बैठ गई, पर तभी उसे वकील साहब का स्वर सुनाई पड़ा-

‘अरे, सुनती हो! यह तुम्हारे मैके से कौन आए हैं?’

मैके का नाम सुनते ही रूप झपटकर बाहर निकली। देखा, सामने ललित खड़ा था। उसके पैर जहाँ-के-तहाँ रुक गए, नज़रें नीचे झुक गईं। वकील साहब बड़ी जल्दी में थे-‘देखो, तुम इनके नहाने-खाने की व्यवस्था करो, मुझे बड़ी जल्दी है। कोशिश तो यही करूँगा कि खाने के समय मैं भी लौट आऊँ, नहीं तो तुम इन्हें अच्छी तरह खिला देना…’ और जिस व्यस्तता से वे आए थे, उसी व्यस्तता से चले भी गए।

ललित और रूप दोनों आमने-सामने खड़े थे, दोनों के मन में तूफान मचल रहे थे, पर कोई कुछ बोल नहीं पा रहा था। आख़िर ललित ने ही पूछा-‘कैसी हो रूप?’

‘अच्छी ही हूँ।’ एक छोटा-सा उत्तर देकर वह उसके नहाने-खाने की व्यवस्था करने चली। नहा-धोकर जब ललित तैयार हो गया तो रूप ने पूछा- आपके लिए खाना लगा दूँ?’

‘मैं’ आप ‘कबसे हो गया रूप? इतना परायापन तो न बरतो, नहीं तो यहाँ रहना मुश्किल हो जाएगा! वकील साहब क्या बहुत देर से आएँगे?’

‘उनका कुछ ठीक नहीं, देर हो सकती है।’

‘अच्छा, तो मुझे खाना दे दो।’ पर उसने जब सामने एक ही थाली देखी तो पूछा- और तुम?’

‘मैं बाद में खाऊँगी।’

‘वकील साहब के साथ?’

‘नहीं, सबके बाद में।’

‘पर अकेले तो मुझसे नहीं खाया जाएगा। तुम बैठी रहो और मैं खाऊँ यह कैसे हो सकता है! ले जाओ थाली, मैं भी पीछे ही खा लूँगा।’ ।

ललित ने सारी बात इस ढंग से कही थी कि रूप की आँखों में सावन-भादों की घटाएँ उमड़ आईं। थाली परोसने के बहाने वह अंदर चली गई और फिर खूब अच्छी तरह मुँह धोकर बाहर निकली। पर ललित कोई नादान बच्चा नहीं था। दोनों चुपचाप खाने बैठे। रूप की आँखें बार-बार भर आती थीं। आज सवेरे ही उपन्यास की घटना ने उसके हृदय के किसी कोमल स्थल को बुरी तरह कचोट डाला था कि वह किसी प्रकार भी अपने पर काबू नहीं कर पा रही थी, उस पर ललित का आगमन। बिना कारण ही यों बार-बार आँख भर आने की सफाई देते हुए रूप बोली-

‘पता नहीं, मेरी आँखे आजकल बड़ी ख़राब हो चली हैं, थोड़ी-थोड़ी देर में पानी गिरने लगता है। जिस दिन ज़रा-सा पढ़ लेती हूँ, उस दिन तो हालत और भी खराब हो जाती है।’

ललित मुस्कराया-‘आँखों के बारे में जो नवीन खोजें हुई हैं, उसका तुम्हें पता है? एकाएक दिल पर चोट लगने से आँखों से पानी बहने लगता है, आँखों का सीधा संबंध हृदय से बताया गया है। मेरे आने से तुम्हारे हृदय को भी कहीं…’

जिस आवेग को रूप इतने प्रयत्न से रोके थी, वह फूट पड़ा। रूप झपटकर अंदर चली गई और ललित को लगा, बड़ी बेमौके की बात उसने कह दी।

दो दिन तक ललित ने देखा कि रूप जैसे उससे कन्नी काटती है। वकील साहब तो सवेरे से रात नौ बजे तक बाहर रहते हैं, वह रूप से अनेक बातें कर सकता है, पर वह आती ही नहीं। आखिर एक दिन उसने रूप को बुलाकर बिठा ही लिया-‘बड़ी व्यस्त रहती हो क्या? बात करने का समय भी नहीं निकाल सकती?’

‘नहीं तो।’ छोटा-सा उत्तर था रूप का।

‘वकील साहब तो बड़े व्यस्त रहते हैं, तुम आख़िर सारे दिन करती क्या हो?’

‘घर का काम भी तो रहता होगा ना, आखिर बड़े वकील साहब की पत्नी जो ठहरी।’ एक बार रूप ने ललित की ओर देखा। उन बुझी-बुझी आँखों की दृष्टि में जाने ऐसा क्या था कि ललित का कलेजा बिंध गया, फिर भी वह कहता ही गया, ‘बड़े शानदार मकान में रहती हो, ढेर सारे नौकर-चाकर, बड़ा-सा बगीचा, फिर परिवार का कोई झंझट नहीं, बस लगता है ठाठ हैं तुम्हारे तो!’

‘दुनिया में एक तुम्हीं तो रह गए हो ताने सुनाने को? जी भरकर सुना लो, यदि इसी से तुम्हें तसल्ली मिलती हो तो मैं वह सब भी सह लूंगी।’ और रूप फफक-फफककर रो पड़ी।

ललित इसके लिए ज़रा भी तैयार नहीं था। रूप के आँसुओं में ही जैसे उसके मन का सारा आक्रोश बह गया। उसने बहुत ही स्नेह-भरे शब्दों में कहा-‘अरे पगली, मैं तो मज़ाक कर रहा था, इसी में रो पड़ी।’ फिर एकाएक बहुत ही उदास स्वर में बोला-

‘तुम्हारे हृदय को चोट पहुंचाकर मुझे आनंद मिलेगा, ऐसी बात ही तुम्हारे मन में क्यों आई? तुम्हें सुखी बनाने के उद्देश्य से ही तो मैं इंग्लैंड गया था। सोचा था, उच्च शिक्षा पाकर अच्छी नौकरी भी पा सकूँगा और फिर तुम्हें रानी की तरह रखूँगा, तुम्हारी छोटी-से-छोटी इच्छा को पूरी करने में अपना सर्वस्व कुर्बान कर दूंगा-पर नहीं जानता था कि…’

‘बस करो ललित! क्यों मेरा खून जला रहे हो। वे सब बातें तो अब सपना हो गईं, अब तो मुझे तुम दंड दो। तुम्हारे साथ जैसा विश्वासघात किया, उसकी सज़ा तुम्हारे हाथों से पाना चाहती हूँ।’

ललित खामोश बैठा रहा-रूप सिसकती रही…

‘तुम सुखी होतीं तो मैं तो अपने कलेजे पर पत्थर भी रख लेता, पर तुम्हारी हालत देखकर तो मेरा मन मसोस उठता है। इस तरह सिसक-सिसककर कैसे तुम अपनी जिंदगी बिताओगी? बोलो तो ज़रा।’

‘मेरी किस्मत में तो रोना ही लिखा है। बचपन में माँ मर गईं, तुम्हारा प्यार मिला तो वह भी छीन लिया गया, तुम्हीं बताओ, अब किस बात पर हँसूँ।’

‘किस्मत-विस्मत सब बेकार की बातें हैं। आदमी चाहे तो अपनी किस्मत को बदल सकता है।’ कुछ देर चुप रहकर ललित फिर बोला-

‘मेरी बात मानो तो आज भी तुम सुखी हो सकती हो। जिन बीती बातों को तुम सपना समझ रही हो, वे आज भी सच हो सकती हैं।

रूप की आँखों में प्रश्नवाचक चिह्न साकार हो उठा।

‘तुम मेरे साथ भाग चलो रूप! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है।’

रूप की आँखों फटी-की-फटी रह गईं।

‘तुम सुन रही हो मैं क्या कह रहा हूँ। मुझे नौकरी मिल गई। मैंने मकान ले लिया है-बहुत मज़े में हम लोग रहेंगे।’

‘यह तुम क्या कह रहे हो ललित? जानते हो, मेरी माँग में किसी और के सुहाग का सिंदूर है-अग्नि को साक्षी देकर मैं उनकी हो चुकी हूँ।’

‘यह सब बकवास है, थोथी बातें हैं। जानती हो, जाते समय मैं कह गया था कि यदि कुछ भी हो गया तो मैं दुनिया के किसी भी कोने से भगाकर ले आऊँगा-समझ लो, मैं इसी उद्देश्य से यहाँ आया हूँ। मेरे पीछे, जो जिसके मन में आया उसने किया, अब जो मेरी मर्जी होगी मैं करूँगा, और तुमको मेरा साथ देना होगा रूप, देना ही होगा।’ आवेश से ललित का स्वर काँप रहा था।

‘यह सब कैसे हो सकता है, कैसी पागलपन की बातें तुम कर रहे हो, पिताजी सुनेंगे तो क्या कहेंगे, सारी दुनिया सुनेगी तो क्या सोचेगी? ऐसा भी कहीं हुआ है आज तक?’

‘जहन्नुम में गई दुनिया और जहन्नुम में गए तुम्हारे पिताजी! पिताजी को बिटिया इतनी ही दुलारी होती ना, तो यों कुएँ में न ढकेल देते। तुम्हें पिताजी की भावनाओं को ख़याल है, दुनिया भर का ख़याल है, पर मेरे अरमानों, मेरी तमन्नाओं का कुछ ख़याल नहीं, मानो मैं आदमी नहीं, मिट्टी का लौंदा होऊँ? तुम मुझसे दंड चाहती हो ना, तो समझ लो, मैं यह दंड तुम्हें देना चाहता हूँ, मैं तुम्हें ले जाना चाहता हूँ, भगाकर ले जाना चाहता हूँ।’ उसका आवेश बढ़ता जा रहा था।

‘नहीं-नहीं ललित! इतना बड़ा दंड मुझे मत दो, यह सब मुझसे नहीं होगा, मुझसे कभी नहीं होगा।’ रूप सिसकती रही।

बड़े स्नेह से रूप के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए ललित ने कहा-‘समझ से काम ले रूप! यह जिंदगी यों ही मिट्टी में मिला देने की वस्तु नहीं। फिर तेरे मन की हालत मैं तुझसे अधिक जानता हूँ, क्यों व्यर्थ में अपने को झुठलाने की कोशिश कर रही है। मेरी बात मान जा।’

‘नहीं ललित, यह मुझसे किसी तरह भी नहीं होगा…’

बहुत ही बुझे हुए स्वर में ललित बोला-‘बड़ी आस लेकर यहाँ आया था रूप। जाने क्यों, तू जीवन का सबसे बड़ा दाँव हार गई, फिर भी मेरा मन निराश नहीं हुआ था। सोचता था, अपनी रूप को तो जिस क्षण चाहूँगा ले आऊँगा, बड़ा भरोसा था तुझ पर, लगता है, आज सारे आसरे ही टूट गए। अब तुझे अधिक परेशान नहीं करूँगा, मैं लौट जाऊँगा, पर इतना तो बता दे रूप कि मैं रहूँगा कैसे, कैसे अपने दिन गुज़ारूँगा?’

‘तू चुप क्यों है, बोलती क्यों नहीं?’ और हारे हुए जुआरी की तरह ललित ने सिर अपनी बाँहों में छिपा लिया।

रोते-रोते रूप बोली-‘क्या बोलूँ…तुम जो कहोगे, वही करूँगी ललित, वही करूँगी!’

पूरे सप्ताह भर तक ललित रूप के मन को दृढ़ बनाता रहा। विदेश की स्त्रियों की स्वतंत्रता की बातें, तलाक, प्रेम और विवाह की बातें बताकर उसने उसे पूरी तरह समझा दिया कि जो कुछ भी वे करने जा रहे हैं, वह किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है, और रूप ने भी अपने आपको पूरी तरह तैयार कर लिया, खूब दृढ़ बना लिया। भविष्य के सुनहले स्वप्न उसके हौसलों को बढ़ावा देते और ललित की स्नेह-सिक्त बातें इस दमघोटू वातावरण को छोड़ भागने की ललक पैदा कर देतीं। सातवें दिन ललित ने कहा-

‘अच्छा रूप! कल रात को हम लोग चल देंगे। मैं सवेरे ही यहाँ से बिदा लेकर धर्मशाला में जा टिकूँगा, तुम रात बारह बजे के करीब स्टेशन रोड वाले चबूतरे पर मुझे मिलोगी, समझीं? डारोगी तो नहीं ना?’

‘डरूँगी क्यों? सच कहती हूँ ललित! तुम सामने रहते हो तो न जाने कहाँ का ज़ोर आ जाता है। तुम इंग्लैंड न गए होते तो यह इतनी बड़ी ट्रेजेडी ही नहीं होती। तुम्हारे साथ तो मैं दुनिया की बड़ी-से-बड़ी ताक़त से भी लड़ सकती हूँ-जाने तुम्हारी सूरत में ऐसी कौनसी प्रेरक शक्ति…’

अच्छा-अच्छा, बड़ी-बड़ी बातें न बना अब। तू कुछ भी कह, मेरा मन न जाने क्यों तुझे लेकर कभी आश्वस्त नहीं हो पाता। तू बड़ी कमज़ोर है।’

‘नहीं ललित, तुमसे दूर रहकर ही मैं कमज़ोर रहती हूँ, डरो मत, एक बार कमज़ोरी का फल भुगत चुकी हूँ, उससे जन्म-भर के लिए सबक मिल गया। और सच पूछो तो जिस बात को पहले मैं स्वयं नहीं जानती थी, अब जान पाई हूँ। लिखने को मैंने चाहे तुम्हें लिख दिया कि तुमसे दंड पाने की प्रतीक्षा में बैठी रहूँगी, पर सच पूछो तो मन में कोई और ही साध थी। जाने क्यों अनजाने ही मेरा मन यह आशा लगाए बैठा था कि तुम्हारे आते ही जैसे मेरे सारे दुख दूर हो जाएँगे, तुम मुझे इन झूठे बंधनों से मुक्ति दिला दोगे। सोचती हूँ, यदि तुम आकर यों ही चले जाते तो वह मेरे जीवन की सबसे बड़ी निराशा होती, सबसे बड़ा आघात होता?’

‘तो अब डरेगी तो नहीं ना! मैं निश्चित हो जाऊँ!’

‘अरे ललित के रहते रूप किसी से नहीं डरती।’

दूसरे दिन सवेरे ही ललित वकील साहब और रूप से विदा लेकर, नौकरों-चाकरों को बख्शीश देकर विदा हो गया। रूप ने बड़े ही स्वाभाविक ढंग से उसे विदा किया।

भविष्य के सपने देखते-देखते ही रूप ने सारा दिन बिता दिया। कभी-कभी मधुर कल्पनाएँ उसके मन को मतवाला बना देतीं तो कभी पिताजी, वकील साहब, नई माँ के क्रोधित चेहरे उसके मन को कँपा देते। संध्या को वह उठी और एक अटैची में उसने दो-चार जोड़ी ज़रूरी कपड़े और कुछ रुपए रखे। यों अपने को वह भरसक स्वाभाविक बनाए रखने की कोशिश कर रही थी, फिर भी आज घर की प्रत्येक हरकत को वह बड़ी चौकन्नी होकर देख रही थी। नौकर-चाकर कहीं उसके विषय में ही तो बात नहीं कर रहे हैं। इसी प्रकार नौ बज गए। वकील साहब नहीं लौटे। उसका मन अनेक प्रकार की आशंकाओं से भरने लगा। साढ़े नौ बजे, फिर भी वे नहीं आए। अब तो उसका दिल बुरी तरह धड़कने लगा-‘कहीं किसी ने ललित को तो नहीं देख लिया।’ यह ख़याल आते ही वह ऊपर से नीचे तक काँप उठती। समय के साथ-साथ उसके दिल की धड़कनें भी बढ़ती गईं। तभी वकील साहब आए। उसने पूछा-‘बड़ी देर कर दी आज आपने?’ उसका स्वर काँप-सा रहा था।

‘आज एक बड़ा पुराना मित्र मिल गया, उसी से बातें करने में देरी हो गई।’ अपने-आपको स्वाभाविक बनाए रखने के लिए रूप जल्दी-जल्दी खाना परोसने लगी। उसका हाथ काँप रहा था, और वकील साहब बोले चले जा रहे थे-

‘बड़ी मुसीबत में था बेचारा। उसकी स्त्री अपने किसी आशिक़ के साथ भाग गई।’ रूप का चेहरा फक्, उसका हाथ जहाँ-का-तहाँ रुक गया।

‘मुझसे सलाह लेना चाहते थे कि क्या किया जाए! मैंने साफ़ कह दिया, कानूनी कार्यवाही करो। पर उनका कहना था कि पढ़ी-लिखी लड़की है, कानून के ज़ोर से उसे अपना नहीं बनाया जा सकता।’

कपड़े बदलने का काम खत्म करके वकील साहब कुर्सी पर आ डटे थे। रूप के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे, और वकील साहब अपनी ही धुन में बोले जा रहे थे-

‘मैंने तो साफ कह दिया, पढ़ी-लिखी है तो सिर पर बिठाओ! पढ़ी-लिखी है, पढ़ी-लिखी है! अरे पढ़ी-लिखी तो तुम भी हो, भागने की बात तो दूर रही; दो साल हो गए, मुझे कभी याद नहीं पड़ता कि तुमने आँख उठाकर किसी पुरुष से कभी बात भी की हो। यह भी कोई बात हुई भला!’

रात का एक बजा था। रूप की आँखों से एक-एक करके आँसू टपकते जा रहे थे और उसके सूटकेस से एक-एक करके कपड़े बाहर निकलते जा रहे थे।

यह भी पढ़ें –और प्यार हो गया – गृहलक्ष्मी कहानियां

-आपको यह कहानी कैसी लगी? अपनी प्रतिक्रियाएं जरुर भेजें। प्रतिक्रियाओं के साथ ही आप अपनी कहानियां भी हमें ई-मेल कर सकते हैं-Editor@grehlakshmi.com

-डायमंड पॉकेट बुक्स की अन्य रोचक कहानियों और प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं को खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें-https://bit.ly/39Vn1ji