वो लड़का-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Boys Story
Wo Ladka

Boys Story: यह बात है 1990 की यानि यूनिवर्सिटी के शुरुआती दिनों की। नब्बे की दशक में लड़के लड़कियाँ दोस्त कहाँ हुआ करते थे। हालाँकि ‘मैंने प्यार किया’ में सलमान और भाग्यश्री की दोस्ती और वह गाना ‘मैं लड़की हूँ,तुम लड़के हो,जब मिलते हो ये लगता है…ऽऽऽऽऽऽऽ”मन को खूब भाया था।
यह सिनेमा और इसके गानों का जादू हम सबके सिर चढ़कर बोल रहा था। मैंने भी मन ही मन ऐसे ही किसी दोस्त की कल्पना थी। खैर कल्पना तो कल्पना है जो हकीकत से बहुत परे है यह बात भी जल्द ही समझ में आ गई। एक दिन क्लास के बाद जब हिमानी मेरे कमरे में आई तो इधर-उधर की बातों के बाद मैंने उसे बताया,”पता है कल शाम मैं लंका गई थी। स्टूडेंट्स फ्रेंड्स से किताब खरीद रही थी। वहाँ हमलोग का क्लासमेट शिवम खड़ा दिखा।”

“अच्छा पहले से खड़ा था या तुम्हारे बाद आया?”
“ये तो पता नहीं..मैं किताब के पन्ने पलट रही थी कि उसकी आवाज सुनाई दी। उसने भी दुकानदार से वही किताब माँगी जो मैं देख रही थी।”
“फिर क्या हुआ?”
“होना क्या था। मैं किताब लेकर निकल आई पर न जाने क्यों वह मुझे घूर रहा था। कैसे-कैसे सहपाठी हैं सच्ची…एक तो पान खाते हैं ऊपर से शक्ल से भी दबंगई झलकती है।”
“और तुम्हें चॉकलेटी लोग पसंद आते हैं..” उसने मुझे छेड़ा।
“हाँ यार! दूसरे डिपार्टमेंट में देखो..एक से एक हैंडसम लड़के हैं पर यहाँ तो….चलो छोड़ो ये सब..ये बताओ कि पिकनिक के बारे में तुमने क्या सोचा है?”
“चलेंगे न! जाना ही चाहिए। ये उम्र लौट कर थोड़े ही आने वाला है। क्या पता ये ट्रिप सारी ऊम्र के लिए यादगार बन जाए।”
हिमानी ने कहा और यह बात सचमुच सही साबित हुई।शनिवार को अर्थशास्त्र विभाग के प्रीवियस और फाइनल इयर के सभी छात्र-छात्राएं ट्रिप के लिये निकले। मिर्जापुर जिले के राजदरी व लखनियादरी डैम देखने का प्रोग्राम था। हम गर्ल्स कॉलेज वालों के लिये यह पहला मौका था जब सब एक साथ पिकनिक पर गये थे। एक बड़ी सी बस थी। हम लड़कियाँ आगे की सीट पर और लड़के पीछे बैठे थे। गाते-बजाते सफर कब कट गया पता ही न लगा। आनंददायक रोचक यात्रा का अंत तब हुआ जब हम गंतव्य पर पहुँच गये। हम सभी बस से उतरने के बाद अपने-अपने ग्रुप के साथ डैम देखने निकल पड़े। वहीं एक ओर दो सीनियर्स फिशिंग करते नजर आये तो मैं भी फिशिंग देखने पहुँच गई। डैम के एक ओर पानी जमा होने के कारण एक छोटा सा तालाब बन गया था। वहीं वे दोनों मछली फंसाने का कांटा पानी में डाले बैठे थे।
उनमें से एक समीर था जो हमारे विभाग का टॉपर था जिसे मैं पहले से जानती थी। उसने अपने साथी रीतेश से मिलाया। रितेश वाकई हैंडसम था। उसके हाथ में एक प्लास्टिक की थैली थी जिसमें कुछ मछलियां क़ैद थीं।
“इन मछलियों का आप क्या करेंगे रीतेश भैया!”
“हाॅस्टल ले जाऊँगा। मछलियाँ फंसाना तो मेरा शौक है.. और हाँ! डोंट कॉल मी भैया।”
रीतेश भैया सुनकर बुरा मान गया था।”
फिर मैं आपको क्या कहकर पुकारूं ?”
“भैया के अलावा कुछ भी ..यु कैन कॉल मी रीतेश!” सीधा आँखों में देखता हुआ बोला।
“ओके बाॅस!”
“हे…वेट फ़ॉर अ मिनट..डू यू नो फुल फॉर्म ऑफ बॉस?”
इस बार उसका अंदाज़ अलग ही था और ठहाका ऐसा जोरदार कि सारे लोग हमारी ओर देखने लगे थे। उसका अट्टाहास कह रहा था कि उसके दिल में कुछ और ही था। हाथ के पारदर्शी कवर में कुछ रंगीन मछलियाँ और होठों पर दिलफेंक मुस्कान…मेरे लिये यह अनुभव नितांत नया था।चेहरा पूरा लाल पड़ चुका था और पूरी तरह अनकम्फर्टेबल महसूस करने लगी थी। मेरी यह अवस्था समीर के समझ में आ गई तो उसने रीतेश को रोका।
“इसे क्यों परेशान कर रहे हो यार! शी इज टू इनोसेंट!”
समीर के मुँह से यह सुनकर थोड़ी राहत मिली थी।
“नहीं बताना है तो मत बताओ पर बॉस का फुलफॉर्म तो सुनती जाओ। ब्रदर ऑफ सेक्सी सिस्टर्स…!” वह अपनी बात सुनाने पर आमदा था। तेज़ आवाज़ में उसकी कही ये बात सुनकर ऐसा लगा जैसे कानों में किसी ने गर्म सीसा पिघला कर डाल दिया हो। पूरे शरीर में रक्त का संचार बढ़ गया था और नजरें उठती न थीं।
“आइ एम सॉरी…!”शर्म से पानी पानी हो चुकी थी तो बस इतना कहा और तेज कदमों से भागती हुई अपनी सहेलियों के पास लौट आई। अब तक दिमाग का दही हो चुका था। ब्रदर ऑफ सेक्सी…तो क्या यह सब उसके लिए … इससे पहले गर्ल्स कॉलेज में पढ़ते हुए ऐसी वैसी कोई बात कभी न सुनी थी।
मेरी शक्ल से लगता था जैसे रो दूँगी। सहेलियों ने मेरे उड़े हुए चेहरे को देखकर जाने क्या समझा पर चुप रहीं। इतने में दोपहर के खाने का वक्त हो गया था तो सबने खाना खाया और फिर गानों का कार्यक्रम चला। इधर-उधर घूमने का परिणाम मैं देख चुकी थी सो अब पूरी तरह से ख़ामोश बैठ गई। अपने साथियों के साथ शांति से सबको मौज मस्ती करती देख रही थी।
खाना खत्म होने के बाद सबने खुलकर गाना-बजाना शुरु किया। कोई गीत तो कोई गजल सुना रहा था। अभी -अभी तो माहौल बना था और सबकुछ अच्छा चल रहा था पर शाम को ढलने की बड़ी जल्दी मची थी। सर्दियों की शामें छोटी ही होती हैं। हमारे साथ आये गोविंद सर ने व्हिसिल बजाई और कहा,”जो जहाँ है,वहीं से जल्द-से-जल्द बस तक पहुँच जाये। पन्द्रह मिनट में वापसी की यात्रा शुरु होगी।”
जब हम बस तक पहुँचे तो हमारी नजर शिवम पर पड़ी। दूर कहीं बाईं ओर एक पत्थर पर वह अकेला लेटा आसमान को अपलक निहार रहा था। उस वक्त उसे देखकर यही ख्याल आया जब अकेला ही बैठना था तो पिकनिक पर आने की जरूरत ही क्या थी। न तो वह किसी बातचीत में और न ही किसी गाने बजाने में कोई हिस्सा लिया। उसे किसी से कोई लेना देना भी न था।
“देखा उसे…कितना अलग है शिवम? न किसी के पीछे घूमना न ही किसी तरह की कोई फालतू बातचीत…!”
हिमानी ने पहली बार उसकी शराफ़त नोटिस की। जो मुझे भी सही लगी।
“बिल्कुल सही कहा हिमानी! मैंने जैसा सोचा था,वह वैसा तो बिल्कुल भी नहीं है।”
यह कहती हुई मैं बस में चढ़ गई। रितेश पहले से बैठा था। उसने अपने बगल की सीट पर बैठने का इशारा किया पर मेरे कानों में अभी तक उसकी कही बातें और उसका अट्टहास गूँज रहा था। सुबह की घटना का असर कुछ ऐसा था कि अब तक उस अंजाने भय से बेकाबू दिल बेतहाशा धड़क रहा था तो वहाँ बैठने का सवाल ही नहीं उठता था। उसे साफ-साफ मनाकर मैं आगे बढ़ गई।
“मेरे बगल में बैठोगी तो टूट थोड़े ही जाओगी?”
पीछे से आवाज आई और उसी क्षण उससे भी भारी एक और आवाज,”सर! कोई कुछ न बोले तो इसका मतलब यह तो नहीं की आप छुटकर फायदा उठाएं! आपकी आज़ादी वहीं खत्म होती है जहां से दूसरे की नाक शुरु होती है!”
ये आवाज शिवम की थी जो बस के सामने वाले गेट से चढ़ा और आगे की सीट पर आने का संकेत किया। मैं और मेरी एक सहेली वहां बैठे जहां गोविंद सर बैठे थे। अब किसी किस्म की कोई परेशानी न रही।
सच तो यह है कि जो नजर आता है अक्सर वह सच नहीं होता और सच्चाई तो कभी-कभार खुली आँखों से भी नजर नहीं आती। उसे देखने के लिए मन की आँखे खोलने पड़ती हैं। शिवम के प्रति नज़रिया बदलते ही जैसे सबकुछ बदल गया। हमेशा के लिये समझ गई कि अक्सर कड़क रुख वाले लोग ज्यादा शरीफ होते हैं और ऊपर से नर्म दिखने वाले लोग कई बार अंदर से कुछ और ही होते हैं।
यह भी समझ में आया कि आज़ाद ख्याल होना गलत नहीं मगर किसे कितनी छूट देनी चाहिए या निर्णय लेना आवश्यक होता है। निर्णय लेने की आत्मनिर्भरता अनुभव से ही प्राप्त होता है। क्या होता अगर मैं पिकनिक पर फिशिंग देखने न जाती। शायद मैं रितेश की आंखों में न चढ़ती मगर शिवम का असली गुण भी तो समझ नहीं पाती।
उसने एक सुरक्षा व्यवस्था तब तक बनाये रखी जब तक हम सभी सुरक्षित हॉस्टल नहीं पहुँच गये। उस रोज शिवम ने जिस खामोशी से बिना कुछ बोले हमारी मदद की थी वह उसके शानदार व्यक्तित्व की पहचान बनी। मैं उसके प्रति कृतज्ञ महसूस कर रही थी। उसका नि:स्वार्थ स्वभाव समझ में आया तो मेरी आँखें पूरी तरह से खुल गई।
जिस लड़के को रफ एंड टफ़ और विचित्र समझ रखा था,वह दरअसल हमारे क्लास का सबसे अच्छा लड़का था। जिसे मैं गलती से गलत समझ बैठी थी। नज़रिया बदलते ही उसके गुण नजर आने लगे और वह सौम्य व सच्चरित्र दिखने लगा।

अगले दिन क्लास शुरु होने से पहले वह मेरी डेस्क तक आया और कहा कि ” किसी को कितनी छूट देनी है,कितनी नहीं,ये तुम्हें तय करना है। जहां मान सम्मान पर संकट हो वहां सीनियर जूनियर का बांध तोड़कर अपने मन की सुनो। गलत लोगों से जितनी जल्दी हो सके किनारा कर लेना ही अच्छा!”
और सचमुच मैंने उन बातों को सदा के लिए गांठ बांध कर रख लिया। अब मैं किसी को इतनी छूट नहीं देती कि वह मेरी ही प्रतिष्ठा के लिए घातक सिद्ध हो। वही करती हूं जिसके लिए आत्मा गवाही देती है। आज भी जब सहेलियां मिलती हैं तो उस घटना और उस लड़के के ज़िक्र के बिना हमारी बातें पूरी नहीं होती।