‘अ… च्‍… छा…!’

  बुजुर्ग दादा ने फंसी हुई आवाज़ में बड़ी मुश्किल से केवल ‘अच्‍छा’ कहा।

‘अब आराम करना। .. उठना नहीं।’ बहू उनके ‘अच्‍छा’ कहने के बावजूद संतुष्‍ट नहीं लग रही थी।

‘मैं आपके कमरे के दरवाजे को… बाहर से बंद कर रही हूं।’

‘अ… च्‍… छा…!’ उसी रूंधी, फंसी आवाज़ में ‘अच्‍छा’ कहते हुए दादा जी लेट गए। बहू ने उनके कंबल आदि को व्‍यवस्थित किया।

खाली कटोरा और ट्रे को उठाकर वह अभी दरवाजे के पास पहुंची ही थी, दादा जी लेटे से कराहते हुए उठ बैठे। पलंग से टांगे लटका कर चप्‍पल ढूंढ़ने लगे। बर्तनों को वैसे ही पकड़े बहू उलटे पांव दादा जी की पलंग के पास पहुंची। दादा जी अधिक उम्र और बीमारी की वजह से बातों, वस्‍तुओं को ज्‍यादा याद नहीं रख पाते हैं। छोटे बच्‍चों की तरह तुनकने, रूठने और नाराज़ होने लगते हैं। बहू ही उनकी तीमारदारी और खाना-पानी देख रही थी। वह अपने पांच वर्ष के बेटे और बुजुर्ग दादा ससुर को एक जैसे मान रही थी। दोनों ही चंचल और हठी! बात-बात पर पैर पटकने वाले!

अब की बार बहू ने बनावटी गुस्‍से से आंखें तरेरते हुए मीठे से जैसे डांट दिया, ‘अब नहीं उठना… लेट जाओ… बिल्‍कुल कोई शरारत नहीं… ठीक?’

‘अच्‍छा…।’ दादा जी ने फिर वही रटा-रटाया एक शब्‍द ‘अच्‍छा’ कहा और लेट गए। बहू मुस्‍कुरा कर दोबारा जूठे बर्तनों को उठाकर दरवाजे के पास पहुंची। पलट कर दादा जी की ओर देखा। दादा जी इस बार लेटे ही थे। बहू मंद मुस्‍कान के साथ संतुष्‍ट भाव से कमरे से बाहर आई। उसके लिए पांच वर्ष का बेटा और 95 वर्ष के दादा, दोनों एक समान हो गए थे।

शेर सिंह, कुल्‍लू हिमाचल प्रदेश

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