bhakti, gyaan aur vairaagy
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Bhagwan Vishnu Katha: एक बार देवर्षि नारद भ्रमण करते हुए पृथ्वी लोक पर आ निकले । उस समय कलियुग ने पृथ्वी को पीड़ित कर रखा था । पृथ्वी पर सत्य धर्म और तप का पूर्णतः नाश हो गया था । जीव विकारों में डूबे हुए पापी, दुराचारी, मंदबुद्धि और भाग्यहीन हो गए थे । साधु-संत पाखण्डी बनकर लोगों को अधर्म का मार्ग दिखा रहे थे । ब्राह्मण धन लेकर शिक्षा देने लगे थे । इस प्रकार कलियुग के दोष देखते हुए नारदजी पुष्कर, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, काशी आदि पवित्र स्थलों पर भ्रमण करते हुए अंत में यमुना के तट पर पहुँचे । वहाँ उन्हें एक शोकातुर स्त्री दिखाई दी । उसके निकट ही दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में भूमि पर पड़े हुए जोर-जोर से सीसे ले रहे थे । वह स्त्री कभी उन्हें होश में लाने का प्रयत्न करती और कभी रोने लगती । आस-पास खड़ी स्त्रियाँ उसे बार-बार समझा रही थीं । उत्सुकतावश देवर्षि नारद ने उनका परिचय पूछा ।

वह स्त्री बोली – “देवर्षि ! मेरा नाम ‘भक्ति’ है; ये वृद्ध पुरुष मेरे पुत्र ‘ज्ञान’ और ‘वैराग्य’ हैं । ये देवियाँ गंगा, यमुना आदि श्रेष्ठ नदियाँ हैं । ये मुझे सांत्वना देने यहाँ आई हैं । अब मैं अपने दु:ख का कारण बताती हूँ । कलियुग के प्रभाव के कारण मैं और मेरे दोनों पुत्र दुर्बल होकर वृद्ध और निस्तेज हो गए हैं । जब मैं वृंदावन में आई तो पुन: सुंदर और तेजयुक्त स्त्री बन गई । किंतु मेरे पुत्र अब भी वृद्ध और निस्तेज हैं । इनकी दुर्दशा देख मुझे बड़ा दुःख हो रहा है । हम तीनों सदा एक साथ रहते हैं । अब पुत्र तो वृद्ध हो गए हैं और मैं तरुणी हो गई – यह विपरीत बात कैसे हुई, इसका मुझे कोई ज्ञान नहीं है? भगवन्! आप परम बुद्धिमान तपस्वी और ज्ञानी हैं । कृपया आप ही इसका कारण बताने का कष्ट करें ।”

देवर्षि नारद ने योग के माध्यम से क्षण भर में इसका कारण जान लिया । तदंतर वे बोले – “देवी ! इस समय कलियुग चल रहा है । सदाचार सत्य त्याग और तप यहाँ से लुप्त हो गए हैं । दुष्कर्मों के कारण मनुष्यों का स्वभाव पापियों के समान हो गया है । सुखों में डूबकर वे भक्ति, वैराग्य और ज्ञान को भूल गए हैं । उनकी उपेक्षा के कारण तुम तीनों वृद्ध और निस्तेज होकर वृंदावन में रहने लगे । इस पावन भूमि का स्पर्श करते ही तुम पुन: तरुणी हो गईं । किंतु ज्ञान और वैराग्य का आदर करने वाला यहाँ भी कोई नहीं है ,इस कारण इनकी अवस्था पूर्ववत बनी रही ।”

उनकी बात सुनकर भक्ति बोली – “मुनिश्रेष्ठ ! कलियुग के आने से सम्पूर्ण पृथ्वी पापियों के भार से दब गई है । चारों ओर पाप, दुराचार, असत्य और दुष्कर्मों का बोलबाला है । भगवान् भी न जाने इस अधर्म को कैसे देख रहे हैं? राजा परीक्षित ने पापी कलियुग को क्यों रहने दिया? उसका संहार क्यों नहीं किया?“

नारदजी उसे समझाते हुए बोले – “देवी ! द्वापर के अंतिम दिन जब भगवान् श्रीकृष्ण भू-लोक को त्यागकर अपने परमधाम को चले गए, उसी दिन कलियुग का आगमन हो गया था । वह दीन-हीन बनकर राजा परीक्षित की शरण में आया । परीक्षित बड़े बुद्धिमान, विद्वान और ज्ञानी पुरुष थे । उन्होंने सोचा कि कलियुग में एक गुण श्रेष्ठ है । अन्य युगों में जो फल तप योग और समाधि से भी नहीं मिलता, कलियुग में वह केवल श्रीहरि कीर्तन से ही मिल जाता है । इस प्रकार प्राणियों के कल्याण के लिए उन्होंने कलियुग को अभय प्रदान कर यहाँ रहने की आज्ञा दे दी । शिक्षा का विक्रय, असत्य बोलना और लोभ, काम, क्रोध, मोह का वर्चस्व-ये सब कलियुग के स्वभाव हैं, इसमें किसी का कोई दोष नहीं है । इसलिए भगवान् विष्णु भी यह सब शांत भाव से देख रहे हैं ।”

भक्ति नारदजी से विनती करते हुए बोली – “आप धन्य हैं, मुनिवर ! आपके समान कृपालु इस संसार में कोई दूसरा नहीं । देवर्षि ! आपने मेरे दुःख का निवारण कर दिया है, लेकिन मेरे पुत्र अभी भी अचेत हैं । आप इन्हें भी सचेत करने की कृपा करें ।” भक्ति की विनती सुनकर देवर्षि नारद का मन दया से भर आया । उन्होंने जान और वैराग्य के कानों में वेद ध्वनि और गीता पाठ कर उन्हें सचेत करने का प्रयास किया, किंतु वे किसी भी प्रकार से सचेत नहीं हुए । यह देखकर नारद चिंतित हो गए । तभी एक आकाशवाणी हुई – “देवर्षि ! चिंता का त्याग करें । आपका प्रयास अवश्य सफल होगा । इसके लिए आप सत्कर्म करें । सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही ये क्षणभर में ही युवा होकर तेजयुक्त हो जाएँगे ।” यह सुनकर नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ । तब उस सत्कर्म के बारे में जानने के लिए वे अनेक ऋषि-मुनियों के पास गए, किंतु उनके प्रश्न का उत्तर कोई भी नहीं दे सका । अंत में देवर्षि नारद ने तपस्या कर उस दुर्लभ साधन को जानने का निश्चय किया । इस प्रकार तप करने के विचार से देवर्षि नारद बदरिकावन में बसे विशाला पुरी नामक नगर में आ गए ।

एक बार सनकादि मुनिगण (सनक सनंदन सनक्रमार और सनातन-ये चार ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं जिनकी अवस्था शंकरजी से भी अधिक कही गई है । इनके मुख से निरंतर ‘श्रीहरि: शरणम्’ मंत्र रहता है । इनकी अवस्था सदा 5 वर्ष के बालक की सी रहती है) विशाला पुरी में पधारे । वहाँ नारदजी को चिंताग्रस्त देखकर उन्होंने उनसे चिंतित होने का कारण पूछा । नारदजी ने उन्हें भक्ति ज्ञान वैराग्य और दिव्य आकाशवाणी के बारे में बताया ।

सनकादि मुनि बोले – “देवर्षि ! उनके उद्धार का उपाय श्रीमद् भागवत का श्रवण है । उसके शब्द सुनकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को अपार बल मिलेगा । इससे उन तीनों का कष्ट समाप्त हो जाएगा और उन्हें आनन्द प्राप्त होगा । श्रीमद् भागवत की ध्वनि से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जाएँगे । हरिद्वार के निकट आनन्द नाम का एक घाट है । श्रीमद् भागवत का पाठ करने के लिए वह स्थान उपयुक्त है । हम वहीं जा रहे हैं, अतः आप भी चलकर इस कथा के श्रवण का पुण्य फल प्राप्त करें । कथा के प्रभाव से भक्ति भी अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य के साथ वहाँ आ जाएँगी ।”

नारदजी उनके साथ जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए । शीघ्र ही वे सभी गंगा नदी के तट पर पहुँच गए । ‘सनकादि मुनिगण श्रीमद् भागवत कथा का वाचन कर रहे हैं ।’ यह बात तीनों लोक में फैल गई । शीघ्र ही वसिष्ठ, च्यवन, मेधातिथि, विश्वामित्र, पराशर, मार्कडेय, पिप्पलाद, व्यास आदि ऋषि-मुनि और इन्द्र सहित सभी देवगण भी वहाँ उपस्थित हो गए । उन्होंने सनकादि मुनिगण की श्रेष्ठ आसन पर बिठाकर उनकी पूजा की । तत्पश्चात् उनके चरणों में बैठकर कथा सुनने लगे ।

कथा आरम्भ करने से पूर्व सनकादि मुनिगण सप्ताह श्रवण-विधि की महिमा बता रहे थे, उसी समय भक्ति दोनों पुत्रों के साथ वहाँ आ गई । ज्ञान और वैराग्य युवा अवस्था प्राप्त कर प्रसन्नचित्त दिखाई देने लगे थे । उन्होंने कथा के वाचाक सनकादि मुनिगण के चरणों में प्रणाम किया । सनकादि मुनिगण के आदेश से भक्ति वहाँ बैठे सभी भक्तों के मन में विराजमान हो गई । तत्पश्चात् सनकादि मुनिगण श्रीमद् भागवत की कथा सुनाने लगे । कथा-समाप्ति के बाद भक्ति और उसके दोनों पुत्रों के कष्ट सदा के लिए नष्ट हो गए ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)