Bhagwan Vishnu Katha: किसी समय की बात है – देवर्षि नारद और पर्वत मुनि के मन में एक साथ पृथ्वी लोक का भ्रमण करने का विचार उत्पन्न हुआ । स्वर्ग से चलते समय उन दोनों ने प्रतिज्ञा की कि पृथ्वी पर उनके मन में जो भी विचार पैदा होंगे, वे एक-दूसरे को बता देंगे । स्त्री, धन अथवा भोजन – जैसी भी इच्छा उनके मन में उत्पन्न होगी, वे एक-दूसरे को बता देंगे । यह प्रतिज्ञा करके दोनों मुनिजन पृथ्वी पर आ गए और एक साथ रहकर विभिन्न तीर्थों का भ्रमण करने लगे । ऋषि-मुनियों के दर्शन करते हुए अनेक दिन बीत गए ।
एक बार भ्रमण करते हुए दोनों मुनि एक सुरम्य नगरी में पहुँचे । वहाँ संजय नामक राजा राज्य करते थे । वे बड़े सज्जन, धर्मात्मा और प्रजा-प्रिय राजा थे । जब उन्हें देवर्षि नारद और पर्वत मुनि के आने का समाचार मिला तो उन्होंने भक्तिपूर्वक उनका सत्कार किया और उनसे कुछ दिन वहीं निवास करने का अनुरोध किया ।
संजय की विनम्र प्रार्थना सुनकर दोनों मुनि वहाँ ठहर गए । संजय की दमयंती नामक एक सुंदर, सुशील और गुणवती कन्या थी । दमयंती कर्त्तव्यनिष्ठ भी बहुत थी । अतः राजा ने दोनों मुनियों की सेवा-सत्कार के लिए उसे नियुक्त कर दिया । वह बड़े मनोभाव से देवर्षि नारद और पर्वत मुनि की सेवा करने लगी । राजकुमारी दमयंती के मन में नारदजी के प्रति प्रेम बढ़ता चला गया । नारदजी उसके मनोभावों को समझ गए और उनका मन भी उसकी ओर खिंचने लगा । धीरे-धीरे पर्वत मुनि के प्रति दमयंती की सेवा में भेदभाव उत्पन्न होने लगा । उन्होंने देवर्षि नारद से इस विषय में पूछा ।
नारद बोले -“मित्र पर्वत मुनि ! संकोचवश मैं आपसे नहीं कह सका, किंतु यह सच है कि हम एक-दूसरे को प्रेम करने लगे हैं और विवाह करना चाहते हैं ।
देवर्षि नारद के शब्द सुनते ही पर्वत मुनि कुपित होकर कटु शब्दों में बोले -“नारद ! तुमने प्रतिज्ञा भंग की । मित्रद्रोह किया । मेरे साथ छल किया । जाओ, मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम इसी समय वानर के मुख वाले बन जाओ ।”
नारद मुनि का मुख उसी समय वानर का हो गया । यह देख वे क्रुद्ध हो उठे और किटकिटाते हुए बोले -“पर्वतऽऽऽ ! छोटे-से अपराध के लिए मुझे शाप दे दिया तुमने । लो मैं भी तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम स्वर्ग से अधिकारविहीन हो जाओ और पृथ्वी लोक में ही विचरण करते रहो ।”
इस प्रकार दोनों मुनियों ने क्रोध में आकर एक-दूसरे को शाप दे दिया । इस घटना से दु:खी होकर पर्वत मुनि नारद को अकेला छोड़कर चले गए । वानरमुखी होने के बाद भी उनके प्रति दमयंती का प्रेम कम न हुआ । वह प्रेमभाव से उनकी पूर्ववत् सेवा करती रही । किंतु नारद मुनि अपनी इस दुर्दशा से बहुत दु:खी थे ।
उधर, राजकुमारी दमयंती को विवाह योग्य जानकर राजा संजय ने उसके लिए योग्य वर ढूँढ़ना आरम्भ कर दिया । उसने अपनी एक चतुर सखी तारिका को अपने मन की सारी बात बताकर पिता के पास भेजा । तारिका ने संजय को चतुराई से सारी बात बता दी । संजय ने सोच-विचार करने के बाद दमयंती का विवाह देवर्षि नारद के साथ कर दिया । विवाह के बाद नारद और दमयंती निकट के वन में कुटिया बनाकर रहने लगे । इस प्रकार वैवाहिक जीवन का उपभोग करते हुए समय बीतता रहा ।
एक दिन भ्रमण करते हुए पर्वत मुनि वहाँ पधारे । नारद ने उनका भरपूर स्वागत किया । दमयंती और नारद मुनि के सेवा-भाव से प्रसन्न होकर पर्वत मुनि बोले -“देवर्षि ! मैंने क्रोध में आकर व्यर्थ ही तुम्हें शाप दे दिया था । किंतु अब मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम फिर सुंदर मुख वाले बन जाओ ।” पर्वत मुनि के आशीर्वाद से नारदजी अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए । तब प्रसन्न होकर देवर्षि नारद ने भी पर्वत मुनि को दिया शाप वापस ले लिया । इस प्रकार कटुता दूर कर दोनों मुनियों ने एक-दूसरे को बाँहों में भर लिया ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
