अलविदा दोस्त-21 श्रेष्ठ युवामन की कहानियां पंजाब: Hindi Story
Alvida Dost

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’

Hindi Story: आज पहली दृष्टि में ही गुरमीत सिंह की नजर किरनदीप के चेहरे पर अटक कर रह गई थी।

वह किरनदीप को देखता ही रह गया था।

बहुत ही उदास थी वह। किन्हीं सोचों में खोई हुई-सी।

हैरान! परेशान।

जैसे किसी उलझन में फंसी हो।

आज पहले जैसा तो कुछ भी नहीं था।

ना देखना।

ना चलना।

ना कोई बातचीत।

ना हंसी की झंकार।

उसका व्यवहार पहले जैसा नहीं था।

पहले तो वह जैसे ही स्कूल में पैर रखती, तब जैसे सारा वातावरण महक उठता था। जैसे स्कूल के कमरे, वृक्ष, पौधे और फूल, उसी की प्रतीक्षा करते प्रतीत होते थे।

हंसी बांटना उसके स्वभाव का हिस्सा था। सुबह जब सभी हाजरी लगाने के लिए इकट्ठे होते तो ऐसी चुटीली बात करती कि उदास चेहरों पर भी रौनक नाचने लगती।

परन्तु आज तो किरनदीप खुद ही उदासी के समुद्र में हिचकोले खाती लग रही थी।

वह तो जैसे पहचानना-जानना भी भूल गई हो। उसने सूट भी कल वाला ही पहन रखा था। वरना तो प्रतिदिन नए रंग में उडान भरती थी।

उसकी नजर कितनी ही बार गुरमीत की ओर लौटी। उसकी नजरें बता रही थी जैसे वह अपने भीतर सवाल ही सवाल लिए खड़ी हो।

उसकी इस हालत के बारे में सोचते हुए गुरमीत के अंदर एक बेचैनी-सी उठी। कितना ही कुछ उसकी सोच में आ रहा था, ‘कहीं मुझसे कोई गलती तो नहीं हो गई।’ बार-बार सोचने पर भी वह अपनी किसी गलती का पल्ला नहीं पकड़ पायी।

बेशक दोनों की निकटता के ताने-बाने की किसी को भनक भी नहीं थी। फिर भी गुरमीत इस बात का ख्याल रखता कि कहीं उसके कारण किरनदीप की जिन्दगी पर कोई धब्बा न लग जाए।

वह शुरू से ही खुले स्वभाव की मालिक थी। शायद इसी कारण ही कई बार उसे मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा था। वह देखने में सचमुच ही आकर्षित थी। कई बार कई नौजवान इसी भ्रम में पंख फड़फड़ाने लगते थे। मगर हकीकत से रूबरू होते ही वे पीछे मुड़ जाते थे।

ग्याहरवीं से बी.एड. तक वे एक साथ ही पढते आए थे। दोनों का एक ही शौक था, गाना-बजाना और नाटकों में हिस्सा लेना। दोनों को एक साथ कई बार नाटकों में काम करने का अवसर मिला। कभी प्रेमी-प्रेमिका, कभी पति-पत्नी आदि के रूप में। ग्याहरवीं-बारहवीं में पढ़ते हुए जिस नाटक में उन्होंने प्रेमी-प्रेमिका का रोल किया था, उस नाटक ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया था। यह नाटक काफी सफल रहा था। इस नाटक को बाद की कई टीमों द्वारा अभिनीत किया गया।

एक बार यही नाटक किसी गांव में खेला जाना था। किसी बात से नाटक का निर्देशक गुरमीत से नाराज था। जब यह रोल किसी अन्य को दिया जाने लगा तो किरनदीप ने भी नाटक में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया। नाटक की टीम और दूसरे छात्रों के प्रयासों ने सारी टीम को एक बार फिर से एकत्रित किया।

नाटक के इस माध्यम से ही दोनों में मित्रता कायम हुई। इस साझ के कारण दोनों में होने वाली बातचीत अलग प्रकार की होती थी।

बी.ए. करने के बाद दोनों के दरम्यान दो साल का अंतराल रहा। किरनदीप सी.सी. के द्वारा एम. ए. करने लगी और गुरमीत रैगलुर यूनिवर्सिटी से एम.ए. करने लगा।

गुरमीत को याद आया, कैसे बी.एड. करते हुए संयोग से दोनों फिर मिल गए। जब किरनदीप. गरमीत के अधिक ही नजदीक आने लगी तो एक दिन गुरमीत ने उसे बता दिया, “किरन! मेरी शादी हो गई है।”

किरनदीप पता नहीं कौन-सा विश्वास का दीप अपने अंदर संभाले बैठी थी। उसने गुरमीत द्वारा सच्चाई बताए जाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने यही समझा कि गुरमीत ने उसे टालने के लिए यह बहाना इस्तेमाल किया है।

वह बोली, “पहले झूठ बोलना सीख लो जनाब! भला आपकी शादी हो और मैं बेखबर रहूं…कोई बात नहीं बनी? आप मेरे साथ शादी मत करो लेकिन झूठ तो मत बोलो…।”

इतना विश्वास! सोचते हुए एक पल के लिए गुरमीत को अपनी हीनता का एहसास हुआ।

परन्तु यह तो सच था।

शायद वह सोच रही थी, “काश! यह सच ना हो!”

परन्तु किरनदीप के विश्वास के आगे गुरमीत जैसे सचमुच बौना हो गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह उसका सामना किस प्रकार करे।

वह शर्मिन्दा होते हुए बोला, “किरन! अब तुम मानो या न मानो। मुझे बुरा-भला जो मर्जी कह लो, सच्चाई यही है कि मेरी शादी हो चुकी है। हां, तुम्हें आमंत्रित ना करने के कारण मैं बहुत शर्मिन्दा हूं।”

गुरमीत की बात सुन कर किरनदीप को झटका-सा लगा। वह अवाक्-सी उसे देखने लगी। उसकी इस नजर के आगे वह और भी सिकुड़ने लगा। गुरमीत को लगा, जैसे वह कह रही हो, “कितने बदमाश होते हो तुम मर्द लोग…। मुझे अपने विवाह की कोई खबर भी नहीं दी।”

वह कितनी देर तक बुत बनी खड़ी रही।

गुरमीत को महसूस हुआ जैसे उसके भीतर अजीब-सी हलचल उठ रही हो।

उसके भीतर गुस्से का लावा तो उठा परन्तु उसने उसका इजहार नहीं होने दिया।

वह रो अवश्य रही थी मगर उसकी आंखों से कोई आंसू न निकला।

उसकी आत्मा घायल अवश्य हुई।

उसने होंठ भींच लिए, फिर गुरमीत की ओर दायां हाथ बढा कर कहा, “चलो! दोस्ती तो अभी कायम है न?”

उसका यह सवाल गुरमीत को घायल कर गया। उसे लगा, उसका कद और भी छोटा हो गया हो।

गुरमीत ने भी अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया, जिसे उसने जोर से कस लिया। हाथ मिलाने के बाद किरन ने गुरमीत की अनामिका अंगुली में पड़ी अगूंठी उतार कर अपनी अंगली में डाल ली।

“इस पर तो अब मेरा हक रहेगा ही।” वह धीरे से मस्कराई।

जब कभी भी वह इकट्ठे होते तो गुरमीत की नजर स्वाभाविक ही उसकी अंगुली की ओर उठ जाती।

जब कभी भी उसे अंगूठी का ध्यान आता, वह पल में गुरमीत के पास पहुंच जाता।

उसकी आज वाली हालत गुरमीत के लिए असहनीय हो रही थी।

गुरमीत बेहद संवेदनशील था। इधर-उधर घटने वाली छोटी-सी बात भी उसे बेचैन कर देती थी।

उसकी बेचैनी पल-पल बढ़ती जा रही थी। कितनी ही इधर-उधर की बातें उसके मन में घूमने लगी थी। उसके कारण कोई परेशान हो’ यह बात उससे बर्दाश्त नहीं होती थी। फिर किरनदीप से अधिक निकट तो उसके लिए कोई भी नहीं था। उसे किरनदीप के रिश्ते के बारे में होने वाली बातों का ध्यान आया।

आजकल किरनदीप के विवाह की बातचीत चल रही थी। उसके रिश्ते संबंधी कोई भी बात होती तो वह किरन द्वारा सबसे पहले गुरमीत के पास पहुंचती थी। वह बीते दिन की हर बात व घटना गुरमीत को बताती थी।

एक दिन वह हंस कर कहने लगी, “क्या मालूम आपको मेरी शादी के लिए मध्यस्थ बनना पड़े।”

“मुझे!”

क्यों ?”

“मैं तो शायद इंकार ही कर दूं। मुझे अपने आस-पास घूमते हुए आप बहुत बुरे लगते हैं?”

“चलो, ऐसा ही सही। आप इंकार ही कर दो।”

उसके मध्यस्थ बनने वाली बात ने भी उसे चिन्ता में डाल दिया था। इसके भी कई अर्थ निकलते थे।

आखिर गुरमीत ने अपने आप को दिलासा देते हुए समझाया, “अरे क्यों इधर-उधर की बातों में सिर खपा रहा हूं। हो सकता है, इसके रिश्ते की बात जहां चल रही हो, वो मुझे जानते-पहचानते हो।”

फिर उसे तुरन्त सुखवंत के साथ उसकी बात चलाना याद हो आया।

“तो क्या मैंने सुखवंत के साथ तो नहीं, ऐसी कोई कच्ची बात छेड़ दी हो?”

मैट्रोमोनियल के द्वारा जिस लड़के के साथ आजकल किरनदीप की बात चल रही थी, वह सुखवंत सिंह ही था। गुरमीत को इस संबंध के जुड़ जाने की पूरी उम्मीद थी।

पहली बात तो यह कि सुखवंत कोई अजनबी लड़का नहीं था। वह भी गुरमीत और किरन का बी.एड. का सहपाठी था। वह प्रगतिशील विचारों का गंभीर किस्म का नौजवान था। कॉलेज में अक्सर वह स्टेज से बोलता रहता था। उसका भाषण अत्यन्त प्रभावशाली होता था। भाषण के कारण ही उसका राबता गुरमीत और किरनदीप के साथ हुआ था।

पहले मैस, फिर हॉस्टल के घटिया प्रबंध के बारे में जब रोष प्रगट करने की बात चली तो युवकों की ओर से सुखवंत और युवतियों की ओर से किरनदीप ने उनका नेतृत्व किया। बस-सुविधा के संघर्ष में सुखवंत, किरनदीप और गुरमीत आदर्श विद्यार्थियों के रूप में उभर कर सामने आए।

किरन की खनकती आवाज में जहां मिठास का दरिया बहता, वहीं जोश भी ठाठे मारता था। वह अपने भाषण में ऐतिहासिक प्रसंग मिला कर पेश करती। फिर तो जैसे छोटी-सी-छोटी समस्या के लिए भी विद्यार्थी उसी से संपर्क करने लगे थे।

शक्ल-सूरत से सुखवंत ठीक-ठाक था।

काला रंग ।

मुंह पर माता के दाग।

चौड़े नथुने।

मोटे होंठ।

गुरमीत को तो अब भी याद है कि जब वह एक बार लड़कियों के मजाक का पात्र बन गया था।

वास्तव में बात यह थी कि यूथ फैस्टीवल में गिद्दे की टीम में नाचते हुए किरनदीप ने एक ‘बोली’ डाली, जो वह अक्सर ही बोला करती थी,

“नच्च लो कुड़ियों

टप्प लो नी कुड़ियों

नचणा-टपपणा रह जाऊंगा

कोई बूझड़ जट्ट लै जाऊंगा।

विद्यार्थियों को नयी बात मिल गई। लीडर होने के कारण विद्यार्थियों की नजर में तीनों गुरमीत, किरन और सुखवंत स्वाभाविक ही इस नतीजे पर पहुंचे थे कि यह बोली तो किरन ने जान-बूझ कर सुखवंत की शक्ल-सूरत को आधार बना कर ही बोली थी।

कितने ही विद्यार्थियों ने सुखवंत के कान भरने की कोशिश भी की। परन्तु सुखवंत ने फर्राखदिली दिखाई। “यार फिर क्या बात है, कम से कम किसी की नजर तो मुझ पर पड़ी…तुम्हारे ऊपर तो किसी ने बोली नहीं डाली…मुझे कोई गिला नहीं…।”

वैसे भी जब किसी विषय पर चर्चा चलती या बहस छिड़ जाती तो लड़के-लड़कियों में हंसी-मजाक चलने लगता तो सुखवंत कहे बिना ना रह पाता, “भई क्या हुआ जो मैं बूझड़ जट्ट हूं, लेकिन बात तो बेअक्ली की नहीं करता।”

एक बार किरन ने सुखवंत के बारे में गुरमीत के कान में टिप्पणी की, “भाषण सुन कर तो पता लगता है भई कोई आदमी बोल रहा है….वरना शक्ल-सरत का तो क्या ही कहना…।”

यदि कोई किरनदीप के खुले स्वभाव को आधार बना कर इधर-उधर की बातें करता तो वह तुरन्त उसके गले पड़ जाता। इसलिए उसके सामने किरन के बारे में कोई गिरी हुई बात कहने की किसी की हिम्मत नहीं थी।

…पिछले ही हफ्ते सुखवंत, गुरमीत को मिलने उनके घर आया।

सुखवंत को देखते ही गुरमीत का माथा एक बार तो ठनका। उसने सोचा, कभी आगे या पीछे नहीं…कोई तो खास बात है। यूं ही सुखवंत इतनी दूरी तय करके यहां न आता।”

चाय पीते हुए वे दोनों अपने बीते दिनों को याद करते रहे।

बातों ही बातों में गुरमीत ने पूछा, “क्या विवाह करने का इरादा नहीं है?”

“इरादा तो है…कोई करवा दे तो…तुम ही बताओ! मुझ जैसे बूझड़ जट्ट को कौन पसंद करेगा …?”

“नहीं यार, तुम बूझड़ नहीं हो…बूझड़ तो गंवार को कहते हैं, तुम तो विलक्षण हो। चलो यह तो बताओ, आज कैसे इस ओर चक्कर लगाया। सुख तो है न?”

वह मुस्कराते हुए बोला, “सुख तो है ही….मगर शायद तुम्हें ही कोई दुख देना हो।”

“…अरे यह क्या बात हुई यार…तुम्हारी खातिर दुख नहीं झेलेंगे तो मित्र कहलवाने का क्या फायदा…तुम हुक्म करके तो देखो…?”

“मैंने सोचा, भई लगता तो नहीं, कोई लड़की मुझे पसंद करे…चलो कोशिश करके देख लेते हैं। लोगों को हम भी विवाह करके दिखा ही देते हैं।”

“फिर आई कोई पसंद?”

“मुझे तो बहुत पसंद है…कोई मुझे भी तो करे?”

“तुम पहले हां तो करो…बाकी सब ठीक हो जाएगा।”

“पसंद तो की है….तभी तो तुम्हारे पास आया हूं।” उसने गुरमीत की आंखों में झांका।

“कौन है?”

“तेरे स्कूल की किरन।”

किरन का नाम सुन कर गुरमीत एक पल के लिए तो खामोश हो गया।

फिर यह सोचते हुए कि पता नहीं सुखवंत उसकी खामोशी का क्या अर्थ ले, उसने तुरन्त ही संभलते हुए कहा, “अरे वाह! फिर तो बधाई हो…।”

“नहीं अभी कोई बधाई वगैरह नहीं। क्या मालूम वह मुझे हां कहे या न कहे…। मुझे मालूम नहीं मेरी शक्ल कैसी है।”

“अरे नहीं यार….। आदमी की कीमत उसके गुणों से होती है। तुम्हारे जैसा हीरा आदमी मिलना….” गुरमीत ने बात पलट दी।

“लो मैं तुम्हें हीरे वाली एक बात सुनाता हूं। उन दिनों रिश्तों के समय लड़कियां देखने-दिखाने का रिवाज चला ही था। हमारे गांव में एक लड़का था, मुझसे भी अधिक काला, नाम था उसका हीरा। जब उसके रिश्ते की कहीं बात चली, तब वह अपने बाप से कहने लगा, मैं तो पहले लड़की देगा। उसका बाप कहने लगा, साले! अगर लड़की ने तुझे देखते ही इंकार कर दिया तो….चुपचाप रिश्ते के लिए हामी भर दो।” सुखवंत की बात सुन कर गुरमीत की हंसी निकल गई।

उसकी खुल कर हंसने की कभी आदत नहीं गई थी। कॉलेज के समय भी वह अपने आप को पात्र बना कर हंसने-हंसाने की बात कभी न कभी सुना ही देता था।

“इसलिए बड़े भाई…कैसा देखना-दिखाना…। मुझे तो कहीं यह न कह दे कि यह ततैया कहां से मेरे पीछे आ लगा।”

गुरमीत को सुखवंत की बात समझने में देर न लगी।

उन्हें कोर्स किए चार-पांच वर्ष हो गए थे। गुरमीत और किरन को रिजल्ट आते ही नौकरी मिल गई थी परन्तु सुखवंत को अभी पिछले ही बरस नौकरी मिली थी। वह पटियाले का रहने वाला था और अब शहर के निकट ही उसकी नियुक्ति हुई थी।

लेकिन कई बातों के बारे में गुरमीत अभी भी दुविधा में था।

वह सोचने लगा. “क्या सखवंत किरन के बारे में पछ-ताछ करने के लिए आया था या फिर किरन की ओर से उसके बारे में की गई किसी टिप्पणी के बारे जानना-सुनना चाहता था।”

इसी कारण गुरमीत ने बात करते हुए संयम से काम लिया। उसे इस बात का डर था कि कहीं हंसी-हंसी में ही कोई इधर-उधर की बात मुंह से न निकल जाए।

खामोशी को तोड़ते हुए सुखवंत बोला, “बात यह है यार! पता नहीं तुम भी मेरे बारे में क्या सोचते होंगे। भई मैं कैसे अनपढ़ों की तरह उसका पीछा करता फिर रहा हूं। अभी क्या मुझे मालूम नहीं….मैंने सोचा, दोस्त के पास ही चलते हैं…तुझे तो बात मालूम है…सोचा, यदि उन्नीस-इक्कीस का फर्क हुआ तो तुम ही कहानी को सिरे लगा सकते हो।”

गुरमीत सहजता से बोला, ” देखो, यह बहुत बढ़िया बात है कि आप एक-दूसरे को जानते हैं। तुम्हें मालूम ही है, वह है खुले स्वभाव वाली…प्रगतिशील विचारों वाली…। बाकी बच्चा जिस माहौल में पला हो, उसी प्रकार का उसका रहन-सहन वैसा ही बन जाता है। यह प्रगतिशील परिवार की लड़की है…। कोई ऊंट-पटांग सोचना चाहे तो सोचता रहे। सौ तरह की दुनिया है….जितने मुंह उतनी बातें …। बहुत कॉन्फीडेंस वाली लड़की है। मर्दो समान हिम्मत…। मैं तो कहता हूं भाई, अगर ठीक लगे तो फिर रास्ता मत पूछो…चिन्ता मत करो किसी भी बात की…।”

“परन्तु किरन को किस चिन्ता ने घेर रखा था?”

गुरमीत को तो फिलहाल यही चिन्ता खाई जा रही थी।

आज पन्द्रह दिन हो गए थे। सुखवंत की ओर से कोई हां-ना का संदेश नहीं आया था। गुरमीत ने भी सुखवंत और किरन से कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं समझी।

जहां तक गुरमीत को याद था, उसने कभी कोई ऐसी-वैसी नहीं की थी। परन्तु उसे चिन्ता इस बात की थी कि शायद कहीं किसी ने उन दोनों के संबंध में कहीं कोई बात ना कह दी हो। लोगों की जुबान कहीं पकड़ी जा सकती है…।

उसके भीतर से फिर सवाल उठा, “सुखवंत…उसी से ही क्यों पूछने आया था?”

गुरमीत को डर था कि कहीं उसे उनके बारे में कुछ मालूम न हो गया हो।

परन्तु उसने अन्य लड़कों की तरह मजाक-मजाक में भी कुछ नहीं पूछा था…मैं तो ऐसे ही डर रहा हूं…। आखिर सुखवंत समझदार है…यदि वह इतना ही कच्चा होता तो किरन से बात नहीं चलाता…।” उसने अपने मन को धीरज दिया।

परन्तु उसका संयम जल्दी ही चटक गया। उसकी अंतरात्मा झिंझोड़ने लगी। आखिर कैसा आदमी है तू? कैसी तेरी दोस्ती है…सारा समय ऐसे ही इधर-उधर की बातें सोचने में ही निकाल दिया। क्या इतना ही लगाव था तुम्हारा उसके साथ…क्या तुम्हारा कर्तव्य नहीं बनता कि उसके पास जा कर उसका दु:ख-सुख पूछे? तुम्हें आखिर किस बात का डर है? क्या कभी पहले किरन के नजदीक हो कर कोई बात नहीं की थी? लानत है मेरी ऐसी दोस्ती पर….क्या सोचती होगी वह कि जिसे अपने नजदीक पाया था, वह भी दु:ख साझा नहीं करता।

सोचते हुए वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कमरे से दूर किरनदीप पार्क में नीम के एक दरख्त तले कुर्सी पर बैठी है। धड़कते दिल से वह उसी ओर ही चल दिया।

गुरमीत को अपनी ओर आते देख वह संभल कर बैठ गई।

वह पास पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठ गया।

उनके आस-पास कोई अध्यापक या विद्यार्थी नहीं था। यहां एक झाड़-सा था, जिससे दूर से उन्हें कोई नहीं देख सकता था।

गुरमीत ने कहा, “क्या बात है जनाब, बहुत उदास है। वैसे सब ठीक-ठाक है न?” बात सुन कर वह कुछ ना बोली, बस उसने एक नजर गुरमीत की ओर देखा।

फिर हाथ की किताबें नीचे करते हुए बोली, “कई सुख ऐसे भी होते हैं जो आदमी को उदास कर जाते हैं?” किरन की बात सुन कर गुरमीत सुन्न-सा हो गया।

उसे लगा कि अब समय मजाक करने वाला नहीं। वह अपनी बात करने के अंदाज से पछताने लगा।

वह उसकी ओर देखता ही रहा परन्तु मुंह से कुछ न पूछा।

किरन ने गहरी सांस ली और बोली, “जब आप जैसे दोस्तों से वास्ता पड़ा है….भला फिर घबराने की क्या आवश्यकता है…।”

“अच्छा, इतना विश्वास है नाचीज की दोस्ती पर?”

“दोस्ती विश्वास के सिर पर ही होती है….यदि विश्वास था तभी तो हाथ मिलाया था वरना कोई इस प्रकार की साझ बनाता है?”

गुरमीत को उसकी बात से शांति मिली। मन को सकून सा मिला। संयम फिर जोर पकड़ने लगा। उसकी दोस्ती के सामने उसका सिर झुक गया। वह सोचता था कि यदि विश्वास बड़ा होता तो शक ही पैदा न होता।

बेशक गुरमीत ने अभी तक सुखवंत से हुई बातचीत का जानबूझ कर कोई जिक्र नहीं किया था। मगर फिर भी उसके आने का पता लग ही गया था, तभी तो वह इस मुलाकात को कुरेदना चाहती थी।

वह मजाकिया लहजे में बोली, “क्या पड़ताल की फिर तुम्हारे मित्र सुखवंत ने मेरे बारे में?”

उसका लहजा तीखा था। गुरमीत नजरें झुकाए बैठा रहा।

एक पल के लिए उसे लगा जैसे वह समूचे मर्द जात पर व्यंग्य कस रही हो।

वह सोचने लगा, “क्या सुखवंत के आने के बारे में ना बताने के कारण मुझ से नाराज हो?”

किरन ने एक और तीखा तीर दागा, “इस समाज में मर्द ही भला क्यों लड़कियां के बारे में इतनी पूछ-पड़ताल करते हैं? लड़कियों को यह अधिकार क्यों नहीं?”

“आप भी कर लो पड़ताल?”

“हमें क्या करना है, हम तो चिड़िया है चिड़िया….।” उसने हाथ को हवा में घुमाया।

“एक बात बताओ किरन…क्या मुझसे नाराजगी है कोई। मुझसे तुम्हारी शान में कुछ गलत तो नहीं निकल गया….आज तुम्हें उदास देख कर मेरा मन बहुत उदास है…।”

उसने चेहरा घुमाया और फिर गुरमीत से नजरें मिलाई। परन्तु बोली कुछ नहीं। उसकी खामोशी बहुत कुछ कह रही थी।

उसकी आंखों में पानी भर आया।

चुप्पी तोड़ते हुए गुरमीत उसकी कही बात की ओर आया, “किरन, तुम्हें सारी बात का पता है और तुम खुद भी समझदार हो। सुखवंत आया तो था मगर तुम ने यह जो पड़ताल की बात की है…ऐसी कोई बात नहीं है….। तुम क्या जानती नहीं हो सुखवंत के बारे में …। सुखवंत आम लड़कों जैसा नहीं है। शायद तुम्हें उसके आने पर कोई भ्रम हुआ हो…। वह कोई पड़ताल करने नहीं बल्कि यह चिन्ता मन में ले कर आया था कि क्या किरन मुझे हां कहेगी या नहीं?”

“तो तुम से सिफारिश करवाने आया था?”

“जैसे मर्जी समझ लो महाराज…बाकी ठीक है। वह शक्ल-सूरत के लिहाज से तुम्हारे बराबर का नहीं परन्तु किरन जिन्दगी शक्ल से नहीं अक्ल से चलती है। अगर यह घटिया लडका होता तो मैं भी उससे मंह न लगाता।”

“नहीं. ऐसी बात तो नहीं…। मैं तो बस मजाक कर रही हैं। वास्तव में मैं तो तम्हारा धन्यवाद करने आई हं….मझे तमसे यही आस थी …। मझे सब मालम है. आपने मेरी शख्सियत के बारे में जो भी कहा होगा. जरूरत से ज्यादा ही तारीफ की होगी।” बोलते-बोलते वह रुकी। शायद शब्द उसका साथ नहीं दे रहे थे।

कुछ पल दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही।

फिर रुमाल से तुरन्त आंखें साफ करके बोली, “वह कल आए थे। चार लोग…मुझे शगुन दे गए। तुम्हारा बहुत-बहुत शुक्रिया…..।” कह कर वह एकदम से खड़ी हुई। उसने दायां हाथ मिलाने के लिए बढ़ाया।

जैसे ही गुरमीत ने अपना हाथ बढ़ाया तब किरनदीप ने हाथ पकड़ कर गुरमीत की दी हुई अंगूठी अपनी अंगुली से उतार कर फिर से उसकी अनामिका अंगुली में डाल दी।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’

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