वृद्धावस्था में आचार्य रामानुज एक ब्राह्मण शिष्य का सहारा लेकर गंगा स्नान के लिए जाते थे। लौटते वक्त वे एक शूद्र विद्यार्थी के कंधे पर हाथ रख लेते थे।
उनके इस व्यवहार पर कुछ रूढ़िवादी तिलमिलाते थे। उनमें से एक ने एक दिन उनसे कुछ रुष्ट हो “कह ही डाला, “आचार्य, गंगा-स्नान से शुद्ध होकर आपको शूद्र के शरीर का सहारा लेना उचित नहीं है।”
आचार्य ने हँसते-हँसते उत्तर दिया, “जिसे आप शूद्र मानते हैं, स्नान के पश्चात् उसके कंधे पर मैं इसलिए हाथ रखता हूँ कि अपने उच्च कुल और उच्च जाति का अभिमान धो सकूँ, क्योंकि इस अभिमान के मैल को पानी से धोने में असमर्थ हूँ!”
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